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देश की बिंदी-8: मीडिया पर हिंदी का स्वरूप विकृत कर देने का आरोप कितना उचित

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शंभु नाथ चौधरी, रांची:

एक सज्जन हैं। शेयर ट्रेडिंग का कारोबार करनेवाली कंपनी में वीपी यानी वाइस प्रेजिडेंट। उन्होंने एक रोज हमसे शिकायत की- हिंदी के अखबार वालों ने हिंदी को हिंदी नहीं रहने दिया है। हिंदी में उर्दू, फारसी, अरबी और अंग्रेजी आदि भाषाओं के शब्द ठूंस-ठूंसकर इस भाषा को भ्रष्ट कर दिया है, बल्कि मौलिक हिंदी का अस्तित्व मिटाने पर तुले हैं। इस शिकायत पर हमने उलटा उन सज्जन से यह सवाल पूछ लिया कि आपके पास कोई व्यक्ति शेयर की खरीदारी पर सलाह लेने आता है तो उससे बात करते समय आपकी शब्दावली क्या इस तरह की हो सकती है कि- “महोदय! आप जिस प्रतिष्ठान की हिस्सेदारी क्रय करना चाहते हैं, उसका लाभांश अत्यंत कम मिलने की संभावना है. भविष्य की संभावनाओं के आधार पर मेरा आकलन यह है कि आप इसके स्थान पर दूसरे प्रतिष्ठान की हिस्सेदारी पर निवेश कीजिए।” दरअसल, ‘शुद्धतावादियों’  की यह आम शिकायत है कि हिंदी अखबारों और मीडिया ने हिंदी का स्वरूप विकृत कर दिया है। उन्हें लगता है कि अंग्रेजी, उर्दू और कुछ दूसरी भाषाओं के शब्दों के इस्तेमाल से हिंदी का अस्तित्व ही संकट में है।

 

 

वास्तव में ऐसा है नहीं। भाषाओं के विकास और उनके व्यापक होने के पूरे क्रम पर गौर करें तो पायेंगे कि समय के साथ उनका स्वरूप बदलता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र जैसे मनीषियों का खड़ी हिंदी के विकास में अविस्मरणीय योगदान रहा है, लेकिन अब के समय में भाषा की भारतेंदु जी वाली शैली नहीं चल सकती। बेशक उन जैसे विद्वानों ने खड़ी हिंदी की आधारभूमि तैयार की थी, लेकिन हिंदी उसके बाद से निरंतर आगे बढ़ती गयी है, बदलती गयी है। कोई भी भाषा तभी प्रासंगिक और जीवंत रह पाती है, जब वह समय की जरूरतों के अनुसार बदलती है, नयी शब्दावलियां गढ़ती है। भाषाएं अपने परिभाषित प्रभाव क्षेत्र से आगे बढ़कर विस्तार तभी पाती हैं, जब वो दूसरी भाषाओं-बोलियों के साथ परस्पर संवाद करते हुए उनके शब्द भी ग्रहण करती हैं। पर इसका अर्थ यह भी कतई नहीं कि हम अपनी भाषा में दूसरी भाषाओं से एकबारगी थोक मात्रा में शब्दावलियों का आयात कर लें।

पिछले दो-ढाई दशकों में तेजी से ग्लोबल गांव में तब्दील हो चुकी दुनिया में हमारी रोजाना की जरूरतें तेजी से बढ़ती-बदलती जा रही हैं और इनके हिसाब से अनुकूल होने की प्रक्रिया में हिंदी तेजी से बदली है, उसने अपना दिल बड़ा किया है। अंग्रेजी से नफरत के बजाय उससे दोस्ती बढ़ायी है। मेरा विचार है कि समय की जरूरतों के हिसाब से दूसरी भाषाओं के शब्द लेने से हिंदी अशुद्ध-अपवित्र नहीं हो जायेगी। भाषाएं गढ़ने का जो उद्देश्य रहा है, उसमें संप्रेषण का कारक सबसे महत्वपूर्ण है। दूसरी भाषाओं के शब्दों को समाहित कर अगर हमारा संप्रेषण ज्यादा प्रभावशाली होता है, उसमें ज्यादा अपील पैदा होती है तो इससे नुकसान क्या है?

