अशोक पांडेय, दिल्ली:
आपने छोटे बच्चों और किशोरों को वीडियो गेम खेलते देखा होगा। पिछले दस-पंद्रह सालों में ये गेम बहुत हिंसक हुए हैं। प्लास्टिक से बना भावहीन मुखौटा पहने एक नायक बंदूक लेकर दनादन लोगों को मारता हुआ आगे बढ़ता है। गोली की एक धांय होती है, हल्की सी इलेक्ट्रोनिक चीख के साथ खून का छोटा सा धब्बा स्क्रीन पर उभरता है और एक चलता फिरता पात्र गिरी हुई लाश में बदल जाता है। लगातार चलती रहने वाली इस हिंसा का अन्त या तो कम्प्यूटर की जीत और नायक के मारे जाने में होता है या खेल का एक लेवल पूरा होने में। अगला लेवल पिछले वाले से अधिक मुश्किल होता है, उसमें पहले से ज्यादा हिंसा होती है और ज्यादा लोग मारे जाने होते हैं। गोली चलाने और लोगों की हत्या करने के इस खेल से बच्चे ज़रा भी बोर नहीं होते। उन्हें घंटों ऐसे खेलों में मुब्तिला देखना आज के घरेलू जीवन की भयानक सच्चाई बन चुका है। फ़र्ज़ कीजिए ऐसे ही किसी वीडियो गेम में मारे जाने वाले काल्पनिक चरित्रों को वास्तविक लोगों में बदल दिया जाय. फ़र्ज़ कीजिये उनमें से हर किसी के पास आपको सुनाने के लिए दिल दहला देने वाली कोई कथा भी हो। नेटफ्लिक्स पर सितम्बर के महीने में रिलीज हुई दक्षिण कोरिया में बनी ताज़ा वेब सीरीज ‘स्क्विड गेम’ ऐसा ही करती है। इस सीरीज ने तीन हफ्ते के भीतर व्यूअरशिप के सारे रेकॉर्ड तोड़ डाले हैं. एक अनुमान के मुताबिक़ शुरू के तीन हफ़्तों में ही करीब ग्यारह करोड़ लोग इसे देखना शुरू कर चुके हैं। यह संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।
जीवन में लगातार बेहद मुश्किल परिस्थितियों से गुज़र रहे और उधार के बोझ तले दबे चार सौ छप्पन लोगों को बड़ी रकम का लालच देकर एक गुप्त स्थान पर इकठ्ठा किया जाता है जहाँ उन्होंने एक-एक करके बच्चों के छः गेम खेलने हैं। इन खेलों को सफलतापूर्वक पूरा कर लेने पर उन्हें एक अकल्पनीय धनराशि मिलनी तय है. उन्हें एक सी पोशाकें पहना कर एक विशाल डोरमेट्री में रखा जाता है जहाँ उन पर नियंत्रण करने वाले, उन्हें खाना परोसने वाले और उन्हें आदेश देने वाले हथियारबंद लोग वीडियो गेम्स के पात्रों जैसे भावहीन मुखौटे पहने हैं। धीरे-धीरे आप इन चार सौ छप्पन लोगों में से कुछ के जीवन के बारे में जानना शुरू करते हैं. वे सारे आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग से आए हैं और अपने जीवन को ढर्रे पर वापस लौटाने के लिए उन्हें काफी सारे पैसों की जरूरत है. इनमें से ज्यादातर पात्र मूलतः भले लोग हैं लेकिन लगातार बदहाली ने उनके भीतर के मनुष्य को बुरी तरह पराजित कर दिया है।
