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देश की बिंदी हिंदी-संपादकजी कहिन: बदलती रहेगी तो बहती रहेगी हिंदी

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शहरोज़ क़मर, रांची:

समय के साथ संस्कृति, समाज और भाषा में बदलाव आता है। परंपरा यही है। लेकिन कुछ लोगों की ज़िद इन परिवर्तनों पर नाहक़  नाक -भौं सिकोड़ लेती है। अपने अनूठे संस्मरणों के लिए मशहूर लेखक कांति कुमार जैन का लेख -इधर हिंदी नई चाल में ढल रही है- पढ़ा जाना चाहिए। लेख का अंत वह इस पक्ति से करते हैं, हमें आज हिंदी के शुद्धतावादी दीवाने नहीं, हिंदी के संवेदनशील जानकार चाहिए। वह लिखते हैं, अंग्रेजी में हर दस साल बाद शब्द कोशों के  ये संस्करण प्रकाशित करने की परंपरा है। वैयाकरणों, समाजशास्त्रियों, मीडिया विशेषज्ञों, पत्रकारों, मनोवैज्ञानिंको का  एक दल निरंतर अंग्रेजी में प्रयुक्त होने वाले नये शब्दों की टोह लेता रहता है। यही कारण है कि  पंडित, आत्मा, कच्छा, झुग्गी, समोसा, दोसा, योग जैसे शब्द अंग्रेजी के  शब्द कोशों की शोभा बढ़ा रहे हैं। अंग्रेजी में कोई शुद्ध अंग्रेजी की बात नहीं करता। संप्रेषणीय अंग्रेजी की, अच्छी अंग्रेजी की बात करता है। अंग्रेजी भाषा की विश्व व्यापी ग्राह्यता का यही कारण है कि वह निरंतर नये शब्दों का स्वागत करने में संकोच नहीं करती। हाल ही में आक्सफोड एडवांस्ड लर्न्र्स डिक्शनरी का नया संस्करण जारी हुआ है। इसमें विश्व की विभिन्न भाषाओं के करीब तीन हजार शब्द शामिल किये गये हैं। बंदोबस्त, बनिया, जंगली, गोदाम जैसे ठेठ भारतीय भाषाओं के शब्द हैं, पर वे अंग्रेजी के शब्दकोश में हैं क्योंकि अंग्रेजी भाषी उनका प्रयोग करते हैं।

 

दरअसल किसी भाषा का विकास उसके बोलने या लिखने वालों पर निर्भर करता है। अगर उनका ध्यान रखा जाता है, तो निश्चय ही ऐसी भाषा सरल, सहज और बोधगम्य बनती है। अंग्रेजी में ग्रीक, लैटिन, फ्रांसीसी और अरबी के शब्द मौजूद हैं। अब उसके नए कोश में चीनी, जापानी और हिंदी आदि दूसरे भाषायी समाज के शब्द भी शामिल किए गए हैं। वहीं अरबी वालों ने तुर्की, यूनानी, फ़ारसी और इबरानी आदि के शब्द लिए। ऐसा नहीं कि हिंदी को दूसरी भाषा से बैर हो। हिंदी और उर्दू का जन्म ही समान स्थितियों और काल की देन है। जाहिर है, बाद में अलग अलग पहचानी गई इन जबानों में तुर्की, अरबी, अंग्रेजी, फ़ारसी, अवधी, बुंदेली, बांग्ला, संस्कृत आदि देशी-विदेशी शब्दों की भरमार है। लेकिन बाद में हिंदी के शुद्धतावादियों ने धीरे-धीरे बाहरी शब्दों से परहेज़ करना शुरू किया। तत्सम का प्रयोग आम हुआ। न ही तत्सम और न ही अन्य भाषायी शब्दों का इस्तेमाल ग़लत है। ग़लत है, ऐसे शब्दों को प्रचलन में ज़बरदस्ती लाने की कोशिश करना। हां! यदि चलन में शब्द हैं, तो उसे आत्मसात करना ज़रूरी है। लेखक, कवियों और अब टीवी चैनलों व फिल्मों में प्रयुक्त शब्दों को स्वीकार करने में हिंदी का विकास ही है। जैसे, प्रेमचंद ने गोधुली शब्द का इस्तेमाल किया तो लोगों ने सहज लिया। पंजाबी शब्द कुड़माई कहानी उसने कहा था के कारण कितना खूबसूरत बना। संजय दत्त की फिल्म मुन्ना भाई एमबीबीएस में आया गांधीगीरी शब्द हर की जबान पर चढ़ गया। अरुण कमल ने अपनी कविता में चुक्कू मुक्कू लिखा, तो उसका इस्तेमाल करने में किसी को कोई गुरेज़ नहीं हुआ। सुधीश पचौरी जब न्यूज चैनलों के लिए ख़बरिया लिखने लगे, तो पहले परहेज़ किया गया। लेकिन बाद में उसकी सहर्ष स्वीकृति मिल गई।

