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बिहार से लेकर झारखंड की सभी सरकारों ने भूमि सुधार कानून बनाए जरूर पर, आदिवासी जमीन की लूट को कभी नहीं रोक पाए

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झारखंड में आदिवासी जमीनों के इतिहास को जाननेवालों की संख्या बहुत कम है। बहुत लोगों को तो यह भी नहीं पता कि भुईंहरी जमीन पर सरकार का अधिकार ही नहीं है। भुईंहरी जमीन के बीसियों मालिक तक को नहीं पता कि उनकी जमीन कहां हैं और कितनी है और किस अवस्था में है?  झारखंड के काश्तकारी कानूनों के जानकार और विशेष कर आदिवासी समुदाय की पारंपरिक मिल्कियत भुईंहरी एवं मुंडारी खुंटकट्टी जमीनों के इतिहास की विश्वसनीय जानकारी रखनेवाले रांची के वरिष्ठ अधिवक्ता रश्मि कात्यायन से हुई बातचीत पर आधारित कुछ प्रमुख अंश हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। 'द फॉलोअप'  के आज के किस्त में हम उनसे जानेंगे भुईंहरी जमीन का इतिहास और इसकी वास्तविक सच्चाई। 

नारायण विश्वकर्मा


रांची के 2482 गांवों में भुईंहरी जमीन आबाद थी
झारखंड में अखंड बिहार के समय से ही आदिवासी समुदाय के लिए  कई भूमि सुधार कानून बनाए गए। लेकिन इतिहास गवाह है कि झारखंड में सबसे अधिक लूट आदिवासी जमीनों की ही हुई है। यहां कई प्रकार की भूमि के नेचर हैं। उन्हीं से एक है भुईंहरी भूमि। ऐसी जमीन पुराने रांची जिले में शामिल लोहरदगा, गुमला, सिमडेगा और खूंटी है। 2482 गांवों में भुईंहरी जमीन कभी आबाद थी।  अब सब कुछ बदल चुका है। गांव-ग्रामीण और जमीन का स्वरूप पूरी तरह से तहस-नहस हो गया है। रांची के मोरहाबादी, बरियातू, कोकर, लालपुर, कांके, डोरंडा, हिनू, सिरोम, चुटिया, नामकुम जैसे क्षेत्रों में राजधानी बनने के बाद से करीब 70 प्रतिशत भुईंहरी जमीन विलुप्त हो चुकी है। जानकार बताते हैं कि रांची जिले के विभिन्न अंचलों के पुराने कर्मचारी हों या अंचलाधिकारी या फिर राजस्व विभाग के छोटे-बड़े अधिकारियों तक को  नहीं पता कि भुईंहरी जमीन की परिभाषा क्या है? 

80 फीसदी जमीन का कहीं अता-पता नहीं है : रश्मि कात्यायन
रांची के वरिष्ठ अधिवक्ता रश्मि कात्यायन बताते हैं कि करीब 90 प्रतिशत जमीन उरांव समुदाय के और 10 भुईंहरी जमीन मुंडा समुदाय की थीं। रांची के शहरी क्षेत्र में करीब 80 प्रतिशत जमीन दोनों समुदायों के हाथ से निकल चुकी है। भुईंहरी जमीन के अधिकतर खतियानों के नामोनिशान तक मिटा दिए गए हैं। उन्होंने बताया कि पुराने रांची जिले के 2482 गांवों में भुईंहरी जमीन है। यह जमीन मुंडारी खुंटकट्टी का ही एक रूप है। यह जमीन बिहार भूमि सुधार अधिनियम के 1950 के दायरे में नहीं आता है।
 
भुईंहरी टेन्योर की अनुमति नहीं 
यहां बता दें कि भुईंहरी परिवारों ने ही पहले यहां जंगल को साफ कर गांव बसाया। यही समूह उस गांव की सभी भुईंहरी जमीन के सामूहिक मालिक कहलाए। इनमें भूतखेत यानी ग्राम देवता को समर्पित भूमि दो प्रकार के कहलाए- भुईंहरी भूतखेत, जो भुईंहरी भूतखेत की उपज का उपयोग अपने पारिवारिक आत्माओं की पूजा में करते हैं। इस बात का जिक्र रश्मि कात्यायन की किताब 'झारखंड लैंड मैनुअल' में उल्लेखित हैं। उन्होंने बताया कि झारखंड की आदिम भूमि व्यवस्था (खुंटकट्टी) का पुरातन अवशेष अब पुरानी रांची जिला तक ही सीमित रह गया है। 1869-1880 के दौरान विशेष कमिश्नर रखाल दास हलधर द्वारा छोटानागपुर भूधृति अधिनियम के अंतर्गत इसका अधिकार अभिलेख पहली बार बना। 1880 के बाद कोई भी भुईंहरी टेन्योर (भूधृति) की अनुमति नहीं है। यानी 140 साल पूर्व से भुईंहरी जमीन का मालिक मुंडारी समाज है।

