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Minority Rights Day: अल्पसंख्यक अधिकारों पर संकट के बादल होते जा रहे घने

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डॉ. राजू पांडेय, रायगढ़:
 
वर्ष 2020 में कुछ जिज्ञासु शोधकर्ताओं ने यह जानने का प्रयास किया कि 2006 में आई सच्चर कमेटी की सिफारिशों के 14 वर्ष पूर्ण होने के बाद मुस्लिम अल्पसंख्यकों की स्थिति में क्या परिवर्तन आया है। उनके द्वारा एकत्रित आंकड़े निराश करने वाले हैं। मुसलमानों की जनसंख्या देश की कुल आबादी का 14 प्रतिशत है किंतु लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व 4.9 प्रतिशत है। सिविल सेवाओं के 2019 के नतीजों में 829 सफल उम्मीदवारों में केवल 5 प्रतिशत मुसलमान थे। 28 राज्यों में कोई भी पुलिस प्रमुख या मुख्य सचिव मुसलमान नहीं था। सुप्रीम कोर्ट के 33 जजों में मुस्लिम समुदाय का केवल एक जज था। आईआईटी, आईआईएम तथा एम्स की प्रशासनिक समिति में कोई भी मुसलमान नहीं था। लगभग यही स्थिति निजी क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र की श्रेष्ठ कंपनियों और मीडिया हाउसों की थी- सर्वोच्च स्तर पर मुस्लिम प्रतिनिधित्व का नितांत अभाव था।

 

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विकास के हर पैमाने पर पिछड़े मुस्लिम समुदाय के लिए 2014 के बाद का समय बहुत कठिन रहा है। सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में मुसलमानों के विरुद्ध संदेह और घृणा फैलाने का एक सुनियोजित अभियान जारी है। स्थिति इतनी भयानक है कि यदि मुसलमान विवाह करते हैं और उनकी संतान होती है तो इसे जनसंख्या बढ़ाकर देश पर वर्चस्व स्थापित करने की साजिश के रूप में चित्रित किया जाता है। जबकि यह एक सर्वज्ञात तथ्य है कि मुसलमानों की प्रजनन दर में निरंतर कमी आई है और जनसंख्या की दृष्टि से इनके हिंदुओं से आगे निकलने की बात किसी भी विश्लेषण में सिद्ध नहीं होती। यदि मुसलमान सरकारी नियमों के अधीन संचालित मदरसों में शिक्षा लेते हैं तो कहा जाता है कि उन्हें धार्मिक शिक्षा देकर आतंकी बनाया जा रहा है, लेकिन अगर वे आधुनिक शिक्षा लेकर उच्चाधिकारी बनना चाहते हैं तो इसे भी देश के प्रशासन तंत्र पर कब्जा जमाने की कोशिश के रूप में देखा जाता है और इसे यूपीएससी जिहाद की संज्ञा दी जाती है। अगर मुसलमान लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हिस्सा नहीं लेते हैं तो आरोप लगाया जाता है कि लोकतंत्र पर उनका विश्वास नहीं है किंतु यदि वे जमकर चुनावों में भाग लेते हैं तो कहा जाता है कि  मुस्लिम मतदाता बहुल निर्वाचन क्षेत्रों पर मुसलमान कब्जा कर रहे हैं इसलिए जनांकिकीय  परिवर्तनों के माध्यम से यह सुनिश्चित किया जाए कि मुसलमान हर क्षेत्र में अल्पसंख्यक ही रहें।