 

 

हिंदी और उर्दू के शब्दों को परस्पर जबानों से अलग करने की बहुधा कोशिशें की गईं। लेकिन हुआ उल्टा ही। आम लोगों के बीच गजलों, गानों और फिल्मों से उसे दुगुनी चाल से बढ़त मिली। आदि लेखकों में शुमार भारतेंदु हरिश्चंद्र के बकौल हिंदी नई चाल में ढलती गई। उर्दू और अंग्रेजी के शब्द शर्बत में चीनी की तरह घुल चुके हैं। तभी तो मिठास है। हिंदी में करीब 1 लाख, 37 हजार शब्द दूसरी भाषा के हैं। यह अब हमारी विरासत है।

दूसरी भाषा से आए शब्दों की कुछ मिसालें देखिए:
फल, मिठाई संबंधी: अनार, अंगूर, अंजीर या इंजीर, आलूबुखारा, कद्दू, किशमिश, नाशपाती, खरबूजा, तरबूज, सेब, बादाम, पिस्ता, अखरोट, हलवा, रसगुल्ला, कलाकंद, बिरयानी और कबाब आदि।
शृंगार संबंधी: साबुन, आईना, शीशा, इत्र आदि।
पत्र संबंधी: पता, खत, लिफाफा, डाकिया, मुहर, कलमबंद, कलम, दवात, कागज, पोस्ट ऑफिस, डाक खाना, आदि।
व्यवसाय संबंधी: दुकान, कारोबार, कारीगर, बिजनेस, शेयर, मार्केट, दर्जी, बावर्ची, हलवाई आदि।
धर्म संबंधी: ईमान, बेईमान, कफऩ, जनाज़ा, खुदा, मज़ार आदि।
बीमार संबंधी: बीमार, डॉक्टर, अस्पताल, हॉस्पीटल, नर्स, दवा, हकीम, सर्दी ज़ुकाम, बुखार, पेचीश, हैज़ा आदि
परिधान: पोशाक, कमीज, शर्ट, पैंट, आस्तीन, जेब, दामन, पाजामा, शलवार, जींस, दस्ताना आदि।
कानून व शासन संबंधी: चपरासी, वकील, सरकार, सिपाही, जवान, दारोगा, चौकीदार, जमादार, अदालत, सज़ा, मुजरिम, कैद, जेल आदि।

वहीं हिंदी में आए उर्दू के उपसर्ग व प्रत्यय के कुछ नमूने:

हर, बदनाम, बदसूरत, बदबू, बदमाश, बदरंग, बदहवास। गैरवाजिब, गैरजिम्मेवार, गैरजिम्मेदार, गैर हाजिर। बिलानागा। दादागिरी, गांधीगिरी, उठाईगिरी। आदमख़ोर, घूसखोर, रिश्वतखोर। असरदार, उहदेदार, चौकीदार, थानेदार। घड़ीसाज़, रंगसाज़।
इसके अलावा अनगिनत उर्दू शब्दों ने हिंदी शब्दकोश को समृद्ध बनाया है। आनंद नारायण मुल्ला का शेर बरबस याद आता है:

उर्दू और हिंदी में फर्क सिर्फ़ है इतना
हम देखते हैं ख्वाब, वह देखते हैं सपना।

 

प्रेमचंद आज भी चाव से पढे जाते हैं। उन्हें क्लासिक का दर्जा हासिल है। वहीं बोधगम्यता की बात चली तो, राजेंद्र यादव का सारा आकाश, श्रीलाल शुक्ल का रागदरबारी, धर्मवीर भारती का गुनाहों का देवता, सुरेंद्र वर्मा का मुझे चांद चाहिए, शानी का कालाजल और अब्दुल बिस्मिल्लाह का झीनी झीनी बिनी चदरिया का तुरंत ही स्मरण होता है। इन उपन्यासों की लाखों प्रतियां अब तक बिक चुकीं। आज भी लोग इसे पढऩा पसंद करते हैं। इसलिए कि इसकी भाषा बहुत ही सहज व सरल है। वहीं नामवर सिंह की किताब दूसरी परंपरा की खोज आलोचना जैसे सूखे विषय के बावजूद भाषायी प्रवाह के  कारण पढ़ी जाती है। रवींद्र कालिया की संस्मरणात्मक पुस्तक गालिब छुटी शराब खूब पढ़ी गई। जबकि काशीनाथ सिंह की काशी का अस्सी कम नहीं पढ़ी गई। लेकिन अस्सी में तत्सम अधिक पढऩे को मिला। वहीं गालिब....में ठेठ हिंदुस्तानी का लहजा परवान चढ़ा। इस शब्द पर अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध याद आए। उन्होंने किसी के कहने पर उपन्यास लिखा था, ठेठ हिंदी का ठाट। जिसमें हिंदी के ठाठ को बरकरार रखने का प्रयास किया गया था। लेकिन हरिऔध जी खुद ही असमंजस में थे।  30-3-1899 में उपन्यास की भूमिका में वह लिखते हैं, लखनऊ के प्रसिद्ध कवि इंशा अल्लाह खां की बनाई कहानी ठेठ हिंदी है। जो मेरा यह विचार ठीक है, और मैं भूलता नहीं हूँ, तो कहा जा सकता है कि मेरा ठेठ हिंदी का ठाट नामक  यह उपन्यास ठेठ हिंदी का दूसरा ग्रन्थ है।.........
भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र की बनाई हिंदी भाषा नाम की पुस्तिका है, उसमें जो उन्होंने नंबर 3 की शुद्ध हिंदी का नमूना दिया है, वही ठेठ हिंदी है। शुद्ध और ठेठ शब्द का अर्थ लगभग एक ही है। वह नमूना यह है:

पर मेरे प्रीतम अब तक घर न आये, क्या उस देश में बरसात नहीं होती, या किसी सौत के फंदे में पड़ गये, कि इधर की सुध ही भूल गये। कहां तो वह प्यार की बातें कहां एक संग ऐसा भूल जाना कि चिट्ठी  भी न भिजवाना, हा! मैं कहां जाऊं कैसी करूं, मेरी तो ऐसी कोई मुंहबोली, सहेली भी नहीं कि उससे दुखड़ा रो सुनाऊं, कुछ इधर-उधर की बातों ही से जी बहलाऊं ।

इन कतिपय पंक्तियों पर दृष्टि देने से जान पड़ता है कि जितने शब्द इन में आये हैं, वह सब प्राय: अपभ्रंश संस्कृत शब्द हैं, प्रीतम शब्द भी शुद्ध संस्कृत शब्द प्रियतम का अपभ्रंश है। विदेशी भाषा का कोई शब्द वाक्य भर में नहीं है, हां! कि शब्द फारसी है, जो इस वाक्य में आ गया है, पर यह किसी विवाद के सम्मुख न उपस्थित होने के कारण, असावधानी से प्रयुक्त हो गया है।

करीब डेढ़ सौ साल पहले भारतेंदु हरिश्चंद ने लेख लिखा था, हिंदी नई चाल में ढली। उसका चलना आज भी जारी है। रहना भी चाहिए।

 

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