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Edit-desk: धरती आबा का अबुआ दिशोम, अबुआ राज- कितना हुआ साकार

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शहरोज़ क़मर, रांची:
अबुआ राज एते जाना, महारानी राज टुंडु जना

(अपना राज आ गया, महारानी का राज खत्म हो गया)।

उन्नीसवीं सदी के अंत में झारखंड के पहाड़ी इलाके में एक  क्रांतिकारी  युवा ने अपने राज का बिगुल फूंक  दिया था। उसे अपने वचन पर दृढ़ विश्वास था। सूरज सा भरोसा कि हमारी रोशनी हर अंधकार को दूर कर देगी। उसके  शौर्य,  साहस और संगठन बल उसकी ईमानादारी की तरह ही अटल थे। उसके  जादुई व्यक्तित्व में समूचा इलाका झिलमिलाने लगा।

 

 

खुशियों में जंगलों में हरियाली छाई। उनकी झरनों सी सांगीतिक  वाणी पर लोग जुड़ते गए। कारवां बढ़ता गया। अंग्रेजी सेना के साथ कई मुकाबले हुए। विदेशी हुक्मरानों के दांत खट्टे हुए। उसे धोखे से गिरफ्तार कर लिया गया। महज 25 साल की उम्र में यह रणबांकुरा रांची जेल में 9 जून 1900 को शहीद हो गया। इस बांके  बहादुर नौजवान का नाम बिरसा मुंडा था। उन्हें धरती आबा यानी भगवान  का दर्जा मिला। लेकिन इस भगवान कहे पर हमने चलना गवारा न किया। उनके ही सपनों को साकार करने के लिए झारखंड बना। लेकिन हम उनकी बातों पर कितना अमल कर पाए। सरसरी दृष्टि भी दी जाए तो परिणाम शून्य ही आता है।

 

धरती आबा ने कहा था
1. ईली अलोपे नुआ।
(हडिय़ा का नशा मत करो।)
2. सोबेन जीव ओते हसा बीर कंदर सेवाईपे
(जीव जंतु, जल, जंगल, जमीन की सेवा करो।)
3. होयो दु:दुगर हिजुतना रहड़ी को छोपाएपे
(समाज पर मुसीबत आनेवाली है, संघर्ष के लिए तैयार हो जाओ।)
4. हेंदे रमड़ा केचे केचे, पुंडी रमड़ा केचे
(काले गोरे सभी दुश्मनों की पहचान कर उनका मुकाबला करो।)

 

 

शराब के  कारोबार में इज़ाफ़ा
कहा जाता है कि हडिय़ा का सेवन आदिवासियों में आम है। कुछ लोग इसे उनकी संस्कृति  का एक अंग ही मान बैठे हैं। लेकिन धरती आबा को हडिया़ से बहुत चिढ़ थी। उन्होंने स्पष्ट इसके सेवन की मनाही की । कहा, ईली अलोपे नुआ (हडिय़ा का नशा मत करो)। लेकिन हर गांव, शहर और राजधानी तक में नशा का बाजार लगा है। नए राज्य के बनने के बाद शराब की दुकानों की संख्या सुरसा की भांति बढ़ गईं। हडिया की जगह अंग्रेजी शराब ने ले ली। इसके नतीजे में कई सड़क  हादसे, हत्या, मारपीट और छेड़छाड़ की घटनाएं आम हो गईं।

 

 

सोबेन जीव ओते हसा बीर कंदर सेवाईपे
(जीव जंतु, जल, जंगल, जमीन की सेवा करो।)

क्या गीतों में सुनेंगे कोयल की कूक
कौओं और गौरयों का  कलरव अब दुलर्भ हो गया है। कोयल की  कूक भी अब गीतों में सुनी जा सकेगी। ऐसी कल्पना करना कोई कोरी भी नहीं । ऐसा इसलिए कि जंगल ही नहीं रहे। जीव जंतुओं के आशियाने को ही उजाड़ा जा रहा हो, तो वे कहां जाएं। कइयों ने कहीं और ठौर ली। वहीं कुछ घर के बिछोह में दम तोड़ गए। दूसरों के प्राण प्रदूषण ने पखेरु कर दिए। नदियों के सूखने से कई जीव जंतुओं की जान गई। सिर्फ दामोदर और उसके आसपास पनपीं जीव जंतुओं की 100 तरह की प्रजातियां प्रदूषण का ग्रास बन गईं।

 

 