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यदि मुसलमान सार्वजनिक स्थानों पर प्रशासन की अनुमति से नमाज अदा करते हैं तो इसे उनके शक्ति प्रदर्शन और सार्वजनिक स्थानों पर कब्जे के षड्यंत्र के तौर पर देखा जाता है जबकि यदि वे मस्जिदों के अंदर कोई धार्मिक कार्यक्रम करते हैं तो यह प्रचारित किया जाता है कि बंद दरवाजों के भीतर कोई देश विरोधी साजिश रची जा रही है। जब वे भोजन करते हैं तो यह प्रचारित किया जाता है कि वे बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं को आहत करने के लिए गोमांस का सेवन कर रहे हैं। जब मुसलमान खिलाड़ी देश के लिए खेलते हैं और कोई मैच अच्छा नहीं जाता तो सोशल मीडिया के ट्रोल्स उनकी राष्ट्रभक्ति पर प्रश्नचिह्न लगाने से नहीं चूकते। यदि कोई मुसलमान सुपरस्टार अपनी फिल्मों के माध्यम से देशभक्ति का संदेश भी दे तब भी उसके बहिष्कार का आह्वान किया जाता है। उसे सुपरस्टार बनाने वाले करोड़ों हिन्दू दर्शकों को उनकी "नासमझी" के लिए लताड़ लगाई जाती है। यदि कोई मुस्लिम युवा प्रेम विवाह करता है तो इसे लव जिहाद कहा जाता है। अगर मुस्लिम समुदाय के लोग वैश्विक महामारी कोविड-19 से पीड़ित होते हैं तो इसे कोरोना जिहाद कहा जाता है। यह कहा जाता है कि मुसलमान अपराध जगत से जुड़े होते हैं जबकि वैश्विक स्तर पर मानवाधिकारों के लिए सक्रिय संगठनों का मानना है कि भारत में मुसलमान होना ही अपराध बनता जा रहा है। मुसलमानों पर यह आरोप प्रायः लगाया जाता है कि उनकी सहानुभूति पाकिस्तान के साथ है किंतु विडंबना यह है कि जब वे भारत को अपना मुल्क बताते हैं तो उन्हें कहा जाता है कि भारत हिंदुओं का देश है और यहां रहने के लिए यह "सत्य" उन्हें स्वीकारना ही होगा। जब मुसलमान भारत को अपना मुल्क कहते हैं तो इसे उनकी भारत पर कब्जे की साजिश के रूप में देखा जाता है। यहां तक कि गरीबी और बेरोजगारी जैसी समस्याओं के लिए कथित रूप से तीव्र गति से बढ़ती मुस्लिम आबादी को जिम्मेदार ठहराया जाता है।

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अनेक अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की गिरती स्थिति पर चिंता जाहिर की है। दिसंबर 2019 में संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार कार्यालय ने एक बयान जारी कर कहा कि "हम इस बात से चिंतित हैं कि नया नागरिकता संशोधन कानून मूलभूत रूप से भेदभाव पर आधारित है। उत्पीड़ित समूहों को संरक्षण देने का उद्देश्य सराहनीय है किंतु नया कानून मुसलमानों को सुरक्षा प्रदान नहीं करता।" ह्यूमन राइट्स वाच की "इंडिया: इवेंट्स ऑफ 2019" शीर्षक रिपोर्ट के अनुसार- "अल्पसंख्यकों द्वारा गोमांस के लिए गायों को बेचने या उनकी हत्या करने की अफवाहों के बीच अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों के साथ भाजपा से संबंध रखने वाले हिन्दू अतिवादी समूहों द्वारा भीड़ की हिंसा की घटनाएं वर्ष भर चलती रहीं। मई 2015 से ऐसी घटनाओं में करीब 50 लोग मारे गए हैं जबकि लगभग 250 लोग घायल हुए हैं। मुसलमानों को पीटने और हिन्दू नारे लगाने हेतु विवश करने की घटनाएं भी हुई हैं। पुलिस इन अपराधों का सम्यक अन्वेषण करने में असफल रही। जांच प्रक्रिया को ठप रखा गया, प्रक्रियाओं की अनदेखी की गई, गवाहों को डराने एवं परेशान करने के लिए उन पर आपराधिक मुकद्दमे कायम किए गए।"

 

 

