आज रेडियो दिवस पर ख़ास
सैयद शहरोज़ क़मर, रांची:
नेतरहाट के कोटया हाट में अचानक मांदर के साथ स्वर गूंजता है, दाहा-दाहा तुर, धनतिना धन तुर...नोआ हेके असुर अखड़ा रेडियो..ऐनेगाबु, डेगाबु सिरिंग आबु...(आआे गाओ, नाचो, बोला ये है असुर अखड़ा रेडियो)। काले रंग के साउंड बॉक्स से निकलती आवाज की ओर भीड़ इकट्ठा हो जाती है। सभी जोर से तालियां बजाने लगते हैं। बात ही कुछ ऐसी है। विलुप्त हो रहे असुर जनजाति के युवाओं ने अपनी असुर भाषा के संरक्षण और प्रचार-प्रसार के लिए पहला असुर मोबाइल रेडियो का आगाज रांची से 200 किमी दूर पहाड़ और जंगलों से घिरे गांवों में कर दिया है। संसाधन के नाम पर उनके पास कंप्यूटर, मिक्सर, माइक और साउंड सिस्टम है। सुविधाओं से लैसे एक स्टूडियो तक नहीं है। जोभीपाट के रिटायर्ड प्रिंसिपल चैत असुर (टोप्पो), वंदना टेटे, घाघरा के प्रो. महेश अगुस्टीन कुजूर की अगुआई में कवयित्री सुषमा असुर, रोशनी असुर, अजय असुर, विवेकानंद असुर, मिलेन असुर, मनिता असुर और सुखमनिया असुर आदि की टीम ने जंगल के बीच एक बेंच बिछाई और चारों ओर बैठकर गाना और बोलना शुरू कर दिया। इस तरह उनका स्टूडियो बन गया। पहले असुर रेडियो की परिकल्पना से शुरुआत से जुड़ी रही वंदना टेटे बताती हैं कि इस रेडियो का मकसद नई पीढ़ी को उनकी भाषा से जोड़ना है। सरकारी रेडियो के बाद कामर्शियल और कम्युनिटी रेडियो के लाइसेंस के लिए लंबी प्रक्रिया औा प्रसारण के लिए महंगे संसाधन की जरूरत पड़ती है। लेकिन आदिम जनजाति के पास यह सब सपना ही है। लेकिन इनके पास परिश्रम और जज्बा भरपूर है। जिसकी बदौलत इस साप्ताहिक रेडियो का आरंभ कर दिया गया है। व्यवस्था के नाम पर है सिर्फ पोर्टेबल पब्लिक सिस्टम है।
कैसे टीम करती है काम
पहले रिकॉर्डिंग की जाती है। इसमें गीत, इतिहास और समसायिक समाचार होता है। फिर टीम नेतरहाट के आसपास के 8 बाजार-हाट पहुंचती है। ऐसा सप्ताह में एक बार ही होगा। इसकी शुरुआत गत जनवरी में कोटया हाट से हुईं। हर सप्ताह अलग-अलग हाट। हाट पहुंचकर रिकॉर्ड सामग्री को साउंड सिस्टम के माध्यम से असुर ग्रामीणों के बीच इसे सुनाया जाता हे।
विलुप्त होने के कगार पर है मुंडा भाषा परिवार की असुर भाषा
संसार को लोहा से परिचित कराने वाली असुर जनजाति की आबादी झारखंड में करीब 10 हजार है। ऐश्ट्रो एशियाटिक मुंडा परिवार की इनकी असुर भाषा भारत की 196 लुप्त हाे रही भाषा में शामिल हैं। यूनेस्को की वर्ल्ड एटलस ऑफ एंडेंजर्ड लैंग्वेजेज के अनुसार असुर भाषा डेफिनेटली एंडेंजर्ड कैटेगरी में है। इसका अर्थ यह हुआ कि असुरों की वर्तमान नई पीढ़ी अपनी भाषा न बोल पाती है और न समझ पाती है। जिससे असुर भाषा के विलुप्त होने का खतरा बढ़ गया है। झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा’ ने पहले चरण में नेतरहाट के दो गांव जोभीपाट और सखुआपानी के असुर समुदाय के सहयोग से इस ‘असुर अखड़ा मोबाइल रेडियो’ की शुरुआत की है।