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बिहार में बाहुबली-6: इंदिरा गांधी के काफिले के लिए किसने करा दी थी 01 से 100 नंबर तक की सौ न्यू सौ एंबेसडर कार

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प्रेम कुमार, बेगूसराय:
बेगूसराय के मालिक कम्पनी उर्फ कामदेव सिंह और तत्कालीन राजनीति के बारे में आपको आज बताते हैं। आप उनके राजनीतिक रसूख और हनक का अंदाजा बस इस बात से लगाइए कि सत्तर के दशक में एक बार प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बिहार यात्रा पर आईं और उनका बेगूसराय आने का प्रोग्राम बना। तब उनके काफिले में शामिल होने के लिए एक दिन में ब्रांड न्यू सौ एंबेसडर कार जिनके नंबर एक से सौ तक थे की व्यवस्था करा कर कामदेव सिंह ने पटना भिजवा दिया था। इंदिरा गांधी से उनके सीधे संपर्क बताए जाते थे मतलब CM से PM तक उनकी मदद के मुहताज और मददगार कहे जाते थे। इसका सबसे बड़ा कारण उनका अपार धनबल और बाहुबल के साथ पूरे क्षेत्र पर प्रभाव तो था ही। साथ ही तत्कालीन बिहार की राजनीति में कम्युनिस्ट उभार के खिलाफ उनकी प्रतिसंतुलनकारी भूमिका भी थी।



चुनावी इतिहास में पहला बूथ कैप्चर 
भारतीय चुनावी इतिहास में पहला बूथ कैप्चर 1957 के चुनावों में हुआ था। यह बेगूसराय के रचियाही गांव के कछारी टोला में हुआ था। जिसे कामदेव सिंह ने कांग्रेस के सरयू प्रसाद सिंह के लिए अंजाम दिया था, जो जीते और हारने वाले थे सीपीआई के चंद्रशेखर सिंह। कहते हैं बूथ पर कामदेव सिंह ने अपने आदमियों के साथ खड़े होकर वोट डालने आने वालों से ये कह कर ही पूरी महफिल लूट ली कि 'जा तोहर भोट पयर गेलौ।' 1969 के विधानसभा चुनावों में भी उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी का विरोध किया था उस समय भोला सिंह सीपीआई के कैंडिडेट थे.काँग्रेस के लिए उन्होंने सोनापुर, नयागांव सहित कई बूथ कब्जा लिए थे. ये अलग बात है कि भोलासिंह भी बाद में काँग्रेस में शामिल हो गए थे।



दोनों मिश्रा बंधुओं ने उठाया चुनाव में लाभ
वैसे ही 1971 में कामदेव सिंह ने ही बेगूसराय के 34 बूथों पर कब्जा कर श्यामनंदन मिश्रा को जीत दिलाई थी। बेगूसराय तो खैर उनकी जागीर सरीखा ही था। तत्कालीन खगड़िया,समस्तीपुर, दरभंगा और मुजफ्फरपुर जैसे कई जिलों और कमोबेश बिहार भर के चुनावों में कामदेव सिंह निर्णायक शक्ति बन जाते थे। कहा तो ये भी जाता है कि कामदेव सिंह के जलवे के कारण 1972 में एक हाईप्रोफाईल केंद्रीय मंत्री {ललित नारायण मिश्रा यहाँ साईलेंट हैं} ने उन्हें मिथिला क्षेत्र में बूथ कैप्चरिंग के लिए हायर ही कह लीजिए किया था। ये तत्कालीन TOI ने भी दबे स्वरों में बताया था। मिश्रा जी के छोटे भाई जगन्नाथ मिश्रा बाद में बिहार के मुख्यमंत्री बने और काफी दिनों तक उन्होंने भी कामदेव सिह की सेवाओं का लाभ लिया।




Times of India ने लगाई पहली स्‍टोरी
लोग कहते हैं कि कम्युनिस्टों की जमीन हड़पो नीति की वजह से कामदेव सिंह घृणा की हद तक नफरत करते थे और हर उस शक्ति को सपोर्ट करते थे जो उनके विरुद्ध हो.
ऐसी स्थिति में वो काँग्रेस के लिए पारसमणि सरीखे थे और कम्युनिस्टों के लिए आँखों की किरकिरी। उस दौर में केंद्र से राज्य तक कांग्रेस सत्ता में थी तो उनकी राजनैतिक महत्ता और हनक बताने की जरुरत नहीं रह जाती। कहते हैं अगर किसी सरकारी विभाग में कामदेव सिंह और मंत्री साथ ही घुसते तो भी पहले कुर्सी उनके लिए रखी जाती थी।
उनकी लोकप्रियता और महत्ता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि पटना से जब Times of India ने अपना पहला संस्करण निकाला तो उसकी पहली लीड स्टोरी कामदेव सिंह के बारे में रखी गई थी।



