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साबरमती का संत-5 : जनता की नब्ज़ पर कैसी रहती थी गांधी की पकड़

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(‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्‍ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक अब सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू होंगे। आज पेश है,  पांचवीं किस्त -संपादक। )

भरत जैन, दिल्ली:

दिसंबर 1929 -रावी के किनारे कांग्रेस का लाहौर अधिवेशन। यह तय किया गया कि 26 जनवरी 1930 को अंग्रेजी राज से स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाएगा और जगह-जगह राष्ट्रीय ध्वज फहराया जाएगा। 26 जनवरी आयी लेकिन कोई विशेष उत्साह कहीं नज़र नहीं आया सिवाय कांग्रेस के नेताओं और सक्रिय कार्यकर्ताओं में। गांधी जी कारण जानते थे। स्वतंत्रता ऐसा विचार है, जिसको लोग समझ नहीं पाते क्योंकि यह एक तरह का एब्स्ट्रेक्ट विचार है, जो आम आदमी के लिए कोई महत्व नहीं रखता। आम आदमी को सिर्फ इस बात से मतलब होता है कि मुझे क्या फा़यदा होने वाला है, और आजा़दी से आम आदमी को क्या फायदा होगा, यह उसे समझ में नहीं आया था कभी भी और ना ही आज  जाता है। ' कोउ नृप भये  हमें का हानि ' वाली सोच बहुत शक्तिशाली होती है। जब तक कि आम आदमी को अपना लाभ-हानि किसी के शासक होने या न होने से नज़र ना आए। 

वैश्विक मंदी का वातावरण था। देश में किसान ,मजदूर , उद्योगपति और व्यापारी सब आर्थिक रूप से त्रस्त थे। वातावरण आंदोलन के लिए तैयार था। पर एक ऐसा मुद्दा चाहिए था जो लोगों को भावनात्मक रूप से उत्तेजित कर सके। गांधी ने 11 सूत्रीय मांग पत्र वायसराय लॉर्ड इरविन के सामने रखा। इसमें कई मांगे थीं,  जैसे जमीन पर लगान कम करना, पाउंड और रुपए काविनिमय दर कम करना,  विदेशी कपड़े पर आयात दर बढ़ाना और सरकारी खर्चे कम करना। इनमें देश के सभी वर्गों के लिए कुछ ना कुछ था। परंतु सबसे मुख्य मांग थी नमक बनाने के लिये अनुमति की ज़रूरत और नमक पर से टैक्स समाप्त किया जाना।' सरकार नमक टैक्स लगाती है ! ' यह सोच ही गरीब आदमी को बहुत हैरान करने वाला है और उस समय ज्यादातर लोग देश में गरीब ही थे। जब उनको यह बात मालूम पड़ी तो उनके मन में गुस्सा आना स्वाभाविक था।  गांधी जी ने एक बार फिर सही नब्ज़ पकड़ी थी।

 

उसके बाद दूसरी रणनीति गांधी की थी धीरे-धीरे देश के अंदर इस बात का प्रचार होना।  उस समय अखबार बहुत लोग  नहीं पढ़ते थे, रेडियो का बहुत प्रचलन नहीं था और था भी  तो वह सरकार के हाथ में ही थ । गांधीजी ने निर्णय किया लंबी यात्रा पैदल करेंगे। धीरे-धीरे देश में यह समाचार लोगों में आपसी बातचीत से फैलता जाएगा और लोग अधिक से अधिक इसमेंमानसिक रूप से शामिल होते जाएंगे।11 मार्च 1930 को 78 साथियों के साथ गांधी साबरमती आश्रम से दांडी के लिए 240 मील की पैदल यात्रा पर चल पड़े। 24 दिन में 10 मील की प्रतिदिन यात्रा, रास्ते में छोटी-छोटी सभाओं में भाषण देना और उसकी  रिपोर्ट  पूरे देश में फैलना। पूरे देश में जागृति आ गई और जब 6 अप्रैल 1930 को डांडी  के तट पर गांधी जी ने नमक बनाया कानून को तोड़ते हुए तो पूरे देश में नमक बनाने का काम शुरू हो गया। जहाँ जिनको  मौका मिला समुद्र का पानी लाये, किसी चौराहे पर बैठ कर के उसे गर्म करके नमक बनाया और कानून को तोड़ा। इतनी छोटी सी बात थी। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि  केवल नमक कानून को तोड़ने से देश में इतना बड़ा आंदोलन बन  जाएगा। कौन सोच सकता था गांधी के अलावा ? यह परिणाम था गांधी का जमीन से जुड़े रहने का। उनके लिए आजा़दी की लड़ाई विचारों की लड़ाई नहीं थी बल्कि देश के निवासियों को जागृत करने का एक तरीका था। उनके मन से निकालने भय  का तरीका था ,लोगों को विदेशी शासन से हानि के प्रति जागरूक करने का एक तरीका था और यह तरीका आज के हमारे नेता भूल चुके भूल चुके हैं।

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(लेखक गुरुग्राम में रहते हैं।  संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।