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पाकिस्‍तान यात्रा-5: दरवाज़े पर ॐ  लिखा पत्‍थर और आंगन में तुलसी का पौधा

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(हिंदी के वरिष्‍ठ लेखक असगर वजाहत 2011 में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के जन्म शताब्दी समारोह में शिरकत करने पाकिस्तान गए थे। वहां लगभग 45 दिन घूमते रहे। लाहौर, मुल्तान और कराची में अनेक लोगों से मिले थे। संस्थाओं में गए थे। उन अनुभवों के आधार पर उन्‍होंने एक सफरनामा 'पाकिस्तान का मतलब क्या' लिखा था, जो तब ज्ञानोदय में छपा था और उसके बाद ज्ञानपीठ ने उसे पुस्तक रूप में छापा था । उस पर आधारित कुछ अंश द फॉलोअप के पाठक नियमित पढ़ रहे हैं । अब तक उसके चार हिस्‍से पढ़ चुके हैं।  उन्‍होंने रियाज़ हैदर ज़ैदी का एक संस्‍मरण मुहैया कराया है। पाकिस्‍तान यात्रा की पांचवी किस्‍त में उसे ही पढ़िये। )

 

रियाज़ हैदर ज़ैदी, दिल्‍ली:

मैंने अपने आप को बहुत रोका, बहुत समझाया कि रात काफ़ी हो गई है, लेकिन लिखने से मन नहीं माना। मैंने पाकिस्तान की यात्रा 1982 में की थी। वहां एक अनुभव हुआ था जो आप लोगों के साथ शेयर कर रहा हूं। शहर कराची में मुक़ीम था, एक सुबह हसबे मामूल टहलने निकला जिस सड़क पर रवां-दवां था कि अचानक एक मकान के दरवाज़े के ऊपर लगे ॐ लिखे पत्थर ने मुझे रुकने पर मजबूर कर दिया। मैंने दरवाज़े पर लगी बिजली की घंटी का बटन न दबा कर दरवाज़े पर लटकती लोहे की सांकड़/ कुंडी को ज़ोर से बजा दिया शायद ख़ुद दरवाज़ा और मालिके मकान ऐसी आवाज़ से मानूस न थे, तुरन्त एक ख़ूबसूरत मोहतरमा ने दरवाज़ा खोल कर मेरी तरफ़ हैरतज़दा नज़रों से देखा। मैंने एक क़दम पीछे हटकर ॐ लिखे पत्थर को देखते हुए दोनों हाथ जोड़कर उनको नमस्ते कहा, उनकी ख़ूबसूरत आँखें थोड़ा और फैल गईं। मुस्‍कुराते हुए बोलीं - भारत से आए हैं? मेरे हाॅं कहने पर मुझे अन्दर आने की दावत दी। घर के अन्दर एक बहुत कुशादा आंगन और उस आंगन के बीचों बीच एक चबूतरा और उस चबूतरे में लगा था हरा भरा तुलसी का पौधा। घर के अन्दर मौजूद दीगर अफ़राद ने अपना परिचय दिया।

घर के मुखिया का नाम अब्दुल समद खाॅ था । दरवाज़ा खोलने वाली मोहतरमा घर की बहू थीं। विभाजन के समय लाला केशव प्रसाद अब्दुल समद खाॅ के वालिद के पड़ोसी हुआ करते थे। एक रात लााला जी ने पड़ोस में रहने वाले खाॅ साहब का दरवाज़ा खटखटाया और आँखों में आसुओं के साथ खाॅ साहब को बताया कि कल वे परिवार के साथ सरहद पार भारत जा रहे हैं और एक इच्छा लेकर पड़ोसी के दर पर आए हैं। कंपकपाती हुई आवाज़ में यह ख़्वाहिश ज़ाहिर की कि अच्छा पड़ोसी होने के नाते वे अपना पुश्‍तैनी मकान खाॅ साहब को देना चाहते हैं। खाॅ साहब ने उन्हें बहुत विशवास दिलाया कि क़तई ऐसा न करें। किसी की मजाल नहीं है जो उनके रहते लाला जी की तरफ़ आँख उठा कर देख ले। लेकिन लाला जी बज़िद हो गए तो खाॅ साहब ने कहा, इतने बड़े मकान ख़रीदने की हैैसियत नहीं रखते। उस पर लाला जी ने रोते हुए कहा, वे अपनी बाप दादों की ढयोड़ी बेचने का तो तसव्वुर भी नहीं कर सकते। वह तो यह चाहते हैं कि खाॅ साहब उनका मकान बग़ैर पैसों के ले लें।

