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अलविदा मंगलेश डबराल : जब हवा ने सूचना दी - मर गया वो

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सत्तर साल के युवा कवि मंगलेश डबराल के असमय गुजर जाने पर मिथिलेश सिंह की मार्मिक टिप्पणी

मिथिलेश सिंह
खबर सिर्फ इतनी नहीं है कि 1948 में टिहरी गढ़वाल के काफलपानी गांव में वह पैदा हुआ था, पढ़ाई- लिखाई देहरादून में हुई, नौकरी उसने देश के मुख्तलिफ शहरों में की, वह कवि पहले था और जिंदगी की जरूरतों ने उसे पत्रकार बाद में बनाया लेकिन पत्रकारिता में भी वही खनक, वही पहाड़ से उतरती किसी मेघाछन्न नदी का वेग... वह शख्स मर गया। अब नहीं है वह। उसका नाम था मंगलेश डबराल। खबर सिर्फ इतनी नहीं है कि उसे कोरोना ने निगल लिया और राजधानी दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में उसने जिंदगी से कहा - अब तुमसे रुखसत होता हूं।

खबर यह भी है कि वह एक जुझारू कवि था। समय के आर-पार लड़ने वाला और जीवन के महा महासमरों में भी जिबह होने के बावजूद हर बार उठ खड़ा होने वाला,  जैसे शमशेर की कविता का पुनर्पाठ उनका कोई चश्मे चराग़ कर रहा हो: काल तुझसे होड़ है मेरी... जैसे विजयदेव नारायण साही के 'मछलीघर' के फंदे काट रहा हो वह बूढ़ा जिसका तसव्वुर अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने किया था, जैसे रो रहा है कोई बाजबहादुर और उसके साथ समूचा मालवा जारोकतार रो रहा हो कि इस मोहब्बत को उसके अंजाम तक पहुंचाने के लिए हमें और कितने रतजगे करने होंगे, कि कब वह घड़ी आएगी और बोलने लगेंगे पेड़। मंगलेश की कविताएं कुछ वैसी ही हैं। लड़ती- भिड़ती, निजता को सामूहिकता में बदलती और अंतत: अपनी जड़ों (मनुष्यत्व) की ओर लौटती।

गौर से देखें तो 1960 के दशक के बीतते न बीतते और 1970 के दशक की आवक के आसपास हिंदी कविता ने भी अपना चोला बदला था और बिल्कुल ताजातरीन सपनों के साथ उसने अपनी हाजिरी दर्ज करायी। जैसे साठोत्तरी कहानी का जिक्र होता है, उसके मुकाबले साठोत्तरी कविता का जिक्र कम हुआ लेकिन सोचने, देखने, समझने और एक नयी सौंदर्य चेतना को कविता का जरूरी उपादान बनाने का जो काम इन बीसेक वर्षों में हुआ, वह चकित करने वाला है। धूमिल और राजकमल चौधरी के फौरन बाद का बिल्कुल नया अंदाज।

जो पीढ़ी उस दौर में सामने आयी और जिसके पास बदली हुई दुनिया को देखने का कुछ अलग ही किस्म का बाइस्कोप था, जो नक्सलबाड़ी आंदोलन के ताप से पैदा हुई थी और जिसे इस शोशे में रत्ती भर भी एतबार नहीं था कि नक्सलबाड़ी का जातक तो मार डाला गया, कि उसे सिद्धार्थ शंकर राय की बेलगाम पुलिस ने ढेर कर दिया। अब नक्सलबाड़ी रहा कहां? वह तो इतिहास हो गया। अब काहे का नक्सलबाड़ी, कैसा नक्सलबाड़ी?  समूचा देश सन्निपात की स्थिति में था। न वह आह भर पा रहा था और न वाह कह पा रहा था। इस निपट सन्नाटे में भी जो आवाज मुनादी कर रही थी और जो इस दावे पर अंत अंत तक कायम रही कि लड़ाई कभी मरती नहीं, वह अपनी विरासत नये और कारगर कंधों को अंतर्विरोधों के बीच सौंपती चलती है- वह आवाज नक्सलबाड़ी से बौद्धिक ताप ले कर आये रचनाधर्मियों की थी। यह जमात चिल्ला चिल्ला कर कह रही थी कि देख लेना.. एक दिन कोंपलें फूटेंगी इन्हीं नंगी शाखों से.. देख लेना यह आग दहकेगी, दहकती ही जाएगी। वीरेन डंगवाल, आलोक धन्वा, राजेश जोशी, ज्ञानेंद्रपति, असद जैदी, मंगलेश डबराल- ये कुछ ऐसे नाम हैं, जिन्होंने 'कविता में आदमी होने' और आदमी के रूप में बचे रहने की तमीज को धार दी। साठ और सत्तर के दशक का जब कभी मूल्यांकन होगा, आप इस गंभीर बदलाव और एकदम नयी प्रवृत्तियों की कविता में इंट्री को खारिज कर ही नहीं सकते।

