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ज्योति पर्व-दीपावली: खिल उठा खुशियों का सहस्त्रदल कमल, बजे उठे आनंद के अनगिनत सितार

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डाॅ. जंग बहादुर पाण्डेय, रांची:

कार्तिक अमावस्या की काली कसौटी-सी अंधेरी रात। चारों ओर अंधकार ही अंधकार। हाथ को हाथ नहीं सूझता। मानो मनु पुत्र घनघोर ध्वांत में तिमिंगल-सा तिलमिला उठा। उसने मंत्र वाणी में पुकारा तमसो मा ज्योतिर्गमय हम अंधकार से प्रकाश की ओर चलें उसने वेदवाणी में गुहार मचाई:स:नो ज्योति:  हमें प्रकाश दीजिए ।उसने बाइबल की भाषा में संकल्प व्यक्त किया- Let there be light and there was light. बस, क्या था, जल उठे मिट्टी के अनगिनत दिए--- बिल्कुल निर्वात पूर्ण निष्कम्प। सज गई दीपमालाएं और स्मरण दिलाने लगी उस ज्ञान आलोक के अभिनव अंकुर की जिसने मनुष्य की कातर प्रार्थना को दृढ़ संकल्प का रूप दिया था अंधकार से जूझना है, विघ्न बाधाओं के वक्षस्थल पर अंग चरण रोपना  है ,संकटों के तूफान का सामना करना है ;परिणाम हुआ ज्योति के सिंह शावक के भय से भाग उठीतमिस्रा की कोटि-कोटि गज वाहिनी बिंद उठे आलोक सर से उनके अंग प्रत्यंग ।धरती का प्रकाश स्वर्ग के सोपान को भी प्रकाशित करने लगा। खिल उठा खुशियों का सहस्त्रदल कमल,बजे उठे आनंद के अनगिनत सितार। कहते हैं जिस दिन पुरुषोत्तम राम लोकपीड़क  रावण का संहार कर आयोध्या पूरी लौटे थे, उस दिन भारत के सांस्कृतिक एकता के अभिनव अभियान का अध्याय खुला था। इसे चिर स्मरणीय बनाने के लिए परस्पर नगर नगर दीप जलाकर ज्योति पर्व मनाया गया था। कहते हैं तभी से दीपावली का शुभारंभ हुआ। 

 

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यह भी कहा जाता है कि जब श्री कृष्ण ने नरकासुर जैसे आतताई का वध किया था ; तब से यह प्रकाश पर्व मनाया जाने लगा,दीपों की अवली सजाकर और तभी से इस त्यौहार का श्रीगणेश माना जाता है। कभी वामन विराट ने दैत्यराज बली की दानशीलता की परीक्षा ली थी ,उसका दर्फ दलन किया था और तभी से उसकी स्मृति में यह आलोकोत्सव मनाया जाता है। जैन धर्म के महान तीर्थंकर वर्धमान महावीर इसी दिन पृथ्वी पर अपनी ज्योति फैलाकर महाज्योति में विलीन हो गए थे, इसीलिए भी इसका महत्व है। महान महर्षि स्वामी राम तीर्थ की भी यही जन्म एवं निर्माण की तिथि है। आधुनिक भारतीय समाज के निर्माता और आर्य जगत के मंत्र द्रष्टा स्वामी दयानंद का भी यही निर्माण दिवस है। इस प्रकार दीपावली पौराणिक सांस्कृतिक धार्मिक एवं आधुनिक कथा दीपों की संवाहिका है। दीपावली जब आती है तब सांस्कृतिक त्योहारों की एक स्वर्णश्रृंखला ले आती है, एक के पीछे एक आने वाले पांच त्योहारों का सम्मेलन उपस्थित कर देती है। त्रयोदशी को धनतेरस का यमदीप जलाया जाता है ,अकाल मृत्यु से बचने के लिए यमराज का आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है। इसी दिन धनवंतरि जयंती भी मनाई जाती है। दीर्घायुष्य एवम्  अकाल परिहार के लिए इसे राष्ट्रव्यापी त्योहार का रूप देना कितना आवश्यक है ,यह हम भलीभांति समझ सकते हैं।