 

 

हिंदी के अखबारों या मीडिया के दूसरे माध्यमों में आज सिटी, यूनिवर्सिटी, साइंस, स्टूडेंट, टीचर, रिजल्ट, पॉलिसी, चेयरमैन, लाइव, सस्पेंड, मूवी, ऑडिएंस, फाइल, प्लेटफॉर्म जैसे तमाम शब्दों के इस्तेमाल के पीछे एक बड़ी वजह यही है कि आज हम अपनी रोज की जरूरतों के हिसाब से सामान्य बोलचाल में भी इन शब्दों का सहज चुनाव करने लगे हैं। अच्छी भाषा वही है, जो दैनंदिन बोलचाल के शब्दों को साथ लेकर आगे बढ़ती है. जिन्हें अंग्रेजी से शिकायत है, उन्हें यह तथ्य जरूर जानना चाहिए कि अंग्रेजी भाषा हर साल हिंदी सहित दूसरी भाषाओं के चार हजार शब्द अपनी डिक्शनरी में जोड़ती है। यह ठीक है हर भाषा का एक अपना मूल होता है, इसलिए हिंदी में भी बगैर जरूरत के अंग्रेजी या दूसरी भाषा के शब्द जबरन ठूंस देना भी कतई वाजिब नहीं, पर यह भी सच है कि अंग्रेजी सहित दूसरी कई भाषाओं के जो शब्द हिंदी में एक तरीके से गुंथ गए हैं,  उन्हें अब चेष्टापूर्वक बाहर करने का प्रयास किया गया तो हिंदी अत्यंत क्लिष्ट होकर रह जायेगी।

संस्कृत निश्चय ही बहुत अच्छी, मधुर और समृद्ध भाषा है।  लेकिन उसने शुद्धता के आग्रह को इस तरह ओढ़ लिया कि वह अलग-थलग पड़ गयी। अगर वह समय के साथ बदलती, तो वह आज ग्रंथों के साथ-साथ व्यवहार में भी बनी रहती। बहुत सुंदर भवन बना लीजिए और हवा आने के लिए कोई खिड़की-दरवाजा मत रखिए,  क्या यह उचित है? भाषा भी ऐसी ही होती है। वह अपने झरोखे खुले रखती है। दूसरी भाषा के जिन शब्दों में हमारी भाषा के साथ समाहित होने का सामर्थ्य होगा। उन्हें हम नहीं रोक सकते। हिंदी ने भी ऐसा ही किया है। विदेशज शब्द, सैकड़ों -हजारों वर्षों के दौरान पहले हमारे व्यवहार में शामिल हुए और फिर हमारी भाषा का अभिन्न हिस्सा बन गए। हिंदी व्याकरणविदों ने इसीलिए हिंदी भाषा के शब्दों के चार वर्गीकरण किए हैं- तत्सम, तद्भव देशज और विदेशज. ऐसा नहीं होता तो विदेशज शब्दों के प्रयोग को हिंदी के विकास क्रम की शुरुआत के दौरान ही अशुद्ध-अवपित्र कर्म मान लिया जाना चाहिए था।

 

कोई भी भाषा शत प्रतिशत मौलिक नहीं होती। हिंदी भी दूसरी भाषाओं के शब्द लेकर समृद्ध हुई है। भाषाएं सहचर हैं। भाषाएं एक-दूसरे में गुंथ कर स्वाभाविक स्वरूप ग्रहण करती हैं धीरे-धीरे। सोना भी अगर 24 कैरेट का हो तो गहना नहीं बन सकता। वर्षों व्यवहार के साथ हमारी भाषा में जो समाहित हो जाए, वह हमारा है। समय के प्रवाह के साथ जो शब्द हमारी भाषा में आ रहे हैं, उनके लिए बैरियर लगाने की जरूरत नहीं है, जो सहज रूप से आ जाए उसे स्वीकार करने की जरूरत है। जैसे उर्दू से ‘फर्क’ आया तो हिंदी के ‘अंतर’ को एक पर्यायवाची शब्द मिल गया। इससे भाषा समृद्ध हुई। भाषा कमजोर नहीं हुई। अब इसपर कोई यह तर्क दे सकता है कि ऐसे में तो ‘डिफरेंस’ को भी पर्यायवाची मान लिया जाना चाहिए ? तब मैं कहूंगा- नहीं। अंतर या फर्क की जगह हम आज की तारीख में ‘डिफरेंस’ को हिंदी शब्दावली का हिस्सा नहीं मान सकते। लेकिन अगर इस शब्द का हमारे यहां व्यावहारिक तौर पर खूब प्रयोग होने लगा तो संभव है कि कल यह हमारे शब्दकोश के लिए भी ग्राह्य हो जाएगा, जैसे स्कूल, जैसे कॉलेज, जैसे यूनिवर्सिटी, जैसे सिटी। ‘स्कूल’  100 साल पहले हिंदी का शब्द नहीं था। अब है।  ‘कॉलेज’ 100 साल पहले हिंदी का शब्द नहीं था। अब है।