आलोक धन्वा 'गोली दागो पोस्टर' और 'जनता का आदमी' से अपना होना साबित कर रहे थे तो राजेश जोशी उस 'जादू जंगल' की कैफियत समझा रहे थे जो झूठ और मक्कारी पर टिका था और जिसका सफाया निश्चित था। ज्ञानेंद्रपति को याद आ रही थी 'चेतना पारीक' जिसे भयानक अंधड़ में भी वह नहीं भूले और जो कलकत्ता की भीड़भाड़, रेलमपेल, ट्रामों की आवाजाही  के बीच भी उनकी चेतना के साथ निरंतर प्रवहमान रही। वीरेन डंगवाल को याद आता रहा 'राम सिंह' - वह नेपाली बहादुर जो अपना देस छोड़ कर भारत आया, चौकीदारी में मसरूफ हुआ। जिसके पास अब नये जूते हैं,  नयी जुराबें हैं, खुखरी की जगह बंदूक ने ले ली है और जो खटका होते ही मालिक के एक इशारे पर गोली चलाने को आजाद है। लेकिन वह बिसूरता भी है। वह रोज मरता है जिंदा रहने और उजले दिन की आस में। गौर से देखें तो इन तमाम कविताओं में एक खास तरह की बेचैनी है। आजाद होने की बेचैनी। आजाद दिखने की बेचैनी। आजाद करने की बेचैनी। आजादी का यह दावानल फैला तो फिर फैलता ही गया। मंगलेश डबराल ने इस मोर्चे पर अपने को अपने बिरादरों से थोड़ा सा बचाये रखा। यह थोड़ा सा है उनकी कविता का अंडरकरंट जो सहधर्मियों की चिंताओं को जायज तो ठहराता है लेकिन कविता के कवितापन का उतना ही हामी भी है। वह कविता के घर- आंगन में ही विरोध के नये प्रतिमान गढ़ता और पुरानों को खंडित करता चलता है। मिसाल के तौर पर उनकी एक कविता का जिक्र यहां लाजिमी है:

वसंत आएगा हमारी स्मृति में
ठंड से मरी हुई इच्छाओं को फिर से जीवित करता
धीमे-धीमे धुंधवाता ख़ाली कोटरों में
घाटी की घास फैलती रहेगी रात को
ढलानों से मुसाफ़िर की तरह
गुज़रता रहेगा अंधकार

चारों ओर पत्थरों में दबा हुआ मुख
फिर उभरेगा, झाँकेगा कभी
किसी दरार से अचानक
पिघल जाएगी जैसे बीते साल की बर्फ़
शिखरों से टूटते आएंगे फूल
अंतहीन आलिंगनों के बीच एक आवाज़
छटपटाती रहेगी
चिड़िया की तरह लहूलुहान!

जानिये एक नजर में
जन्म : 16 मई 1948
काफलपानी, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड में।
निधन : 09 दिसम्बर 2020
एम्सप नई दिल्लीर में, कोरोना संक्रमण से।
पहाड़ पर लालटेन, घर का रास्ता,  हम जो देखते हैं, आवाज भी एक जगह है, नए युग में शत्रु और  'स्मृति एक दूसरा समय है.' सभी कविता-संग्रह। दो गद्य संग्रह लेखक की रोटी और कवि का अकेलापन के अलावा यात्रा संस्मसरण एक बार आयोवा। 
ओमप्रकाश स्मृति सम्मान (1982); श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार (1989) और "हम जो देखते हैं" के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार (2000) सहित अनेक प्रतिष्ठित सम्मान और पुरस्कार से से विभूषित।

जन्म 16 मई 1948
निधन 09 दिसम्बर 2020
जन्म स्थान गाँव काफलपानी, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड, भारत
कुछ प्रमुख कृतियाँ
पहाड़ पर लालटेन (1981); घर का रास्ता (1988); हम जो देखते हैं (1995); आवाज भी एक जगह है; नए युग में शत्रु — सभी कविता-सँग्रह
विविध
ओमप्रकाश स्मृति सम्मान (1982); श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार (1989) और "हम जो देखते हैं" के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार (2000) सहित अनेक प्रतिष्ठित सम्मान और पुरस्कार से से विभूषित। भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेज़ी, रूसी, जर्मन, डच, फ्रांसीसी, स्पानी, इतालवी, पुर्तगाली, बल्गारी, पोल्स्की आदि विदेशी भाषाओं के कई संकलनों और पत्र-पत्रिकाओं में मंगलेश डबराल की कविताओं के अनुवाद, मरिओला ओफ्रे़दी द्वारा उनके कविता-सँग्रह ‘आवाज़ भी एक जगह है’ का इतालवी अनुवाद ‘अंके ला वोचे ऐ उन लुओगो’ नाम से तथा अँग्रेज़ी अनुवादों का एक चयन ‘दिस नम्बर दज़ नॉट एग्ज़िस्ट’ प्रकाशित। मंगलेश डबराल द्वारा बेर्टोल्ट ब्रेष्ट, हांस माग्नुस ऐंत्सेंसबर्गर, यानिस रित्सोस, जि़्बग्नीयेव हेर्बेत, तादेऊष रूज़ेविच, पाब्लो नेरूदा, एर्नेस्तो कार्देनाल, डोरा गाबे आदि की कविताओं का अँग्रेज़ी से हिन्दी में किए गए अनुवाद भी प्रकाशित ।