खाॅ साहब को अपने कानों पर यक़ीन नहीं हो रहा था लेकिन लाला जी के बहुत बज़िद होने पर कहने लगे कि मैं अपने बीवी और बच्चों से मशविरा कर लूॅ । जल्द ही खाॅ साहब लौटे लेकिन इस बार उनकी बीवी भी सिर पर दुपट्टा डाले साथ थीं। उन्होंने भी लाला जी को समझाया लेकिन वह न माने। अगली सुबह खाॅ साहब अपनी बीवी और बच्चों के साथ लाला जी के यहाॅ पहुॅचे तो देखा लाला जी का सामान ट्रक पर रखा हुआ था और लाला जी की कार बाहर खड़ी थी। लाला जी के बड़े पुत्र ने खाॅ साहब के चरण छुए और घर के अन्दर जा कर लाला जी को खाॅ साहब के आने की सूचना दी। लाला जी और उनकी पत्नी बाहर आए, दोनों की पत्नियों ने एक दूसरे को गले लगाया। सब लाला जी के घर के अन्दर गए। लाला जी ने मकान की चाबियाॅ माथे से लगा कर खाॅ साहब के हाथ पर रखीऔर हाथ जोड़ कर खाॅ साहब से कहा- मेरी आप से विनती है कि मेरी दो बातें आप मान‌ लें। पूछने पर बोले कि मेरे मकान के दरवाज़े के ऊपर पत्थर पर लिखा ॐ सदा ऐसे ही रहने दें और घर के आंगन में लगे तुलसी के पौधे को रोज़ पानी देते रहें। खाॅ साहब और उनकी बीवी ने एक दूसरे की तरफ़ देखा, लाला जी और उनकी पत्नी बड़ी आशा से उन दोनों की तरफ़ देख रहे थे। खाॅ साहब लाला जी की तरफ़ मुड़े और लाला जी के दोनों हाथ पकड़ कर बोले, लाला जी एक पठान आप को ज़बान देता है कि आप की दोनों इचछाएं मेरी ज़िंदगी तक ही ही नहीं बल्कि मेरी आने वाली नस्लें भी निभाएंगी। यह सुनते ही लाला जी ने खाॅ साहब को गले से लगा लिया। लाला जी और उनकी पत्नी दोनों ने आख़री बार तुलसी के पौधे को पानी दिया, पानी देकर लोटे को खाॅ साहब की बीवी के हाथ में दे दिया, घर के बाहर आकर पूरे परिवार ने घर की चौखट पर माथा टेका और सबने हाथ जोड़ कर सिर झुकाए और हमेशा हमेशा के लिए उस वतन, उस सरज़मीं को अलविदा कह दिया। 

मुझे इतना क़िस्सा सुनाने के बाद अब्दुल समद खाॅ ख़ामोश हो गए और तुलसी के पौधे के पास रखे हुए लोटे की तरफ़ इशारा करते हुए बोले 'यह वही लोटा है। मेरी माँ जब तक हयात रहीं इसी लोटे से तुलसी के पौधे को पानी देती रहीं और अब मेरी बीवी इस ज़िम्मेदारी को निभा रही है और इंशा अल्‍लाह मेरी आने वाली बहू इस ज़िम्मेदारी को निभाएगी। इतना सब कहने के बाद उनहोंने मेरी तरफ़ ग़ौर से देखा और मुस्‍कुरा कर बोले कि आप ने अपने बारे में तो कुछ बताया नहीं क्या नाम है, भारत में कहाॅ से तशरीफ़ लाए हैं ? मैं ने उन सब की तरफ़ ग़ौर से देखा और उन को अपनापूरा नाम रियाज़ हैदर ज़ैदी बताया। यह भी बताया कि मैं भारत के एक शहर फ़तेहपुर का रहने वाला हूँ तो वह दोनों बड़ी हैरत से मेरी तरफ़ देख रहे थे। मैं उठ खड़ा हुआ और दोनों से जाने की इज़ाज़त मांगी, उस घर से बाहर आकर मैंने ॐ लिखे पत्थर को देखा और दोनो हाथ जोड़ कर उन दोनों हैरान परेशान मियां बीवी को नमस्ते कहा और वापस अपने घर की तरफ़ चल दिया। यह वाक़या हक़ीक़त है। मैं बहुत क्षमा चाहता हूँ कि कुछ अधिक लिख गया हूँ। मैं इस यात्रा में उन इलाक़ों में भी गया जहाॅ हमारे हिंदू भाई रहते हैं। इस विषय पर फिर कभी लिखॅूगा। अभी तो मैं यह डर रहा हूँ कि कहीं आप सब की डांट न खानी पड़ें। कुछ ग़लत लिख गया हूँ तो क्षमा कर दीजिएगा।

जारी

पहला भाग पढ़ने के लिए क्‍लिक करें: हिंदी के एक भारतीय लेखक जब पहुंचे पाकिस्‍तान, तो क्‍या हुआ पढ़िये दमदार संस्‍मरण

दूसरा भाग पढ़ने के लिए क्‍लिक करें:  पड़ोसी देश में भारतीय लेखक को जब मिल जाता कोई हिंदुस्‍तानी

तीसरा भाग पढ़ने के लिए क्‍लिक करें: आतंकवाद और धर्मान्धता की जड़ है- अज्ञानता और शोषण

चौथा भाग पढ़ने के लिए क्‍लिक करें: हिन्दू संस्कारों की वजह से मैं अलग प्लेट या थाली का इंतज़ार करने लगा

लेखक फतेहपुर, उत्तर प्रदेश के मोहल्ले बाकरगंज में एक स्कूल संचालित करते हैं। वह 1982 में पाकिस्तान गए थे। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।

 

 

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