जनवरी 2020 में यूएस स्टेट कांग्रेस ने धार्मिक उत्पीड़न पर सुनवाई की और भारत के नागरिकता कानून एवं नागरिकता के सत्यापन की प्रक्रिया पर चिंता जाहिर की। इसी माह यूरोपीय संसद में नागरिकता कानून से संबंधित एक जॉइंट मोशन पर चर्चा हुई जिसमें इसे विभेदकारी प्रकृति का और खतरनाक रूप से विभाजनकारी बताया गया था। फरवरी 2020 में संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने एक साक्षात्कार में कहा कि वे इस बात से चिंतित हैं कि विभेदकारी नागरिकता संशोधन कानून के कारण 20 लाख लोगों के सम्मुख -जिनमें बहुत से मुस्लिम मूल के हैं- राज्य विहीन होकर नागरिकता गंवाने का संकट पैदा हो गया है। साउथ एशिया स्टेट ऑफ माइनॉरिटीज रिपोर्ट 2020 के अनुसार मुस्लिम अल्पसंख्यकों के लिए भारत एक खतरनाक एवं हिंसक क्षेत्र बन गया है। फरवरी 2021 में संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार विशेषज्ञों ने जम्मू कश्मीर की स्वायत्तता खत्म करने और नए कानून लागू करने पर चिंता जाहिर करते हुए कहा कि इससे वहाँ की राजनीतिक प्रक्रिया में मुसलमानों की भागीदारी पहले जितनी नहीं रह जाएगी।
फरवरी 2021 में ही ह्यूमन राइट्स वॉच की साउथ एशिया डायरेक्टर मीनाक्षी गांगुली ने कहा- सरकार न केवल मुसलमानों एवं अन्य अल्पसंख्यकों को हमलों से बचाने में नाकाम रही है बल्कि वह हमलावरों को राजनीतिक संरक्षण एवं सुरक्षा प्रदान कर रही है। 

पिछले कुछ वर्षों में न्यायेतर हत्याओं में वृद्धि हुई है जिन्हें एनकाउंटर किलिंग भी कहा जाता है। बहुत से मानवाधिकार संगठन इन एनकाउंटरों को फेक एनकाउंटर मानते रहे हैं। अनेक राजनीतिक दल सरकार पर यह आरोप लगाते रहे हैं कि इन एनकाउंटरों में अल्पसंख्यक ज्यादा हताहत हुए हैं। संयुक्त राष्ट्र के पांच मानवाधिकार विशेषज्ञों ने उत्तरप्रदेश में मार्च 2017 के बाद हुई ढेरों मुठभेड़ हत्याओं पर चिंता जाहिर की है। यूनाइटेड स्टेट्स कमीशन ऑन इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम ने वर्ष 2021 की अपनी रिपोर्ट में लगातार भारत को रिलीजियस फ्रीडम ब्लैक लिस्ट में रखते हुए हमारे देश को "कंट्री फ़ॉर पर्टिकुलर कंसर्न" की श्रेणी में रखा और कहा कि यहां धार्मिक स्वतंत्रता का षड्यंत्रपूर्वक हनन किया जा रहा है। एमनेस्टी इंटरनेशनल की स्टेट ऑफ वर्ल्ड ह्यूमन राइट्स रिपोर्ट 2020-21 में भारत के संदर्भ में कहा गया- धार्मिक अल्पसंख्यकों पर, कानून पर भरोसा न करने वाली एवं आत्मस्फूर्त दंड देने की इच्छुक भीड़ तथा पुलिस कर्मियों द्वारा किए गए हमलों एवं इनकी हत्याओं के विषय में व्यापक रूप से गैर जिम्मेदारी पूर्ण तथा इन्हें संरक्षण देने वाला रवैया सरकार द्वारा अपनाया गया। 

 

One killed, two injured in mob-lynching in Korutla

 

 

