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टोप्पो साहब, मिल लीजिए, भले ही पैरवी मत सुनिए

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द फॉलोअप डेस्क

जब से टोप्पो साहब प्रोजेक्ट भवन में बैठने लगे हैं, उनकी चर्चा चहुंओर हो रही है। क्योंकि प्रत्येक राज्यकर्मी उनसे जुड़ा है। वे उनके काम से लेकर दाम तक का फैसला करनेवालों में एक हैं। अब काम और दाम की बात हो तो उसमें विवाद का उपजना स्वाभाविक है। विवाद सुलझाने, परेशानियों को दूर करने का रास्ता आपसी बातचीत से होकर ही जाता है। हालांकि टोप्पो साहब ने पीड़ियों की सुनने के लिए अपने कार्यालय कक्ष के बाहर बोर्ड भी लगा दिया है। उस पर मिलने का समय टंकित करा रखा है। तय समय में कोई भी आम व्यक्ति, सरकारी कर्मी, अधिकारी, फरियाद लेकर उनके पास जा सकता है। लेकिन राज्यकर्मी बताते हैं कि मिलने में भारी भेदभाव है। जिसे चाहा, उसे बात करने के लिए बुलाया, जिसे नकारा, उसे फटकारा। जबकि न्याय का तकाजा है कि पीड़ितों की ही नहीं, दोनों पक्षों की सुनी जानी चाहिए। लेकिन पक्ष रखने में छोटे मोटे कर्मियों को छोड़िए, बड़े अधिकारियों को भी भारी परेशानी हो रही है। पास पहुंचने के लिए पापड़ बेलने पड़ रहे हैं। कभी कभी आत्म सम्मान को भी धक्का दे दिया जाता है।


अब हाल का एक उदाहरण देखिए। संयुक्त सचिव से अपर सचिव में प्रमोशन होना है। इसके लिए आठ पद रिक्त हैं। लाल साहब भी एक बड़े अधिकारी हैं। उनका भी प्रमोशन होना है। लेकिन प्रमोशन के लिए होनेवाली डीपीसी की बैठक की फाईल 20 दिनों से पड़ी है। न वह ऊपर जा रही है और ना ही नीचे। लाल साहब जल्द ही रिटायर करनेवाले हैं। चाहते हैं कि रिटायरमेंट से पहले प्रमोशन हो जाए तो पैसे का भले ही कम लाभ हो लेकिन रिटायरमेंट के बाद उन्हें एक सम्मान तो मिले। बेचारे अपनी फरियाद लेकर टोप्पो साहब के पास गए। लेकिन उन्होंने मिलने से साफ इंकार कर दिया। मिलने की पर्ची लेकर अंदर गए पीऊन ने बाहर निकलते ही उन्हें चिंटू साहब से मिलने का हुक्म सुना दिया। यही हाल लाल साहिबा की भी हुई। वह भी साहब तक अपनी बात पहुंचाने में विफल हुई। ये लोग छोटे-मोटे साहब-साहिबा नहीं हैं। लेकिन टोप्पो साहब से तो जरूर छोटे हैं। अब सचिवालय में यह आम चर्चा है कि पैरवी भले नहीं सुनिए, लेकिन मिल कर पीड़ितों की बात तो सुन लीजिए साहब। कर भला, तो हो भला की उक्ति को तो कम से कम याद कर लिया कीजिए।

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