कनक तिवारी, रायपुर:
पिछले छः दशक से सशस्त्र बल (विशेष शक्ति) (सबविश) अधिनियम, 1958 का दंश भोगते अपनी देशभक्ति के बावजूद कुछ सैनिकों की नीचता के भी कारण जनता पर अत्याचार होते रहे हैं। सबविश अधिनियम पर संविधान के छाते के कारण सेना पर कानूनी मौसम की आंच नहीं आ सकती। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन को कुचलने के लिए वाइसराॅय लाॅड लिनलिथगो ने इस खतरनाक कानून को ब्रिटिश शैतानी कुटिलता से रचा था। ब्रिटिश सेना ने असाधारण जुल्म ढाए और ‘भारत छोड़ो‘, आन्दोलन भी अधूरी प्रतिक्रिया में अर्धहिंसक आन्दोलन बनकर इतिहास में गांधी-दर्शन की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान खड़ा कर गया। 1942 के जनआन्दोलन के मुखिया नेहरू थे- जयप्रकाश, लोहिया, अरुणा आसफ अली आदि युवा नेतृत्व के साथ। लेकिन सत्तासीन होने का दुखद विरोधाभास कि लिनलिथगो की जूठन संसद में परोसी गई। गोरे हुक्मरानों का काला कानून सबविश अधिनियम का 158 में पुनर्जन्म हुआ। ए.जेड. फिजो की अगुआई में नगा विद्रोह से जूझने असम अशांत क्षेत्र अधिनियम 1955 पहले ही रचा गया था।
पूर्वोत्तर राज्यों को नगा विद्रोहियों की गतिविधियों के आरोप के कारण सबरिश अधिनियम के आक्टोपस ने जकड़ लिया है। अनशन, नग्नदेह प्रदर्शन, आत्महत्या, सामूहिक धरना, हड़ताल, बन्द जैसे हथियार मांजे धोये जाते रहे हैं। सेना के समर्थन में कानून, संविधान, सरकार और न्यायपालिका हैं। जनता के साथ इतिहास, भूगोल, संस्कृति, सभ्य समाज, साहित्य और पत्रकारिता हैं। सरकारी संस्थाओें के मुकाबिले जनविचार है। व्यवस्था को अराजकता (राज्यतंत्र के विरोध के अर्थ में) ने चुनौती मिलती है, हिंसा को अहिंसा से और लोक नियंत्रण को जन विद्रोह से।
भारत के आजा़द होते ही मद्रास अशांति की रोकथाम अधिनियम, 1948 ने कथित आतंकवाद विरोधी अधिनियमों के नवयुग का उद्घाटन किया। इस काले कानून का छिपा हुआ मकसद था तेलंगाना में हो रहे किसान आंदोलन को फौज और पुलिस के दम पर कुचल दिया जाए। उसके बाद कई राज्यों ने इसी तरह के काले कानून बना दिए जिससे जनता में शासन के प्रति खौफ पैदा हो। इनमें राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम 1950, असम अशांत क्षेत्र अधिनियम, 1955, सशस्त्र बल (विशेष उपबंध) अधिनियम 1958, विधि विरुद्ध क्रियाकलाप रोकथाम अधिनियम, 1967, (उआपा) आंतरिक सुरक्षा अधिनियम 1971, (मिसा) (निरसित) राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980, पंजाब अशांत क्षेत्र अधिनियम, 1983, (निरसित) सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (1983, 85 और 1991) आतंकवादी एवं विध्वंसक गतिविधि अधिनियम, (टाडा) (1985, 89, 91) (निरसित) आतंकवाद रोकथाम अधिनियम, 2002 (पोटा) (निरसित) वगैरह शामिल हैं। पोटा का अनुभव यह भी रहा है कि गुजरात में उसे केवल मुसलमानों के खिलाफ इस्तेमाल किया गया। एक भी हिन्दू की पोटा में गिरफ्तारी नहीं हुई।