भारत सरकार द्वारा हाल ही में पारित कानून नागरिक और राजनीतिक अधिकारों की अंतरराष्ट्रीय प्रसंविदा 1966 के प्रावधानों की कसौटी पर भी खरे नहीं उतरते। 30 जुलाई 2018 को असम में प्रकाशित नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन्स का सम्पूर्ण ड्राफ्ट, आईसीसीपीआर के अनुच्छेद 2(भेदभाव का निषेध),अनुच्छेद 7(अमानवीय व्यवहार से मुक्ति) तथा अनुच्छेद 14( मुकद्दमे की निष्पक्ष सुनवाई और स्वतंत्र न्यायपालिका विषयक अधिकार) का उल्लंघन करता है।  देश में अल्पसंख्यकों के विरुद्ध हिंसा और घृणा फैलाने वाले भाषणों की बाढ़ सी आ गई है। एक निजी टेलीविजन चैनल द्वारा अप्रैल 2018 में किए गए अध्ययन के अनुसार अप्रैल 2014 से अप्रैल 2018 के बीच शीर्षस्थ नेताओं द्वारा घृणा और विभाजन को बढ़ावा देने वाले भाषणों में 500 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इसी अवधि में हेट स्पीच देने वाले 45 नेताओं में से केवल 6 को चेतावनी दी गई या फटकार लगाई गई या इन नेताओं द्वारा सार्वजनिक क्षमा याचना की गई। 45 में से 21 नेता ऐसे थे जिन्होंने एक से ज्यादा बार ऐसे घृणा फैलाने वाले भाषण दिए। भारतीय दंड संहिता की धारा 153, 153(ए), 295(ए) तथा 505 का उपयोग भली प्रकार नहीं किया गया। रिप्रजेंटेशन ऑफ द पीपल एक्ट 1951 के सेक्शन 123(3ए) (जो चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों पर बाध्यकारी है) का प्रयोग भी उचित रीति से नहीं किया गया। हेट स्पीच आईसीसीपीआर के अनुच्छेद 20 का स्पष्ट उल्लंघन है।

Why Indian Muslims don't react to aggressive Hindutva politics — Quartz  India

अनेक राज्यों ने गोहत्या एवं धर्मांतरण रोकने हेतु विभिन्न कानूनों का निर्माण किया है। मानवाधिकारों हेतु कार्य करने वाले अनेक अंतरराष्ट्रीय संगठनों का मानना है कि इन कानूनों के पारित होने के बाद कट्टर हिंदूवादी संगठनों को अल्पसंख्यकों के साथ हिंसा करने का मानो अधिकार मिल गया है। इन कानूनों को आधार बनाकर इनके स्वघोषित रखवाले मुसलमानों के साथ बर्बरता का व्यवहार करते रहे हैं और कदाचित ही इन पर कोई कार्रवाई हुई है। कई मामलों में पीड़ित को ही दोषी ठहरा दिया गया है और उसे स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने के लिए अदालतों के चक्कर काटने पड़े हैं। तबलीगी जमात के एक कार्यक्रम में कोरोना नियमों एवं सावधानियों का पालन न किए जाने और वहां कोविड-19 के मरीज मिलने की खबरों के बाद पूरे देश में मीडिया के माध्यम से मुसलमानों के विरुद्ध जो नफरत, अविश्वास एवं भय फैलाया गया उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। जमायत उलेमा-हिंद मीडिया के दुष्प्रचार के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट गया। मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने टालमटोल करने वाले लज्जाहीन हलफनामे के लिए केंद्र सरकार की खिंचाई की। चीफ जस्टिस ने केंद्र से पूछा कि इसे रोकने के लिए उसने क्या किया। बाद में सत्ताधारी दल के शीर्ष नेता की चुनावी रैलियों और कुंभ मेले के दौरान कोविड प्रोटोकॉल की धज्जियां उड़ाई गईं पर मीडिया मौन रहा।

 

