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​​​​​​​विवेक का स्‍वामी-2: शिकागो धर्म संसद में जिरह के दो तयशुदा दुनियावी नतीजे निकले

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कनक तिवारी, रायपुर:

रामकृष्ण मिशन सहित संसार को 1960 के आसपास तक नहीं मालूम था कि विवेकानन्द के भाषण में ‘अमेरिका निवासी बहनों और भाइयों‘ सुनने के बाद दूसरी बार उतनी ही जोशीली तालियां कब बजीं। मैरी लुइस बर्क ने शिकागो के दैनिक पत्रों की रिपोर्टों और अन्य स्त्रोतों से जानकारियां एकत्रित कीं। विवेकानन्द ने कहा था ‘मैं यह आपको बताते हुए गर्व का अनुभव कर रहा हूं कि मैं उस धर्म का प्रतिनिधि हूं जिसकी पवित्र भाषा संस्कृत में बहिष्कार नाम का शब्द अनुवाद के योग्य ही नहीं है।‘ तालियों की गड़गड़ाहट उमड़ती रही। अमेरिका और दुनिया ने दो मूलमंत्र सीख लिए। ‘संसार के सभी निवासी आपस में भाई बहन हैं। किसी अन्य रिश्ते की क्या जरूरत है?‘ दूसरा कि ‘धर्म वही है जिसमें किसी का बहिष्कार नहीं हो। शिकागो धर्म-संसद के अपने ऐतिहासिक उद्बोधन में विवेकानन्द के इसी पहले वाक्य पर तालियां बजी थीं। भारतीय और हिन्दू संस्कृति का चरित्र व्यापक, सर्वकालिक और समावेशी है। विवेकानन्द ने इस बानगी को अंतर्राष्ट्रीय समझ में तब्दील करना चाहा था। विवेकानन्द के जीवन के ये शब्द-चित्र नये भारत के इतिहास का ताजा दहकता दस्तावेज हैं। क्रान्ति के ये स्फुलिंग हैं] जिन्होंने उनकी कुर्बानी की बलिवेदी पर भारत के स्वाभिमान को जिन्दा रखा है। धर्म संसद में विवेकानन्द के शब्द मानव-ज्वालामुखी के मुंह से निकला लावा हैं, जिसके ठंडे होने पर अमेरिका ने देखा कि उसकी छाती पर भारत के आध्यात्म का झण्डा दुश्मनी या विजय की भावना से नहीं, बल्कि बिरादराना भाव और समानता के आधार पर गाड़ दिया गया था। 

 


  
भाषा के आधार पर भूगोल के नक्शे को विकृत किया ही जाता है। मजहब के आधार पर इतिहास के नक्शे को विकृत किया ही जाता है। विवेकानन्द भूगोल और इतिहास की ताकत से वाकिफ थे। उनके लिए वे केवल सामाजिक विज्ञान नहीं बल्कि मानव विज्ञान के आंतरिक विश्वविद्यालय थे। विवेकानन्द ने पूर्व से पश्चिम तक कर्क रेखा जैसा अक्षांश बनकर भारत से अमेरिका तक संसार को अपनी आगोश में ले लिया।     ‌ विवेकानन्द से पहले और उनके अलावा केवल बुद्ध की दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों तक भूमध्य रेखा के आसपास भारत की धमक हुई थी। बुद्ध और विवेकानन्द महान इन्सानी करुणा के ऐतिहासिक अक्षांश हैं। उन पर आज भारत की फिरकापरस्ती ताकतें नासमझी का ठीकरा फोड़ रही हैं। अपने भावुक जोश में विवेकानन्द ने शुरुआती अमेरिकी यात्राओं में उस महादेश की एक नए प्रेरणास्त्रोत के रूप में तारीफ भी की थी। बाद में महसूस किया कि पूंजीवाद, नस्लवाद, सैन्य शक्ति और ईसाइयत की दकियानूसी से लदे फंदे देश के जेहन में भारत की महान सांस्कृतिक मान्यताओं और उदार धार्मिक विश्वासों के लिए सम्मानजनक जगह नहीं है। इसलिए अमेरिका के खिलाफ विवेकानन्द बाद में कठोर भाषा में सच का बखान करते रहे। वे इन्सान विरोधी पश्चिमी मान्यताओं को लाजवाब करते रहे। 

 

 

शिकागो धर्म सम्मेलन में विवेकानन्द की जिरह के दो तयशुदा दुनियावी नतीजे निकले। एक यह कि दुनिया के सामने हिंदू धर्म की बहुलतावादी समझ का चेहरा पहली बार विश्वजमात की निगाह में आया। दूसरा यह कि विवेकानन्द को ईसाइयत के प्रचारित मजहबी और सियासी अहंकार को नजदीक से जांच परखकर दो दो हाथ करने का मौका आया।          ईसाइयत आत्ममुग्ध बड़प्पन के कारण संसार के हर धर्म को अपने से हीनतर समझे बैठी रही थी। विवेकानन्द की तपस्वी मुद्रा में जबरिया निरीहता या कमतर होने का अहसास वाचाल नहीं था। 

करीब तीन वर्षों के अमेरिकी प्रवास में उन्होंने ईसाइयत के बड़बोले पादरियों और ज्ञानशास्त्रियों से मुकम्मिल जिरह की। उन्हें बोध रहा है कि उनके गुरु श्रीरामकृष्णदेव एक के बाद एक ईसाइयत और इस्लाम सहित कई धर्मों में खुद की देह को भी अंतरित करते सच्चे मनुष्य धर्म की तलाश में सात्विक अमरता के अहसास और अनुभूति के मुकाम तक पहुंचे थे। विवेकानन्द ने यही तो मार्के की बात कही थी ‘‘हम केवल वैश्विक सहिष्णुता में भरोसा भर नहीं करते। बल्कि हम सभी धर्मों को सत्य का प्रतीक मानकर स्वीकार करते हैं।‘‘ विवेकानन्द ने कभी दावा नहीं किया वे कोई अनहोनी कर रहे हैं या पूरी तौर पर कोई मौलिक विचार को जन्म देने अमेरिका आए हैं। 

( जारी )

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(स्‍वामी विवेकानंद के अहम जानकार लेखक रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।