असम राइफल्स पर एक संगीन आरोप और भी है। वह बर्तानवी नीति-‘फूट डालो और राज करो‘-पर भरोसा करता है। नगाओं को इस बात के लिए उकसाता और धमकाया गया कि सेना के पक्ष में खड़े हों। क्योंकि सेना रक्षक है, भक्षक या तक्षक नहीं। वर्षों में भी असम राइफल्स ने लेकिन कथित विद्रोही गतिविधियों में कमी करने का दावा नहीं किया है। जिन इलाकों में हिंसक गतिविधियों के थमने का दावा है, तो वह इसलिए कि वहां आतंकवादियों /विद्रोहियों का ही सिक्का मिली जुली कुश्ती की रणनीति के तहत चलता है। सिविल समाज के जेहन में सबविश अधिनियम की पूरी वापसी को लेकर अभूतपूर्व एका रहा है। अधिनियम की यंत्रणा भोगती कम से कम दो तीन पीढ़ियां व्यतीत हो रही हैं। इस कानून की सड़ांध के कारणों को समझ पाना कठिन नहीं है। सेना (या पुलिस) के जुल्म के खिलाफ जनमत एकजुट हो जाए तो आतंकवादी और अलगाववादी ताकतों को या तो राजनीतिक तमीज़ की जरूरत पड़ती है अथवा उन्हें हाशिए पर धकेला जा सकता है। नेताओं और नौकरशाहों का भ्रष्टाचार मुख्य कारण है जिसने पूर्वोत्तर को उसकी सहज मनुष्यता से काटकर हिंसक उपनिवेश की शक्ल देने का गुनाह किया है।
तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। म्यामार और बांग्लादेश को भी श्रेय दिया जाता है कि भारत के कम से कम 20 विद्रोही समूहों को वहां पनाह, सहायता और शस्त्र शिक्षा मिलती है। विद्रोही करोड़ों रुपयों की सालाना चौथ भी वसूलते हैं। सामान्य लोगों और व्यापारियों से लेकर मंत्री तक उन्हें माहवारी वसूलने देते हैं-विरोध नहीं करते। जबरिया उगाही ‘चौथ‘ ‘सुरक्षा निधि‘ कहलाती है। लोग विद्रोहियों को शरण दें तो गद्दार और सेना/पुलिस की मदद करें तो मुखबिर। इस मनोविज्ञान में जीते आधी सदी से ज्यादा सरक गई है और आधा अस्तित्व भी। तत्कालीन राजग सरकार ने यह दुर्भावना भी दिखाई कि कुख्यात प्रिवेन्शन आफ टेररिस्ट एक्टिविटीज़ आर्डिनेंस (पोटो) संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी शांति प्रेमी संस्था के जन्मदिन 24 अक्टूबर को लागू किया। आडवाणी ने डूबते को तिनके का सहारा की शैली में महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम 1999 (मकोका) के अध्याय 5 का बचाव के रूप में उल्लेख किया। टाडा (1987) भी शुरुआत में केवल दो वर्षों के लिए बनाया गया था, लेकिन आठ वर्षों तक कायम रहा। पोटा तो पांच वर्षों के लिए ही अधिनियमित किया गया। इस बदनाम कानून का सर्वाधिक दुरुपयोग महाराष्ट्र और गुजरात में किया गया। सबसे ज़्यादा गिरफ्तारियां मुसलमानों की ही की गईं- कई अर्थों में पोेटा टाडा का छोटा भाई भले रहा हो लेकिन ज्यादा बिगड़ैल रहा है। अव्यक्त परिभाषा के चलते टाडा में बेचारे हड़ताली विद्यार्थी और दूध बेचने वाले भैय्ये भी पकड़े गये थे। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के पूर्व अध्यक्ष न्यायमूर्ति जगदीश शरण वर्मा ने अपने एक इन्टरव्यू में यह स्वीकार किया था कि आतंकवाद विरोधी कानून को यदि परिस्थितियोंवश बनाने की आवश्यकता पड़े, तो उसका मानवीय चेहरा भी होना चाहिए।
( जारी )
(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं। छत्तीसगढ़ के महाधिवक्ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्वतंत्र लेखन।)
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