मांस की दुकान चलाने वाली एक एक बूढ़ी माँ है जिसे इस बात की खुशफहमी है कि बचपन से होनहार रहा उसका बेटा अमेरिका में नौकरी कर रहा है जहाँ से वह बहुत से पैसे कमा कर लाने वाला है। असलियत यह है कि समय पर उधार न चुका सका बेटा छिप कर सियोल में ही रह रहा है. माँ को पता तक नहीं उसके बेटे ने उसकी दुकान तक गिरवी रख छोड़ी है। पॉकेटमारी करने वाली एक किशोरी है, माँ-बाप के अलग हो जाने के कारण सात-आठ साल का जिसका छोटा भाई अनाथालय में रहने को मजबूर है. पाकिस्तान से आया एक आप्रवासी है जिसे उसके फैक्ट्री मालिक ने छह महीने से तनख्वाह नहीं दी है. कहानी का मुख्य पात्र सांग गी-हुन एक अधेड़ होता तलाकशुदा जुआरी है। एक तरफ तो अपनी बूढ़ी माँ के साथ रहने वाला गी-हुन माँ के बचाए पैसों की चोरी करने में भी नहीं हिचकता, दूसरी तरफ उसका दिल माँ और सौतेले बाप के साथ रह रही अपनी बेटी के लिए धड़कता है जिसे कानूनी तौर पर अपने पास रख सकने के लिए उसे बहुत सारे पैसों की जरूरत है. उधार का बोझ उस पर भी है।
ये सारे पात्र मूलतः भले लोग हैं जिनके भलेपन की बहुत छोटी-छोटी झलकियां भी हमें दिखाई जाती हैं। खुद पाई-पाई का मोहताज एक आदमी उस गरीब पाकिस्तानी को बस के टिकट के लिए पैसे देने में ज़रा भी नहीं हिचकता। घर पर बनाने के लिए मछली ख़रीद कर ला रहा सांग गी-हुन एक आवारा बिल्ली को देखकर पसीज जाता है और बड़े प्यार से उसे मछली का एक टुकड़ा खाने को देता है। इन भले लेकिन निर्धन लोगों को जब पहला खेल खेलने को मैदान में लाया जाता है कोई नहीं जानता उन पर क्या बीतने वाली है। लाउडस्पीकर पर नियम बताये जाते हैं। फिर चेतावनी दी जाती है कि एक भी चूक करने वाले को खेल से बाहर कर दिया जाएगा। ठीक जैसा बच्चों के वीडियो गेम्स का नियम होता है। फिर किसी सदमे की तरह हमें मालूम चलता है कि खेल से बाहर कर दिए जाने का मतलब था जीवन से बाहर कर दिया जाना। ज़रा सी गलती करने वालों को तुरंत मशीनगनों से भून दिया जाता हैै। इस दहला देने वाले इस पहले रक्तरंजित खेल की समाप्ति पर हमें बताया जाता है कि आधे से ज्यादा खिलाड़ी खेल से हटाए जा चुके हैं यानी मार डाले गए हैं। खेल के संचालकों के हाथों इस तरह मारे जाने को तैयार बैठे इन पात्रों के बीच आपसी प्रतिद्वंद्विता भी शुरू हो जाती है। इस प्रतिद्वंद्विता का अंत भी कुछ हत्याओं में होता है।
स्क्रीन पर चल रहे भयानक मनोवैज्ञानिक हॉरर की बुनियाद पर खड़े किये गए इस खेल को देखने के बाद दर्शक अपने आप को बहुत बुरी तरह से भीतर तक उद्वेलित महसूस करता है. आप खौफ और हैरत से भर जाते हैं। इसी मनोविज्ञान में इस सीरीज की सफलता का राज छिपा है। हिंसा और उसकी अतिरंजना को देख कर आपको उबकाई तो आती है लेकिन आप उसकी तरफ देखने के आकर्षण से बच भी नहीं पाते. यह मूलभूत मानवीय व्यवहार है।जैसे-जैसे इस खूनी खेल के संचालकों और उसे देख कर मन बहला रहे दर्शकों के बारे में पता चलना शुरू होता है, समाज के तमाम विद्रूपों और विसंगतियों का चेहरा उघड़ कर सामने आता है। पैसा इस घृणित सामाजिक असमानता के पीछे काम कर रही सबसे बड़ी शक्ति है जिसके लालच में लाकर किसी को भी फंसाया जा सकता है। ‘स्क्विड गेम’ मानव प्रवृत्ति के इस आयाम पर किया गया एक शोध है जो यह दिखाता है कि बुरी तरह फंसे हुए मनुष्यों को क्या-क्या करने पर मजबूर किया जा सकता है. ख़ास तौर पर जब दांव पर बड़ी रकम लगी हो।
