शशिभूषण
देश में इन दिनों 'हिन्दू-राष्ट्र' की चर्चा जोर पकड़ रही है। धार्मिक और राजनीतिक मंचों से भारत को हिन्दू-राष्ट्र बनाने की मांग की जा रही है। लेकिन यह आग से खेलने जैसी बात है। भारत में 80 प्रतिशत से अधिक आबादी हिन्दू है, इसलिए यह सांस्कृतिक रूप से पहले से ही हिन्दू राष्ट्र है। इसके बावजूद यदि कोई औपचारिक रूप से हिन्दू-राष्ट्र की मांग कर रहा है, तो यह एक खतरनाक साजिश है—देश को तोड़ने की।
असल में, आज जो 'हिन्दू-राष्ट्र' की परिकल्पना की जा रही है, वह आरएसएस या अन्य हिन्दू अतिवादी संगठनों की सोच से प्रेरित है। यह विचार अंततः हिन्दू समाज के भीतर असमानता और ऊँच-नीच को फिर से स्थापित करेगा। हमें नहीं भूलना चाहिए कि कट्टरपंथी हिन्दू और मुस्लिम ताकतें पहले ही देश के दो टुकड़े करवा चुकी हैं। अगली बार ऐसा हुआ तो यह कई हिस्सों में टूट सकता है। यह सिर्फ डराने वाली बात नहीं, बल्कि संभावित वास्तविकता है।
उदाहरण के लिए, पंजाब, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को देखें। 2011 की जनगणना के मुताबिक इनकी कुल आबादी 4.05 करोड़ से ज्यादा है, जिनमें हिन्दू आबादी लगभग डेढ़ करोड़ ही है—पंजाब में 38.05%, जम्मू-कश्मीर में 28.44% और लद्दाख में 35.59%। यहां सिख, मुस्लिम, बौद्ध और अन्य समुदाय बहुसंख्या में हैं। ये सभी सीमावर्ती राज्य हैं, जो पाकिस्तान और चीन से सटे हैं।
पूर्वोत्तर भारत की स्थिति भी मिलती-जुलती है। यहां केवल असम और त्रिपुरा में हिन्दू बहुसंख्यक हैं। बाकी राज्यों—अरुणाचल, मिजोरम, नागालैंड, मणिपुर और मेघालय—में हिन्दू जनसंख्या 3 से 41 प्रतिशत के बीच है। असम में मुस्लिम आबादी 34 प्रतिशत है, जो किसी भी राजनीतिक या सामाजिक परिवर्तन का निर्णायक पक्ष हो सकती है। वहीं चीन अरुणाचल में पहले से ही आंखें गड़ाए बैठा है। नागालैंड में अलग झंडे, संविधान और प्रतिनिधित्व की मांग को लेकर विद्रोही समूह सक्रिय हैं। मणिपुर की स्थिति अब पूरी तरह से नियंत्रण से बाहर है। हिन्दू और अन्य समुदायों के बीच खूनी संघर्ष चल रहा है।
पंजाब में 'खालिस्तान' की मांग अब सबसे खतरनाक मोड़ पर है। 5 मार्च, 2025 को लंदन में भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर के सामने एक खालिस्तानी समर्थक ने तिरंगा फाड़ दिया। इसी साल जेल में बंद अमृतपाल सिंह, जो खालिस्तान समर्थक माना जाता है, लोकसभा चुनाव जीत चुका है। यह सामान्य घटना नहीं है। दक्षिण भारत में केरल और लक्ष्यद्वीप अहम हैं। केरल में हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई आबादी लगभग बराबर है। वहां वामपंथी विचारधारा का भी गहरा असर है, जिससे कई हिन्दू स्वयं को नास्तिक या कम्युनिस्ट मानते हैं। वहीं लक्ष्यद्वीप में 97 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है।
भारत की कुल आबादी में भी अल्पसंख्यकों की भागीदारी महत्त्वपूर्ण है। 2011 की जनगणना के अनुसार मुस्लिम 17.22 करोड़, ईसाई 2.78 करोड़, सिख 2.08 करोड़, बौद्ध 84 लाख, जैन 44 लाख, अन्य 79 लाख और बिना धर्म वाले 28 लाख हैं। अनुमान के मुताबिक आज यह संख्या 27 करोड़ से ऊपर पहुंच चुकी है।
अगर यह पूरा अल्पसंख्यक वर्ग महात्मा गांधी के 'सत्य और अहिंसा' के रास्ते पर सामूहिक रूप से आंदोलन पर उतर आया, तो देश की आंतरिक व्यवस्था लड़खड़ा जाएगी। इतनी बड़ी संख्या को कोई सेना या पुलिस बल नहीं रोक सकता। बांग्लादेश और श्रीलंका के हालिया घटनाक्रम इस आशंका की पुष्टि करते हैं। सोवियत संघ जैसे महाशक्ति के टूटने और जर्मनी के विभाजन की ऐतिहासिक मिसालें हमारे सामने हैं।
हमें यह भी याद रखना चाहिए कि 1946 में जब कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के भारत-विभाजन के प्रस्ताव को ठुकराया था, तब ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ के तहत कोलकाता में भयंकर दंगा हुआ और हजारों लोग मारे गए। जब अलग-अलग धर्मों के लोग अलग देश की मांग करेंगे, तब सरकार भी यह कहने की स्थिति में नहीं होगी कि ये मांगें देशद्रोह हैं। और अगर यह माहौल जारी रहा, तो सिमी जैसे प्रतिबंधित संगठन या उससे भी ज़्यादा खतरनाक ताकतें फिर से उभर सकती हैं।
(लेखक शशिभूषण, जनचिंतक और पत्रकार हैं)
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