सात्विक प्रवृत्ति के कामदेव के कहने पर चलती थी रेल
कहते हैं कामदेव सिंह अपने निजी जीवन में बिल्कुल सात्विक प्रवृत्ति के थे और चाय तक नहीं पीते थे। न ही कोई उनके सामने ऐसा करने की हिम्मत करता था। लेकिन कामदेव सिंह बंबई की सिनेमाई मायानगरी के प्रति बड़ी रुचि रखते थे। बीबीसी के एक संवाददाता जब उनसे मिलने गए थे तब उनसे बंबई के बारे में बातें करते वो इतने डूब गए कि संवाददाता को कहना पड़ा कि मुझे जाने दीजिए फलाँ बजे बरौनी से मेरी ट्रेन है. इस पर उनका जवाब था अरे आप बेफिक्र बतियाइए बिना आपके गए ट्रेन नहीं खुलेगी और सचमुच दो घंटे तक बरौनी स्टेशन पर उस ट्रेन को रोका गया था जो संवाददाता महोदय के पँहुचने के बाद ही खुली। ये थी बेगूसराय के तत्कालीन दादा, मालिक या कम्पनी कह लीजिए माने जाने वाले कामदेव सिंह की हनक।

तेरह साल के एक बच्चे की हत्या का आरोप लगा
लेकिन उन्होंने कम्युनिस्टों के खिलाफ मानो जंग छेड़ रखी थी। उनके समर्थक कहते थे कि कम्युनिस्टों की हिंसक राजनीति का विरोध किसी अन्य तरीके से करना मुश्किल था।1971 में कहा जाता है कि कामदेव सिंह के लोगों ने एक संघर्ष के दौरान तेरह साल के एक बच्चे की हत्या कर दी थी। जबरदस्त हंगामा मचा और कामदेव पर संभवतः ये पहला हत्या का केस दर्ज हुआ। एक साल के अंदर दो हत्याएँ और हुईंं। जिसके बाद कम्युनिस्ट पार्टी ने उनके खिलाफ राजनीतिक आंदोलन छेड़ दिया तत्कालीन सीपीआई जिला मंत्री सूर्यनारायण सिंह के नेतृत्व में पूरी पार्टी सड़क पर आ गई बाद में सूर्य बाबू सांसद बने तो इस मुद्दे को संसद में भी उठाया। साथ ही तत्कालीन बिहार विधानसभा में भी कामदेव सिंह को लेकर जोरदार हंगामा होने लगा। 



अब्दुल गफूर ने रामचन्द्र खाँ को जब एसपी बनाकर भेजा
1973 से 1975 के बीच मुख्यमंत्री रहे अब्दुल गफूर ने मजबूर हो कर उनके खिलाफ जांच के लिए एक विशेष समिति भी बनाई। लगातार विधानसभा में बढ़ते दवाब के कारण मुख्यमंत्री गफूर ने 1973 में रामचन्द्र खाँ को बेगूसराय का एस पी बना कर भेजा जो 77 के शुरुआत तक रहे। उन्हें कामदेव सिंह के साम्राज्य के खिलाफ पूरी शक्ति लगाने का निर्देश दिया गया। सचमुच रामचन्द्र खाँ ने कामदेव सिंह के खिलाफ कार्रवाई दर कार्रवाई कर के उन्हें बैकफुट पर तो ला ही दिया। कहते हैं इसी दौर में कामदेव सिंह को बेगूसराय छोड़कर नेपाल में रहना पड़ा इसी दौरान वो वहाँ गिरफ्तार भी हुए। लेकिन रामचन्द्र खाँ पूरी तरह सफल नहीं हो पाए। भले कामदेव नेपाल में रह रहे थे पर उनका जलवा बदस्तूर जारी रहा कहा जाता है कि एसपी साहब को केंद्रीय सरकार की तरफ से पूरा सपोर्ट नहीं मिल रहा था ये मजेदार रहस्य है। अंततः रामचन्द्र खाँ बेगूसराय के एस पी पद से हटा दिए गए। उस जमाने में बड़े चर्चे थे और हमलोगों ने सुना था जाते जाते एस पी साहब को कामदेव सिंह  कम्पनी ने बड़ी व्यक्तिगत बेइज्जती बख्शी थी जिसे भुलाना नामुमकिन था।

क्रमशः
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  • (कोई किसी किस्म का उपदेश दे या जज करे उससे पहले ही मैं साफ कर दूँ कि उस दौर में बड़े हो रहे हम जैसे मनबढ़ किस्म के लोगों को ऐसे लोग ही जबरदस्त रूप से आकर्षित करते थे और हम भी वैसा ही बनना चाहते थे। लेकिन बदकिस्मती से पढ़ने-लिखने के चक्कर में जगह छूटी और ऐसा हो न हो सका। घर में रविवार, दिनमान, माया जैसी पत्रिकाएं बड़े भाई लगातार लाते थे! बाकी सारे संबंध और जीवन बेगूसराय से ही जुड़े हैं सो इनके बारे में हक से लिखना सामान्य बात है!)


(प्रेम कुमार बिहार के बेगूसराय में रहते हैं। स्‍वतंत्र लेखन करते हैं।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।