सीरीज के निर्देशक ह्वांग डाँग-ह्युक ने इस फैंटेसी के लिए जिस तरह के बेहद आकर्षक, रंगीन और अतियथार्थवादी सेट्स का इस्तेमाल किया है, उनसे वे कहानी में एक ऐसा सौंदर्यशास्त्र गढ़ते हैं जिसे स्क्रीन पर इस से पहले नहीं देखा गया था। विषयवस्तु के लिहाज से यह सीरीज वर्ष 2013 की अमेरिकी फिल्म-सीरीज ‘द हंगर गेम्स’ की याद दिलाती तो है लेकिन ‘स्क्विड गेम’ के निर्देशक के सरोकार अधिक वास्तविक और मानवीय लगते हैं. हिंसा और रक्तपात के अतिरेक के बावजूद पूरी सीरीज लगातार इन प्रवृत्तियों की कुरूपता को रेखांकित करती चलती है। दुनिया के सबसे अधिक बिकने वाले लेखकों में गिने जाने वाले जापानी उपन्यासकार हारूकी मुराकामी ने आज से करीब 15 साल पहले आधुनिक समय में कहानी सुनाने की कला को लेकर एक इंटरव्यू में कहा था कि बाज़ार की मांग को देखते हुए कहानी लिखने और सुनने वालों ने अकल्पनीय प्रयोग करने होंगे और फिल्म, संगीत, खेल और वीडियो गेम्स से तकनीकें चुरानी होंगी. मुराकामी ने आगे कहा कि आज के समय में वीडियो गेम्स फिक्शन के जितना क़रीब हैं, उतना कुछ और नहीं. मुझे नहीं पता ‘स्क्विड गेम’ के निर्देशक ने मुराकामी का वह इंटरव्यू पढ़ा या नहीं लेकिन उनकी दी हुई सलाह पर उन्होंने अमल जरूर किया है. उन्होंने बताया है कि इस सीरीज का विचार उनके मन में एक कॉमिक को पढ़ने के बाद आया था जिसके पात्र एक ऐसा ही खतरनाक खेल खेलते थे।
सीरीज का निर्माण ऐसी कुशलता से किया गया है कि एक एपीसोड देखने के बाद अगला देखने के लालच से बच पाना असंभव है. यह जरूर है कि हर एपीसोड में ढेर सारी हिंसा, मनोवैज्ञानिक भय और रक्तपात है लेकिन उसके समानांतर मानव जीवन का नाटक चलता रहता है जिसके भीतर हर चरित्र एक बेहद जटिल अलबत्ता त्रासद तरीक़े से विकसित भी होता जाता है। कहना न होगा अधिकतर पात्रों ने बेहतरीन अभिनय किया है. कहानी इस कदर सधी हुई रफ़्तार से आगे बढ़ती है कि उसमें खोट निकाल पाना मुश्किल लगता है। अधिक समय नहीं बीता जब दक्षिण कोरिया के एक और निर्देशक बोंग जून-हो की फिल्म ‘पैरासाइट’ ने चार ऑस्कर जीत कर सनसनी फैला दी थी और दुनिया के सामने कहानी कहने का एक अनूठा तरीका पेश किया था. विषयवस्तु, फिल्मांकन, निर्देशन और पटकथा के स्तरों पर ‘स्क्विड गेम’ किसी भी मामले में उससे उन्नीस नहीं ठहरती।
(यह लेख कुछ दिन पहले नवभारत गोल्ड के लिए लिखा गया था)
(उत्तरांचल के रहने वाले लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। संप्रति स्वतंत्र लेखन।)
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