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विवेक का स्‍वामी-3: वेदांत और सूफी दर्शन को समाहित नए सांस्कृतिक आचरण की पैरवी

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कनक तिवारी, रायपुर:

अमेरिका में विवेकानन्द मनोवैज्ञानिक बने आदमी की आदिम प्रवृत्तियों जैसे संदेह, अपराधबोध,  ईर्ष्या और शर्म वगैरह के साथ किसी इतर स्वीकार की पृष्ठभूमि में नया तर्क उछाल देते हैं। उन्होंने सभी धर्मों में आत्मनिर्भर तत्वों या मजहबों के संदेशों का झाालमेल कर कोई समान नया या अन्तर्राष्ट्रीय मजहब ईजाद कर लेने के पक्ष में जिरह नहीं की। धर्म तो आत्मा का गर्भगृह होने से उसे केवल जबानी जुगाली, आपसी सहकार और समझ तथा हालातों और तजुर्बों के आधार पर ही संगठित नहीं किया जा सकता। कई प्रथाएं, रूढ़ियां, तीज त्यौहार, महोत्सव आंतरिकता, संगीत, काव्य, धार्मिक अनुष्ठान, स्थापत्य और मूर्ति कलाएं वगैरह धर्म का सांस्कृतिक संसार रचते हैं। धर्मों की तथाकथित एकता या ‘एकात्म मानववाद‘ के नाम पर पूरा मानसिक संसार यथार्थ में कोई मजबूर विकल्प नहीं चुन सकता। 

 

 

विवेकानन्द ने किसी एक धर्म के महत्व को तरजीह देने या उसे ही विकल्पहीन घोषित करने और अगुआ बनाने का अधिकार देना तय करने को लेकर अपना परहेज़ कुछ उदात्त और साहसिक उद्बोधन के जरिए पूरी दुनिया की समझ के हवाले किया। उन्होंने जानबूझकर हिन्दू धर्म के किसी खास सिद्धांत या फतवे के पक्ष में पैरवी नहीं की। उनके तेवर में एक साथ आग्रह, जिरह और संबोधन की मिली जुली कशिश थी। धर्मसभा में विवेकानन्द ने राजनीतिक दृष्टि से पराजित बताई जाती भारतीय कौम के प्रवक्ता - प्रतीक बनकर सम्बोधन किया। वह उनके देश और उनकी कौम का भी संदेश होकर भी धर्मसम्मेलन के आयोजन में स्थायी दुनियावी अनुगूंज की तरह इतिहास का अहसास हो गया। धर्मान्ध, कट्टर, साम्प्रदायिक, हठधर्मी तथा कुन्ददिमाग बुद्धिजीवियों का जमावड़ा विवेकानन्द को महज महान ’हिन्दू संत’ सिद्ध करने में जुटा रहता है। ताजा हवा के झोंकों की तरह धरती पर आए विवेकानन्द हिन्दुत्व की सियासी नसीहतों की भिंची मुट्ठी में कैद नहीं किए जा सकते। संविधान में एक सरफुटौव्वल शब्द सरकारों, विचारधाराओं और धार्मिक जद्दोजहद को उलट पलट कर  रहा है।  अंगरेजी का ‘सेक्युलर‘ शब्द धर्मनिरपेक्ष बल्कि पंथनिरपेक्ष होकर कायम है। उसकी पैदाइश और अक्स को समझे बिना उसे नकली धर्मनिरपेक्षता कहने वाली भेड़चाल ने संसद और विधानसभाओं को रेवड़ बनाकर सत्ता हासिल करने का ठनगन सीख लिया है। 

 

विवेकानन्द ने कहा था कि धरती पर अगर कोई देश है, जो खुद अपने लिए जीने के बदले दुनिया के लिए जीने को तरजीह देता है, तो वह केवल भारत है। उन्होंने यह भी कहा था कि भारत में दूसरा सबसे बड़ा धर्म इस्लाम भाईचारे का जिस तरह संदेश देता है, वैसा तो हिन्दू धर्म में भी नहीं है। उन्होंने वेदांत और सूफी दर्शन को समाहित कर एक नए किस्म के सांस्कृतिक आचरण की पैरवी भी की। अपने दोस्त मोहम्मद सरफराज हुसैन को 1897 में लिखे पत्र में वेदांत के मन और इस्लाम के शरीर को एक होने का उनका आह्वान मूल भारतीय भावना की बहुलवादी संस्कृति के ढांचे में ढालना जैसा रहा है। उन्होंने मुगल सम्राट अकबर को भी व्यवहारतः हिन्दू बताया था। विवेकानन्द की आत्मा का लचीलापन यह भी है कि वे अपने अस्तित्व में विश्व नागरिक थे। किसी अन्य देश में पैदा होते वे तब भी लेकिन यही कहते कि धरती पर कोई देश केवल अपने आदर्शों की वजह से जीवित है, और उसके लिए कुर्बानियां ही हैं, तो भारत ही है।  देश की दो बड़ी धार्मिक पहचान के मजहब एक ही सांस्कृतिक आत्मा की शक्लें हैं। कभी कभी लगता है विवेकानन्द ने भगवा वस्त्र नहीं पहने होते, तो उनकी शख्सियत के साथ कठमुल्ला नस्ल की सांप्रदायिक छेड़छाड़ नहीं होती। सिद्धान्तरहित कई कूढ़मगज भगवा वस्त्रधारियों ने ऐसा बहुत कुछ किया है और कर रहे हैं कि उन्हें विवेकानन्द के विचारों की अदालत में खड़ा किया जाना चाहिए। 

 

 

सबसे पहले विवेकानन्द ने धार्मिक पंथसापेक्षता को सेक्युलरिज़्म का अक्स बताया। उनके लिए हिन्दुस्तान में कोई भी धर्म अप्रासंगिक था ही नहीं। हर धर्म स्वाभाविक उत्पत्ति और आचरण है। उनके अनुसार भारत को हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, पारसी, बौद्ध, जैन किसी की एकल जागीर नहीं समझा जा सकता। बंगाल में काली और दुर्गा की मूर्तियां तो मुसलमान कारीगर ही बेहतर बनाते हैं। राम और कृष्ण जैसे लोक चरित्रों को भारतीय संस्कृति की सिम्फनी बनाना कबीर, रहीम, जायसी और रसखान जैसे चार बड़े मुसलमान कवियों ने दो बड़े हिन्दू कवियों सूरदास और तुलसीदास के साथ मिलकर किया है। सभी धर्मों में श्रीरामकृष्णदेव के बार बार जिस्म और पहचान में अंतरित होकर दीक्षा प्राप्त करने जैसे अनुभवों को ध्यान में रखकर विवेकानन्द ने कहा था ‘हम भारतीय केवल सहनशील ही नहीं हैं। हम सभी धर्मों से खुद को एकाकार कर देते हैं। पारसियों की अग्नि को पूजते हैं। यहूदियों के सिनेगाॅग में प्रार्थना करते हैं। मनुष्य की आत्मा की एकता के लिए तिल तिलकर अपना शरीर सुखाने वाले महात्मा बुद्ध को नमन करते हैं। हम भगवान महावीर के रास्ते के पथिक हैं। ईसा की सलीब के सम्मुुख झुकते हैं। हिन्दू देवी देवताओं के विश्वास में बहते हैं।‘ स्वामी जी होते तो आज देश एक नई आध्यात्मिक सर्वदेशीय, सर्वभाषिक संस्कृति की बुनियादी पाठशाला बनना चाहता। 

 

( जारी )

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(स्‍वामी विवेकानंद के अहम जानकार गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।