भूतखेत भूमि की मिल्कियत
उन्होंने बताया कि भूत खेत, जिसकी खेती सामान्यत: गांववालों की सहायता से की जाती थी, इसकी अगुवाई गांव के पाहन करते थे। इस प्रकार के खेत की उपज का प्रयोग गांव-देवताओं की पूजा में किया जाता है। सभी ग्रामीण मिलकर 3 वर्षों के लिए अपने पाहन का चुनाव करते हैं और भूतखेत भूमि की मिल्कियत परिवर्तित होती रहती है। हालांकि यह परंपरा सभी जगहों पर अन्य परंपराओं की तरह समान रूप से लागू नहीं है। खासकर रांची जिले के गांव में पाहन का पद वंशानुगत होता है।

19वीं सदी में गैरआदिवासियों की भारी संख्या में इजाफा हुआ
उन्होंने बताया कि 19वीं सदी में छोटानागपुर में बसनेवालों की संख्या बढ़ने लगी थी। दरअसल, गैर आदिवासियों की संख्या 1871 में मात्र 96,000 थी, लेकिन 1931 के बीच से बढ़कर यह संख्र्या 3,07000 हो गई। परिणामस्वरूप आदिवासियों के चाय बागानों और दूसरी जगह पर चले जाने की घटनाएं जगजाहिर है। अप्रैल 19 अप्रैल 1860 में राजस्व अधिकारी लाल लोकी नाथ शाही ने चुटिया नागपुर डिवीजन के अपने इलाके की जमीनों का हिसाब रखने के लिए रजिस्टर रखने की पहली कोशिश की। उनके इलाके में लोधमा, खोखरा, उदयपुर, सोनपुर, कोरांबे और बसिया परगना के 429 गांव आते थे।

1880 में रांची के 2482 गांवों का ही सर्वे हो पाया
अधिवक्ता का कहना है कि कालांतर में सहायक आयुक्त ने गांव में बड़ी जोत के मालिकों उर्फ भुईंहरी की सूची बनायी। दुर्भाग्य से राजस्व अधिकारी लाल लोकी नाथ शाही की 13 अगस्त 1862 में मौत हो गई और सर्वेक्षण का काम ठप पड़ गया। उनके काल में 26 जुलाई 1869 से ही सर्वेक्षण और बंदोबस्त का काम शुरू हुआ था। 31 मार्च 1880 तक उन्होंने 2482 गांवों का काम पूरा कर लिया था। इसे रखाल सर्वे या भुईंहरी सर्वे या भुईंहरी सर्वे कहा जाता है।

1879 में मजबूत राजस्व आयोग की स्थापना हुई
 उऩ्होंने कहा कि 1868 में गवर्नर जनरल लॉर्ड लॉरेंस ने बिहार में किसानों की बदहाली के बारे में लिखा कि सरकार के लिए अभी या आगे चलकर इस स्थिति के बारे में दखल देना और रैयतों को संरक्षण देनेवाला कानून बनाना ही होगा। 1874- 75 के अकाल के बाद बिहार के खेतिहर वर्ग की स्थिति पर विचार करने के लिए बनी एक अन्य कमेटी ने भी ऐसे ही सुझाव दिए थे और इसी के अनुरूप 1879 में एक मजबूत राजस्व आयोग की स्थापना हुई, जिसे जमींदारों और रैयतों से संबंधित कायदे-कानूनों का सार तैयार और एवं नए विधेयक की रूपरेखा तैयार करने का निर्देश दिया गया था। 2 महीने बाद ही अप्रैल में सरकार के 1859 के बदनाम भू राजस्व कानून (अधिनियम-9)  को इस इलाके में भी लागू कर दिया गया।

गैरों में कहां दम था, हमें तो अपनों ने लूटा
बता दें कि भुईंहरी जमीन के इतिहास का यह संक्षिप्त रूप है। दरअसल, दक्षिण पठार के मैदानी इलाकों में उपनिवेशवादी पूंजीपतियों द्वारा आदिवासी कृषि व्यवस्था और सामाजिक ढांचे पर नियंत्रण शुरू हो गया था। 1822 में मैदानी इलाकों में ठेकेदार-जमींदारों का रोबदाब बढ़ने लगा था। लेकिन आदिवासी जमीनों पर पांव पसारने में 1869 के बाद ही गैरआदिवासियों को कामयावी मिलने लगी, जो आज के दौर में भी जारी है। बिहार से लेकर झारखंड की सभी सरकारों ने भूमि सुधार कानून जरूर बनाए लेकिन, आदिवासी जमीन की लूट को कभी नहीं रोक पाए। एक बड़े आदिवासी नेता ने कहा कि गैरों में कहां दम था, हमें तो अपनों ने लूटा। यही कटू सत्य है।