Being Muslim in New India is an inherently existential struggle, subsumed  as community is under an emergent Hindu nation-India News , Firstpost

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के 2015 के आंकड़े यह बताते हैं कि हमारी जेलों में कैदियों की कुल संख्या का 55 प्रतिशत मुस्लिम, दलित और आदिवासी कैदियों का है जबकि हमारी जनसंख्या में इनकी हिस्सेदारी केवल 39 फीसदी है। कॉमन कॉज और सीएसडीएस द्वारा तैयार की गई स्टेटस ऑफ पुलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट 2019 में सर्वेक्षित आधे पुलिस कर्मी यह विश्वास करते पाए गए कि मुसलमान बड़ी जल्दी हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। यह आंकड़े दर्शाते हैं कि किस प्रकार मुसलमानों के विरुद्ध किया जा रहा सुनियोजित दुष्प्रचार हमारे अधिकारी-कर्मचारियों को या व्यापक तौर पर कहें तो समाज को उनके विरुद्ध भड़का रहा है। बहुसंख्यक वर्चस्व और संकीर्ण हिंदुत्व की अवधारणा पर विश्वास करने वाली शक्तियों की रणनीति एकदम स्पष्ट है। सोशल मीडिया पर हजारों जहरीली पोस्ट्स और फेक न्यूज़ के माध्यम से मुस्लिम समुदाय के प्रति नफरत उत्पन्न की जाती है। इसके समानांतर टीवी चैनलों पर साम्प्रदायिक मुद्दों पर हजारों घण्टों की उत्तेजक और विषाक्त बहसों द्वारा इस नफरत के जहर को और परिष्कृत-प्रसारित किया जाता है। धीरे धीरे बहुसंख्यक समुदाय को अल्पसंख्यकों पर हिंसा के लिए तैयार किया जाता है और जब हिंसा का यह चक्र प्रारंभ हो जाता है तब इसे रोकने के लिए उत्तरदायी (सरकार -पुलिस-प्रशासन) मौन धारण कर लेते हैं या अराजक तत्वों को संरक्षण देते हैं। फिर धीरे धीरे इनके महिमामंडन का दौर शुरू होता है। इन अपराधियों को दण्ड मिलना तो दूर नायकों की भांति इनकी पूजा की जाती है। 


यह समय अल्पसंख्यक समुदाय के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। बहुसंख्यक वर्चस्व की हिमायत करने वाली ताकतें उन्हें उस सीमा तक आतंकित करना चाहती हैं जब वे डरकर वैसे ही बन जाएं जैसा दुष्प्रचार उनके विषय में किया जाता है- धर्मांध,हिंसक,प्रतिशोधी,असहिष्णु। सौभाग्य से अब तक अल्पसंख्यक समुदाय ने हिंसा और कट्टरता से दूरी बनाकर रखी है। किंतु आवश्यकता अब अपने नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने की है। शिक्षा-स्वास्थ्य-रोजगार ऐसे कितने ही मानक हैं जिन पर अभी मुस्लिम समुदाय बहुत पीछे है, इनके विषय में सामाजिक जागृति की जरूरत है। मुस्लिम समुदाय में भी सामाजिक पिछड़ापन है, धार्मिक कट्टरता है, अशिक्षा-अंधविश्वास और लैंगिक असमानता का बोलबाला है। इन कमजोरियों को दूर करने का काम भी मुस्लिम समाज के पढ़े लिखे और प्रगतिशील लोगों को करना होगा।

 


 

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। स्कूली जीवन से ही लेखन की ओर झुकाव रहा। समाज, राजनीति और साहित्य-संस्कृति इनके प्रिय विषय हैं। पत्र-पत्रिकाओं और डिजिटल मंच पर नियमित लेखन। रायगढ़ छत्तीसगढ़ में  निवास।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। सहमति के विवेक के साथ असहमति के साहस का भी हम सम्मान करते हैं।