 

दीप' हमारी सभ्यता और संस्कृति की अलौकिकता का प्रतीक है

 

चतुर्दशी को नरक चौदस या नरक चतुर्दशी का त्योहार मनाया जाता है। नर्क तो नरकासुर की याद दिलाता ही है साथ ही नरक गंदगी को भी कहते हैं। जहां गंदगी हैं वहां रोग है ,जहां रोग है वहां मृत्यु है, यमराज है। अत:नरक अर्थात् गंदगी को दूर भगाने के लिए सफाई का अभियान जरुरी है।यही कारण है कि दीपावली के समय घर की सफाई, लिपाई पोताई, रंगाई इत्यादि की जाती है,किंतु हमारे देश में जितनी स्वच्छता अपेक्षित है,वह अभी नहीं हो पाई है।क्या ही अच्छा हो यदि हम इस दिन पूरे राष्ट्र की स्वच्छता का व्रत लें।दीपावली तो पाप और पुण्य की विजयगाथा कहती है।दीपावली के दूसरे दिन अर्थात् प्रतिपदा को गोवर्धन पूजा की जाती है,क्योंकि इसी दिन भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी छिगुनी पर गोवर्धन धारण कर ब्रजवासियों को मृत्यु त्रास से मुक्त किया था।द्वितीया के दिन भ्रातद्वितीया या भाईदूज का त्योहार मनाया जाता है,जो यमराज और उनकी बहन यमी के पावन प्रेम के साथ-साथ सभी भाई बहनों के पवित्र एवं व्यापक प्रेम की याद दिलाता है। इस प्रकार धनतेरस से भाई दूज तक यह पांच त्योहार एक के पीछे एक आते हैं और इनमें सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के तत्व भरे पड़े हैं। इन सभी त्योहारों पर कालपुरूष सार्वभौम स्वामी  यमराज का आशीर्वाद फैला हुआ है। 

 

दीपावली यद्यपि भारतीय संस्कृति की गौरव गरिमा की कहानी कहती है तथापि इसमें संकीर्णता एवं संप्रदायिकता की बू नहीं है। दीपोत्सव के त्योहार पंचक को सब धर्मों का, सब जातियों का पंचायतन राष्ट्रीय त्योहार बना सके, तो हम राष्ट्रीय एकता का नेतृत्व कर सकेंगे। वसंत पंचमी यदि ज्ञान की आराधना का पर्व है तो दीपावली अर्थ की आराधना का त्योहार, क्योंकि हमारे चार पुरुषार्थो धर्म अर्थ काम और मोक्ष में अर्थ का स्थान भी कम महत्वपूर्ण नहीं ।होली यदि रंगों का त्योहार है ,तो दीपावली प्रकाश का, मथुरा वृंदावन की होली मशहूर है, मैसूर और कोलकाता की दुर्गा पूजा विख्यात है ,तो अमृतसर और लखनऊ की दीपावली ।इस दिन दीपों मोमबत्तियों तथा बल्बों की ऐसी सजावट होती है कि लगता है 100 100 राका रजनियां  निष्प्रभ हो गई हैं। आकाश के देदीप्यमान नक्षत्र जैसे अवनी की गोद में विराज रहे हैं। लगता है चारों और ज्योति के निर्झर झड़ रहे हैं, प्रकाश के फव्वारे छूट पड़े हों। 
दीपावली के अवसर पर लाभ शुभ लिखा जाता है। दरवाजों पर दीर्घायुष्य और कल्याण के प्रतीक स्वस्तिक के चिह्न बनाए जाते हैं तथा अष्टदलकमल पर आसीन धर्म,संपत्ति और ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी की पूजा की जाती है।

