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‘पेसा’ से लागू होगा सरना धर्म कोड!

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सुधीर पाल  
झारखंड की राजनीति इन दिनों एक ऐसे विषय के इर्द-गिर्द घूम रही है, जिसे अगर ठीक से समझा जाए तो यह न केवल राज्य की सांस्कृतिक अस्मिता का प्रश्न है, बल्कि देश की लोकतांत्रिक आत्मा के लिए भी एक कसौटी-परीक्षण है। हम बात कर रहे हैं सरना धर्म कोड की—एक मांग जो आदिवासी समुदाय की धार्मिक पहचान, परंपरा और आत्मनिर्णय से जुड़ा है। बिडम्बना है कि यह गंभीर मुद्दा एक बार फिर राजनीतिक गलियारों में भावनात्मक शस्त्र के रूप में इस्तेमाल हो रहा है।
सरकार हो या विपक्ष, दोनों ही सरना धर्म कोड विषय पर मौकापरस्त रवैया अख्तियार किए हुए हैं। राज्य सरकार केंद्र सरकार को दोष देती है, और केंद्र सरकार इसे तकनीकी प्रक्रिया बता कर टालती रही है। यह विषय केवल जनगणना के एक कॉलम भर की बात नहीं है, बल्कि आदिवासी अस्मिता, धार्मिक स्वतंत्रता और संविधान द्वारा प्रदत्त आत्म-निर्णय के अधिकार से गहराई से जुड़ा है। लेकिन बड़ा सवाल है—क्या इस पूरे विमर्श में कहीं पेसा 1996 को देखा गया है? क्या पेसा कानून, जिसे आदिवासी स्वशासन की आत्मा माना जाता है, इस मुद्दे का वैकल्पिक समाधान प्रस्तुत नहीं करता?
झारखंड के आदिवासी समुदाय लंबे समय से एक अलग धर्म पहचान की मांग करते आ रहे हैं जिसे वे 'सरना धर्म' के नाम से जानते हैं। यह धर्म प्रकृति पूजक है, जिसकी मान्यताएँ जंगल, पहाड़, नदी और पुरखों की आत्मा से जुड़ी हैं। सरना धर्म कोड की मांग का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि जनगणना प्रपत्र में एक स्वतंत्र धर्म कॉलम हो, जहाँ आदिवासी समुदाय खुद को हिंदू, ईसाई या किसी अन्य धर्म की श्रेणी में जबरन फिट करने के बजाय, अपनी वास्तविक धार्मिक पहचान के साथ अंकित कर सकें।
भारत की जनगणना प्रणाली में आदिवासियों को स्पष्ट रूप से धार्मिक रूप से पहचानने की कोई स्वतंत्र व्यवस्था नहीं रही है। इसका परिणाम यह होता है कि उन्हें आमतौर पर हिंदू या ईसाई मान लिया जाता है, जिससे उनके धार्मिक अस्तित्व को अनदेखा किया जाता है। आदिवासियों का यह दावा रहा है कि उनकी धार्मिक पहचान किसी स्थापित धर्म से मेल नहीं खाती। सरना धर्म वास्तव में एक प्राकृतिक धर्म है जो प्रकृति के साथ सहअस्तित्व और पूर्वजों की आत्मा की उपासना पर आधारित है।

केंद्र सरकार की विचारधारा 
भारत सरकार विशेष रूप से वर्तमान शासन के दौरान आदिवासी आस्था पद्धतियों को सनातन धर्म की उप-धारा मानती रही है। उनके अनुसार, चूंकि आदिवासी भी हिंदुओं की तरह पेड़-पौधों, पत्थर, नदी, झरने, देवी-देवताओं की पूजा करते हैं, इसलिए वे हिंदू धर्म के ही अंग हैं। यह मान्यता आदिवासी धार्मिक स्वतंत्रता और पहचान की स्वायत्तता के बिलकुल खिलाफ है।
सरना धर्म न तो मूर्तिपूजक है, न ही वह वेदों या शास्त्रों पर आधारित है। उसकी पहचान स्थानीय परंपराओं, प्रकृति और सामुदायिक पूजा में है। इसलिए जब सरकार यह मानती है कि सरना, सनातन का ही रूप है, तो वह आदिवासी समाज की धार्मिक स्वायत्तता का हनन करती है।
सरना अनुयायियों का तर्क है कि उनकी पूजा-पद्धति में कोई संगठित मंदिर, पुरोहित व्यवस्था या धार्मिक ग्रंथ नहीं होते, जो कि ब्राह्मणवादी ढांचे से अलग है। यह भिन्नता केवल सांस्कृतिक नहीं बल्कि धार्मिक और वैधानिक रूप से भी विशिष्ट है।