सूख रही हैं नदियां, 60 प्रतिशत कंठ प्यासे
इन दिनों दामोदर को बचाने के लिए आंदोलन किये जा रहे हैं। इस नदी का महत्व इसके  नाम से ही सप्ष्ट है। दामुदा का परिवर्तित रूप ही दामोदर है। दामु का अर्थ है पवित्र और दा का जल। लेकिन हम इसकी पवित्रता को कितना बचा पाए। इस नदी में हर रोज 21 लाख घन मीटर जहरीला पानी बहाया जा रहा है। प्रदेश की लगभग सभी नदियां या तो सूख गई हैं या नाले में बदल चुकी हैं। स्वर्ण रेखा, कोयल, कांची, हरमू और दामोदर जैसी नदियां इतिहास भले न बनी हों, लेकिन उस ओर बढ़ अवश्य रही हैं। कई गांवों में लोगों को तीन से चार किमी दूर पानी के लिए चिलचिलाती धूप का सफर करना पड़ता है। महज 40 फीसदी जनता को ही पीने का पानी नसीब है। यह सरकारी आंकड़ा है। दूसरे शब्दों में अपन कह सकते हैं कि 60 प्रतिशत कंठ प्यासे हैं। ऐसा इसलिए कि झरने, नदियों को हम बचा नहीं पाए। उसका अतिरिक्त दोहन किया। अब गला तर करने के लिए चंद बूंद को विवश हैं।

 

 

1 हजार हेक्टेयर जंगल सूना, सारंडा में सूरज अब सुबह आता है
सारंडा का मतलब सौ जंगल। लेकिन सौ जंगलों का सारंडा भी अब नाम भर का रह गया है। पहले यहां सूरज की  किरणें दोपहर बाद ही पहुंच पाती थीं। लेकिन अब इसका आगमन सुबह ही हो जाता है। औद्योगिकरण ने भी इसके सुखाड़ बनने में भूमिका निभाई है। सारंडा के 40 प्रतिशत भाग में उत्खनन हो रहा है। दलमा के भकुलाकोचा, भाटिन, लोहरदगा, पलामू, गुमला के ढेरों घने जंगलों में अब पौ जल्दी ही फट जाती है। हाल में ही चुट्टुपाली घाटी से हरे पेड़ गायब हो गए। धरती आबा प्रकृति प्रेमी थे। उन्हें भान था कि जिंदगी की बहार के लिए हरियाली कितनी महत्व की है। सरकारी सूत्रों को ही माने लें तो 1 हजार हेक्टेयर जंगल का समूल नाश हो चुका है।

 

 

65 लाख हो गए जमीन से बेदखल
झारखंड में आदिवासी जमीन बचाने के लिए छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम 1949 मौजूद है। लेकिन उसके पालन का  हश्र यह है कि अब तक 65.5 लाख लोग विस्थापित हो चुके हैं। वहीं 30 लाख ने पलायन किया। जिसमें खनन के  कारण 12.5 लाख, कारखानों के कारण 25.5 लाख, बांध 26.4 और अन्य कारणों से अपनी जमीन से 11 लाख लोग बेघर हुए। 70 प्रतिशत का पुनर्वास नहीं हो सका है। अगर पूर्व शिक्षा मंत्री व विधायक बंधु तिर्की की बात मानें तो सिर्फ राजधानी में ही हर रोज दस लोग अपनी जमीन से बेदखल हो रहे हैं। जबकि सरकार हमारी है। जमीन की रक्षा के  कानून हमारे हैं। 

 

डेढ़ सौ साल पहले फ्रेंच लेखक ज्याॅ बतिस्ते लिख गये थे : The more things change, the more they stay the same. इतिहास, समय और घटनाओं से यदि हम सबक न लें, वे अक्सर अपने को दोहराते रहते हैं। अंत में अपनी ही कविता:

ऐसे समय सजाया जाता है 
राजपथ और राजभवन 
जब शहर के कोने में अट्टहास करता है पलामू।

ऐसे समय दिया जता है 
नर्तकों और गवैयों को सम्मान
जब सारंडा से अस्पताल लाते दम तोडती है 
19 वर्षीया गर्भवती 
नहीं दौड़ पाती यह ख़बर
किसी भी अख़बार में।

ठीक ऐसे ही समय किया जाता है 
धरती आबा की आत्मा का आह्वान
जब अपनी ही धरती से बेदख़ल किये जा रहे आदिवासी
ठूंस दिए जाते हैं जेलों में।