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लक्ष्मी पूजा के साथ हम अपने राष्ट्र लक्ष्मी का आवाहन करते हैं,ताकि हमारा राष्ट्र श्री संपत्ति में विश्व के किसी राष्ट्र से कम न रहे।किंतु आज हमारे राष्ट्र के अर्थ तंत्र का प्रमुख कर्णधार हमारा व्यापारी वर्ग है,जो अनुचित तरीके से धन कमाता है और उसे राष्ट्र हित में लगाने के बजाय स्वार्थ लिप्सा की तिजोरी में बलि की कैद में पड़ी लक्ष्मी की तरह बंद कर छोड़ता है।छिपा हुआ यह समस्त धन समाज के लिए वैसा ही हो जाता है,जैसा हाथ या पांव में बहता हुआ रक्त रूक जाए।शरीर में रूका हुआ रक्त जिस प्रकार बुढ़ापा लाता है,पक्षाघात ग्रस्त करता है,उसी प्रकार इस भांति अवतरित धन भी राष्ट्र में  वार्धक्य ला रहा है,लकवा पैदा कर रहख है।हमें इस दिन ध्यान रखना चाहिए कि लक्ष्मी केवल एक वर्ग की वंशगता न हो जाएं,दासी न बन जाए,वरन् वह राष्ट्र के सभी लोगों की हो सकें। हम दीपावली का त्योहार बहुत सोच समझ कर मनाएं।यह हमारे लिए एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पर्व है।  एक ओर यह हमारे महान पूर्व पुरूषों की गौरवमयी विजयगाथाओं से संबद्ध है,तो दूसरी ओर समग्र संसार के लिए प्रकाश कामना का प्रतीक है।हम मानव जाति को अंधकार से प्रकाश ,असत्य से सत्यतथा मृत्यु से अमृत की ओर ले जाएं। तमसो मा ज्योर्तिगमय,असतो मा सद् गमय,मृत्योर्मामृतंगमय हमारी इसी मंगल कामना की स्मारिका है दीपावली आधुनिक हिंदी कविता के लोक प्रिय गीतकार गोपाल दास नीरज की दीपावली पर लिखी कविता की पंक्तियां सहसा याद आ रही हैं जिसमें उन्होंने धरा को उठाने और गगन को झुकाने का अनुरोध किया है तभी समाज में व्याप्त विषमता मिट सकेगी और समाज एवम् राष्ट्र में एकता, नेकता और समता आ सकेगी:


दीये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ,गगन को झुकाओ।
बहुत बार आई गई यह दिवाली
मगर तम जहाँ था,वहीं पर खड़ा है
बहुत बार लौ जल-बुझी पर अभी तक
कफन रात का हर चमन पर पड़ा है
न फिर सूर्य रूठे,न फिर स्वप्न टूटे
उषा को जगाओ,निशा को सुलाओ।
दीये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ,गगन को झुकाओ।
सृजन शांति के वास्ते है जरूरी
कि हर द्वार पर रोशनी गीत गाए,
तभी मुक्ति का यज्ञ यह पूर्ण होगा
कि जब प्यार तलवार से जीत जाए
घृणा बढ़ रही,अमा चढ़ रही है
मनुज को जिलाओ,दनुज को मिटाओ।


हम मानव समाज को समृद्धि के शिखर पर ले जाएं,हम सभी सुविधाओं के संभव द्वार खोलने मे समर्थ हो सकें: इसकी साक्षी है दीपावली।दीपो का पर्व हमारे बाहर के अंधकार को भगाने का ही नही वरन्  अंतस के अंधकार को भी दूर  करने के संकल्प का दिवस है। एक दीप ऐसा भी बारें अंधकार भागे अंतस का। यह केवल एक राष्ट्र को मुक्त रखने की सौगंध रजनी नहीं, वरन समग्र संसार के  राष्ट्रो को मुक्त रखने की मधुरात्रि है सुखरात्रि है
आज जाओ मुक्ति के प्रज्वलित दीपक जलाएं।
और मानव दास्तां की श्रृंखलाएं टूट जाएं।

 

(लेखक हिन्दी विभाग, रांची विश्वविद्यालय के अध्यक्ष रह चुके हैं। )

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।