पेसा और सरना धर्म कोड का अंतर्संबंध
इसी पृष्ठभूमि में पेसा अधिनियम 1996 एक वैधानिक विकल्प और संभावित मार्ग के रूप में उभरता है। पेसा, संविधान के 73वें संशोधन के बाद अनुसूचित क्षेत्रों में समुदायों को विशेष अधिकार देने के लिए लाया गया था। इस कानून की धारा 4(डी) की मान्यता है:
"हर ग्रामसभा को यह अधिकार होगा कि वह अपने क्षेत्र की परंपरा, रिवाज, उपासना पद्धति और धार्मिक विश्वासों का संरक्षण, संवर्धन और दस्तावेजीकरण कर सके।" यहां तीन शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण हैं:
संरक्षण, संवर्धन, और दस्तावेजीकरण। यानी ग्रामसभा न केवल अपनी धार्मिक मान्यताओं को बनाए रख सकती है, बल्कि उन्हें आधिकारिक रूप से दर्ज भी कर सकती है। यानी ग्रामसभा न केवल अपनी धार्मिक मान्यताओं को बनाए रख सकती है, बल्कि उन्हें आधिकारिक रूप से दर्ज भी कर सकती है।
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि अगर राज्य सरकार ईमानदारी से चाहे तो वह पेसा को प्रभावी रूप से लागू करके ग्रामसभाओं को यह अधिकार दे सकती है कि वे 'सरना' को अपनी मान्य उपासना पद्धति के रूप में दस्तावेजीकृत करें। एक बार जब यह दस्तावेजीकरण ग्रामसभा के स्तर पर हो गया और उसे राज्य मान्यता दे दे, तो यह कानूनी रूप से मान्य दस्तावेज बन सकता है, जिससे जनगणना या सरकारी पहचान में 'सरना' धर्म की वैधानिकता को बल मिलेगा।
यह एक क्रांतिकारी प्रावधान है। यह पहली बार भारतीय कानून में यह स्वीकार किया गया कि परंपरा, रिवाज और उपासना पद्धति केवल संस्कृति नहीं, बल्कि वैधानिक अधिकार हैं। यह वह कानूनी आधार है जो सरना धर्म जैसी आस्था को स्थानीय स्वीकृति से लेकर राज्यस्तरीय मान्यता तक पहुंचा सकता है। जब हज़ारों ग्रामसभाएं कहें कि हम सरना धर्म के अनुयायी हैं, तो यह न केवल सांस्कृतिक शक्ति बनेगा, बल्कि वैधानिक बल भी होगा।
यदि झारखंड सरकार पेसा को पूर्णतः लागू करे और ग्रामसभाओं को उनके परंपरागत धर्म, पूजा विधियों और विश्वासों को औपचारिक रूप से दर्ज करने का अधिकार दे दे, तो ग्रामसभा द्वारा मान्य सरना धर्म एक कानूनी दस्तावेज में बदल सकता है। जब हज़ारों ग्रामसभाएं कहें कि हम सरना धर्म के अनुयायी हैं, तो यह न केवल सांस्कृतिक शक्ति बनेगा, बल्कि वैधानिक बल भी होगा।
अब प्रश्न उठता है कि जब पेसा यह कहता है कि ग्रामसभा अपने उपासना पद्धति को मान्यता दे सकती है, तो क्या यह रास्ता सरना धर्म कोड को भी वैधानिक वैधता दे सकता है? हाँ, यदि राज्य सरकार इच्छा शक्ति दिखाए।
यह विधिक वैधता जनगणना में धर्म कॉलम में एक स्वतंत्र स्थान की मांग को और भी अधिक मजबूत बना सकती है। इससे यह स्पष्ट संकेत जाएगा कि सरना कोई व्यक्तिगत आस्था नहीं बल्कि सामुदायिक और परंपरागत धार्मिक संरचना है।