आज किसी मेडिकल स्टोर में जाकर दवाई या मेडिसिन मांगना ज्यादा सहज लगता है या औषधि ? वस्तुतः हमारा व्यवहार समय के साथ बदलता है. सुबह से शाम तक हम-आप हिंदी बोलते हुए जितने शब्दों का इस्तेमाल करते हैं।  उनमें सैकड़ों शब्द हमारी मूल हिंदी से नहीं निकले हैं। मसलन, अब हमें रोज ‘कार्यालय’ के बजाय ‘ऑफिस’ जाना ज्यादा सहज लगता है। ऑफिस में आपको ‘फाइल’ बोलना ज्यादा सहज लगता है, बजाय इसके कि आप ‘संचिका’ बोलें। हमें अपनी भाषा को जीवंत और समय के अनुकूल बनाना है तो दूसरी भाषाओं के शब्द लेने ही पड़ेंगे। अंग्रेजी की ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने पिछले साल हिंदी से ‘छि- छि’ शब्द लिया। अब सवाल उठता है कि उनकी भाषा में तो पहले से ‘शेम-शेम’ है,  तो इसकी जरूरत क्यों पड़ी?  दरअसल, ऐसी प्रक्रिया से अंग्रेजी खुद को हर रोज ज्यादा व्यापक बना रही है।

 

हमारे यहां हिंदी में आज अंग्रेजी या दूसरी भाषा की पांडुलिपि से आम तौर पर जो अकादमिक अनुवाद हो रहा है या किया जा रहा है। वह भाषा हमें सहज क्यों नहीं लगती ?  वजह यही है कि अनुवाद के क्रम में हम हिंदी की अतिशय शुद्धता या हिंदी शब्दों की मौलिकता के मोह से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। इसी वजह से आज हिंदी के विद्वानों के समक्ष यह बड़ी चुनौती है कि वह विज्ञान और तकनीक की हिंदी में पढ़ाई के लिए एक सहज शब्दावली तैयार करें। अब आज की भागदौड़ की जिंदगी में धोती पहन कर हम बहुत सहज नहीं हो सकते। पैंट और जींस हमारा स्वाभाविक पहनावा है। हमारी हिंदी भाषा भी जरूरतों के अनुसार कालक्रम में ऐसे ही बदल रही है। बदलती रहेगी। जिस दिन हमारी हिंदी कट्टर हो जायेगी, तालिबानी रवायतों की तरह सैकड़ों-हजारों साल पुराने ढर्रे से बाहर नहीं आना चाहेगी, तो उसी दिन से उसकी तरक्की की रफ्तार थम जायेगी। भाषा समुद्र की तरह होती है, जो छोटी-मोटी नदियों -नालों के साथ-साथ गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी विशाल नदियों की जलराशि को भी खुद में समाहित कर लेती है। हिंदी भी ऐसे ही व्यापक हुई है, हो रही है।

उसने संस्कृत से शब्द लिए हैं,  उसने खुद अपने शब्दों का विकास किया है, उसने देसी भाषाओं से शब्द लिए हैं और उसने विदेशी भाषाओं के शब्दों को भी जरूरत के अनुसार अपने घर में दाखिल होने की अनुमति दी है। इसके बाद ही वह आधुनिक हिंदी बनी है। इसके बाद ही वह व्यापक हिंदी बनी है। इसके बाद ही वह अब बाजार की हिंदी भी बनी है। अब भारत में कोई विदेशी उद्यम या उपक्रम भी इस हिंदी के बगैर यहां स्थापित नहीं रह सकता। भाषा कोई कूपमण्डूक नहीं होती कि वह अपने कुएं के संसार से बाहर नहीं निकल सकती। अंग्रेजी पूरी दुनिया की भाषा इसलिए बन गई, क्योंकि उसने पूरी दुनिया की समस्त भाषाओं के शब्द ग्रहण करने में संकोच नहीं किया। 

आज की जो अंग्रेजी है, उसमें उसके मूल शब्दों से ज्यादा फ्रेंच, लैटिन, अमेरिकी, रशियन, जैपनीज और तमाम भाषाओं के शब्द हैं। वह हर साल हिंदी भाषा के 8-10 शब्दों को भी अपनी डिक्शनरी में शामिल करती है पूरे गर्व के साथ। हिंदी के अखबारों और मीडिया की भाषा को लेकर कई शिकायतें वाजिब भी हैं। मीडिया के संपादकों को चाहिए कि वह वाजिब शिकायतों की परवाह करें। अतिशय शुद्धता का आग्रह जिस तरह उचित नहीं, उसी तरह अंग्रेजी शब्दों के इस्तेमाल में अति की सीमा भी जरूर समझनी होगी।

 

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(लेखक जन-सरोकारों से जुड़े झारखंंड के वरिष्‍ठ पत्रकार हैं। संप्रति न्‍यूज़ विंग के संपादक।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।