logo

अतुल सुभाष की आत्महत्या से उठते सवाल, आधी आबादी को न्याय के लिए भी उठे ऐसी ही आवाज   

atul120.jpg

शीतल झा

आजकल 2-3 दिनों से एक व्यक्ति की आत्महत्या की खबर को खूब तवज्जो दिया जा रहा है। उसकी आपबीती सोशल मीडिया पर बवाल मचा दिया है। ऐसा लग रहा है कि दिल्ली की निर्भया या कोलकाता के आरजी कर अस्पताल की निर्भया-2 के बाद देश में ये पहला निर्भय कांड है। दहेज से संबंधित क़ानून पर सवाल उठने लगे। यहां तक कि इसका शोर सर्वोच्च न्यायालय तक सुना गया। उम्मीद है इस व्यक्ति को न्याय मिलेगा। 

आज के आधुनिक दुनिया में जहां भारत की पहुंच मंगल/चंद्रमा तक है, उसके समाज में अगर अपनी नज़र सही से दौड़ाया जाये तो कई निर्भया मिल जायेंगी और शायद निर्भय जैसे एक भी नहीं। इसलिये इक्के दुक्के घटनाओं से पूरे महिला समाज पर उंगली उठाने से पहले नज़र तीन सौ साठ अंश घुमा कर देख लेना चाहिये। कोई भी क़ानून परफ़ेक्ट नहीं होता। पर जैसे-जैसे समाज विकसित होता है वैसे-वैसे क़ानून और नज़रिये में बदलाव आते रहते हैं। और होना भी चाहिये। 

पितृप्रधान समाज में एक भी चूक होने से अतुल सुभाष जैसे मामलों को बेधड़क तूल दी जाती है। देश,राज्य,शहर,जिला,गांव के हर कोने-कोने से कोई न कोई महिला के साथ ऐसा बर्ताव हो रहा है। पर क्या सभी की खबर हम सब तक पहुंच पाती है। ये सोचने वाली बात है। दहेज/घरेलूहिंसा/बलात्क़र के सभी कांड मीडिया में छपने लगे तो शायद अख़बार के लिये 50 पन्ने भी कम पड़ जाये और सोशल मीडिया में और कोई खबर ही न दिखे। इन सब के अलावा झारखंड जैसे राज्य में डायन कुप्रथा भी प्रचलित है। इसकी दास्तां अगर सोशल मिडिया पर इतनी सिद्दत से बयाँ की जाये तो रोंगटे खड़े हो जाएँगे। इसलिये कहते है कि कुछ की छप जाती है तो कुछ की छिप जाती है।

इसलिये जब महिला सुरक्षा से संबंधित क़ानून की ख़ामियो पर प्रश्न उठे तो ये भी देखना चाहिये कि क़ानून को और कैसे मज़बूत किया जाये। ताकि पीड़ित माहिला को समय पर न्याय मिले। अभी भी बलात्कार से जुड़े अपराध में सजा ( कनविक्शन) दर 3 प्रतिशत है। उसी प्रकार दहेज के मामलों में ये दर लगभग 15 प्रतिशत से भी कम है। घरेलू हिंसा और अन्य क़ानून को अगर जोड़ के देखा जाये तो भी सजा का दर बहुत कम है। इसके लिये कई कारण हो सकते हैं। पर सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि समाज में अभी भी इन सब क़ानून को लेकर भय नहीं है। समाज में “चलता है” कल्चर के कारण समाज में अभी भी इसको लेकर एकजुटता नहीं है। 

एक घटना से अगर महिला संबंधित क़ानून के दुरूपयोग पर सवाल उठ जाते हैं तो ये भी मंथन करना चाहिये की दहेज/बलात्कार/घरेलू हिंसा और अन्य महिला सुरक्षा के लिये बने क़ानून में सजा दर इतनी कम क्यों है। क्यों लोग बरी हो जाते हैं। क़ानून की ख़ामियो को कैसे दूर किया जाये। पीड़ित को मूआवजा के नाम पर चंद पैसे न देकर शीघ्र न्याय कैसे दी जाये। आरोपी की ज़मानत को पीएमएलए के तर्ज  पर क्यों न लाया जाये। पुलिस जांच को  न्यूनतम समय में और सटीक कैसे किया जाये। फ़ॉरेन्सिक व्यवस्था को और सुदृढ़ कैसे बनाया जाये। प्रत्येक जिला में महिला संबंधित अपराध के लिये विशेष न्यायालय, जिसमें महिला जज हो, क्यों न बनाया जाये। उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में महिला जज की संख्या क्यों न बढ़ायी जाये। जबतक ऐसे कई सवालों के जवाब नहीं मिलते हैं तबतक महिला संबंधित अपराध के रोकथाम वाले क़ानून के दुरुपयोग पर प्रश्नचिन्ह लगते रहेंगे और ये क़तई लाज़मी नहीं है।

भारत देश भले ही लोकतांत्रिक हो गया है, भले ही महिलाओं को पहले दिन से मतदान का समान अधिकार मिला। पर समाज और परिवार अभी भी लोकतांत्रिक प्रयास से दूर हैं। घर-समाज का समानता की परछाई से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है। शिक्षा से लेकर पारिवारिक निर्णय लेने में सहभागिता से लेकर आर्थिक स्वतंत्रता में महिला-समाज को अभी काफ़ी लंबा सफ़र करना है। और जबतक ये सफ़र जारी है और देश की आधी आबादी की सुरक्षा और विकास का मुद्दा ज्वलंत है। इस तरह की  खबर से किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाज़ी होगी।

(शीतल झा निलंबित IAS छवि रंजन की पत्नी हैं और ये लेखिका के अपने विचार हैं। इसका द फॉलोअप से कोई लेना-देना नहीं है)


 

Tags - Atul Subhashs National News National News Update National News live Country News