ग्रामसभा के प्रमाणन की शक्ति
झारखंड में पेसा-1996 के नियमावली को अधिनियमित करने की प्रक्रिया चल रही है। नियमावली के लागू होने के बाद ग्रामसभा अपने नियम, परंपराएं और निर्णय प्रक्रिया खुद तय कारण के लिए कानूनी तौर पर अधिकृत हो जाएंगी। पेसा के तहत ग्रामसभा अपने धर्म की पहचान दर्ज कर सकती है और यह सरना धर्म को एक व्यवस्थित और विधिसम्मत रूपरेखा के तौर पर स्थापित कर सकती है। 
यहाँ राज्य सरकार को एक साहसिक और दूरदर्शी निर्णय लेना होगा — केंद्र सरकार की अनुमति की प्रतीक्षा करने के बजाय राज्य के स्तर पर ही पेसा की शक्तियों को क्रियान्वित करना होगा। यह निर्णय झारखंड के लिए एक संवैधानिक प्रयोग बन सकता है जो पूरे भारत में अनुसूचित क्षेत्रों के लिए एक उदाहरण होगा। 
पेसा के तहत ग्रामसभा को "सत्यापन और प्रमाणीकरण"  का अधिकार प्राप्त है। इसका अर्थ है कि यदि ग्रामसभा किसी बात को प्रमाणित करती है — जैसे, कोई परिवार सरना धर्म का अनुयायी है — तो वह प्रमाणन वैधानिक होगा। झारखंड सरकार चाहें तो राज्य के जाति-आधारित प्रमाणपत्र की तरह एक "धार्मिक पहचान प्रमाणपत्र" की प्रणाली शुरू कर सकती है जिसमें ग्रामसभा द्वारा प्रमाणित सरना अनुयायी को राज्य स्तर पर धार्मिक मान्यता दी जाए। यह प्रणाली न केवल संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करेगी बल्कि इसे आधार बनाकर केंद्र सरकार पर दबाव भी डाला जा सकता है कि वह इसे जनगणना प्रपत्र में स्थान दे।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद-25 हर नागरिक को अपने धर्म को मानने, प्रचार करने और आचरण करने की स्वतंत्रता देता है। इसमें यह नहीं कहा गया कि कोई धर्म तभी मान्य होगा जब वह किसी शास्त्र, देवता या पुरानी किताब से जुड़ा हो। यदि संविधान हर नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता देता है, तो आदिवासी समाज को सरना धर्म के नाम से पहचान पाने का अधिकार है, और उसे जबरन हिंदू या ईसाई बताना संविधान का उल्लंघन है। पेसा 1996 इसी संवैधानिक भावना की पूर्ति करता है।
राजनीतिक दल सरना धर्म को भावनात्मक मुद्दा बनाकर चुनावी लाभ लेना चाहते हैं, लेकिन इसका समाधान सिर्फ भावनाओं से नहीं बल्कि वैधानिक और संवैधानिक उपायों से निकलेगा। पेसा, ग्रामसभा की शक्ति और राज्य सरकार की इच्छाशक्ति — ये तीन स्तंभ सरना धर्म को एक विधिसम्मत धर्म कोड में बदल सकते हैं।
जन-आस्था से जन-अधिकार की ओर
झारखंड में सरना धर्म कोड केवल एक धार्मिक मांग नहीं है। यह मांग झारखंड की आदिवासी आत्मा, सांस्कृतिक विरासत और संविधान प्रदत्त अधिकारों की मांग है। पेसा 1996 और नियामावली जैसे विधिक उपायों के जरिए इस मांग को संवैधानिक और कानूनी आंदोलन में बदला जा सकता है।
यह समय है जब राज्य सरकार केवल केंद्र की प्रतीक्षा न करते हुए, अपने अधिकारों का प्रयोग करे और सरना धर्म को वैधानिक वैधता प्रदान करे। यही झारखंड की अस्मिता की सच्ची रक्षा होगी। इससे दो बड़े लाभ होंगे: पहला, सरना धर्म की पहचान न केवल भावनात्मक बल्कि कानूनी रूप से भी सुरक्षित होगी। और दूसरा कि राजनीतिक दखल और केंद्र की सहमति की अनिश्चितता से छुटकारा मिलेगा।
झारखंड जैसे राज्य, जहां पेसा लागू करने की निरंतर मांग हो रही है, सरकार का दायित्व है कि वह इस कानून का रचनात्मक उपयोग करें। ग्रामसभा को अधिकार देकर, नियमावली को मान्यता देकर और दस्तावेजीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाकर, हम एक ऐसे मॉडल की ओर बढ़ सकते हैं जहां धार्मिक पहचान सरकार की मर्जी पर नहीं, समुदाय की सहमति पर आधारित हो। अंततः, पेसा 1996 यही तो सिखाता है—सत्ता नीचे से ऊपर की ओर जाए, और सांस्कृतिक विविधता को राज्य संरक्षित करे, नियंत्रित नहीं।

(नोट- प्रस्तुत आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं, इनका द फॉलोअप से कोई लेनादेना नहीं है)


 

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