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लोकसभा विशेष : पलामू के लेस्लीगंज का लाख उद्योग रो रहा है बदहाली के आंसू, सरकारी उदासीनता से खोई चमक; कभी एशिया में था नंबर-1

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द फॉलोअप डेस्क, रांची:

विकास क्या है। चौड़ी सड़कें, ऊंची-ऊंची इमारतें, रोजगार का भ्रम पैदा करती धुआं उगलती फैक्ट्रियां, तेज गति से भागती गाड़ियां, सर्व सुविधाओं से वाला अपार्टमेंट, मेट्रो, प्लेन और मॉल या फिर हरियाली से भरा पूरा गांव, फलदार पेड़ों का बागान, मुंडेरों पर चिड़ियों का मीठा शोर, फल, फसल और सब्जियों से भरे पूरे खेत और दूर गांव के नुक्कड़ पर बेमियादी बैठकें। जाहिर है कि सबके विकास का पैमाना अलग है। गांव में रहना वाला व्यक्ति बारिश में उफनाती नदी से जूझते हुए पक्के पुल और सड़क का सपना देखता है तो वहीं 9 से 5 की नौकरी के बाद क्लबों में सुकून ढूंढ़ रहा शहरी घने आम के बागान में एक खटिया पर गहरी नींद का ख्वाब देखता है। अब, कैसे समझ पाएंगे कि असली विकास क्या है। समाज विज्ञानी और पर्यावरणविदों ने इसी सवाल से जूझते हुए विकास का सही अर्थ ढूंढ़ने का प्रयास किया। फिर फॉर्मूला दिया सस्टेनेबल डेपलपमेंट का। 

इसे हिंदी में सतत पोषणीय विकास कहते हैं। मानें, रोजगारन्मुखी विकास तो हो लेकिन हरियाली और पर्यावरण को बचाते हुए। यदि किसी ढांचे के निर्माण के लिए 10 पेड़ काटे जाएं तो 100 पौधे लगाये भी जाएं न कि कंक्रीट का जंगल खड़ा कर दें। ऐसा विकास जिसमें जो भी करें, उसमें आने वाली पीढ़ी के लिए प्राकृतिक संसाधनों को बचाते चलें लेकिन, दुख की बात है कि  ऐसा होता नहीं है। प्रकृति प्रदत संसार को हटाकर हम इंसान कंक्रीट की दुनिया बसाते जा रहे हैं। एसी कमरों के बाहर बालकनी में सिंथेटिक घास लगाकर लोग पर्यावरण प्रेमी बन रहे हैं तो वहीं विदेशी नस्ल के कुत्तों को टहलाकर पशु प्रेमी। और विकास की परिभाषा पर कन्फ्यूजन बना हुआ है। 

प्रकृति के साथ संतुलन बनाकर जो किया जाये वही असली विकास है लेकिन पृथ्वी पर जैव विविधता से जुड़े इतने गंभीर मसले पर अंतर्राष्ट्रीय इवेंट तो होते हैं लेकिन इंसानी जिंदगी के लिए जरूरी ये कभी चुनावी मुद्दा नहीं बन पाता है। इतनी भूमिका बांधने का अर्थ क्या है। दरअसल, हम आपको, घने जंगलों और हरियाली के लिए मशहूर झारखंड राज्य में कथित विकास की वजह से दम तोड़ते लाख उद्योग की मार्मिक कहानी बताना चाहते हैं। 

एशिया में नंबर-1 क्वालिटी का लाह उत्पादन होता था
झारखंड के पलामू जिले में लेस्लीगंज प्रखंड में एशिया का दूसरा सबसे बड़ा लाह उत्पादन केंद्र हुआ करता था। यह न केवल पलामू या झारखंड बल्कि पूरे एशिया के लिए गर्व का विषय था लेकिन, आज 421 एकड़ में फैले नंबर वन लाह उत्पादन केंद्र की हालत खस्ता है। लेस्लीगंज में लाह उत्पादन करने वाला कुंदरी बागान अपनी आखिरी सांसें गिन रहा है। स्थानीय लोग बताते हैं कि क्षेत्रफल के नजरिये से भले ही कुंदरी बागान, एशिया का दूसरा सबसे बड़ा लाह उत्पादन केंद्र हो लेकिन क्वालिटी के लिहाज से ये एशिया में नंबर था। जानने वाले बताते हैं कि औपनिवेशिक काल में ब्रिटिश राज के अधीन, लेस्लीगंज में 421 एकड़ में फैले इस बागान में बेहतरीन क्वालिटी का लाह उत्पादन होता था। बागान में 1 लाख से ज्यादा पलाश के पेड़ थे। इससे चूड़ी सहित अन्य सामग्रियां बनाई जाती थीं।

दिलचस्प है कि बागान के पास ही फैक्ट्री थी। स्थानीय आबादी को बड़े पैमाने पर रोजगार भी मिलता था लेकिन विडंबना है कि विकास की परिभाषा बदली और 45 करोड़ से लेकर 135 करोड़ रुपये तक की आमदनी वाला ये बागान आज वीरान पड़ा है। कभी, पलाश के पेड़ों से भरा ये जंगल, मृतप्राय है। लोग बताते हैं कि इसे पुनर्जीवित किया जाए तो स्थानीय आबादी को रोजगार मिलेगा। पलायन रूकेगा। सरकार को भई राजस्व मिलेगा लेकिन विडंबना देखिए कि लोगों की जिंदगी को सीधे तौर पर प्रभावित करने वाला ये उद्योग, चुनावी मुद्दा नहीं है। 

झारखंड गठन के 24 सालों में किसी ने ध्यान नहीं दिया
झारखंड गठन को 24 साल हो गये। सरकारें आईं और गईं। 2018 में जरूर छोटा सा प्रयास किया। यहां प्रोसेसिंग यूनिट सहित 2 भट्टियों का निर्माण हुआ। उत्पादन के जरिए 3 गुना लाभ की उम्मीद थी। 40 लाख रुपये पूरी प्रक्रिया में खर्च भी हुए लेकिन सरकारी उदासीनता इसे खा गई। प्रोसेसिंग यूनिट बंद हो गया। 2018 में एक बार महज 3200 किलो लाह का उत्पादन हुआ। सरकार कहती है कि यूनिट शुरू होने से 50 हजार की आबादी को रोजगार मिलेगा लेकिन सबकुछ कागजी दावा है। लोगों को केवल अतीत ही याद है। 

कभी लाह उत्पादन का महाराजा कहलाने वाला लेस्लीगंज का ये बागान, चारागाह बनता जा रहा है। पेड़ सूख रहे हैं और लोगों की उम्मीदें भी।