logo

Bihar News : अश्लीलता के शोरगुल ने ली फगुआ गीत की जगह, समय के साथ बदल गई होली

WhatsApp_Image_2022-03-16_at_17_25_55.jpeg


बिहार :
होली भी बदलाव से अछूता नहीं रहा है। जैसे बाकी पर्व भी धीरे-धीरे आधुनिक ज़माने के साथ बदल रहे हैं वैसे ही होली का भी पारंपरिक अस्तित्व धूमिल होता जा रहा है। मालूम हो कि वसंत पंचमी से ही लोग होली खेलना शरू कर देते हैं। होली चारों ओर ख़ुशी बिखेर देता है। कोयल की आवाज़ और हवाएं पूरे वातावरण को खुशनुमा बना देते हैं। होली में लोग बुरा न मानों होली है बोल कर दुश्मनों से भी गले लगा लेते हैं। 

आधुनिकता के कारन विलुप्त हो रही हैं परम्पराएं 
आपको मालूम हो कि लोग आधुनिकता के नाम पर अपनी परंपरायें, संस्कृति और रीति-रिवाजों को भूलते चले जा रहे हैं। होली आने से पहले ही लोग फगुआ के गीत और हंसी-ठिठोली और वह उल्लास का माहौल विलुप्त है। आज- कल होली भी लोग नाम मात्र के लिए बहुत ही व्यवस्थित तरीके से खेलते हैं। पहले जिस तरीके से फाग के बोल सुनाई देते  थे और युवा हुड़दंग मचाते थे वो सभी अब गायब हो गया है। 

संस्कृति और परंपराओं को बचाना बेहद जरुरी
होली के रंग, फगुआ गीत, गुजिया, पापड़, चिप्स बनाने के साथ सुरीले कंठ से आंगन में फगुआ के गीत गातीं महिलाएं जैसे नजारों को आधुनिकता ने चौपट कर दिया है। इस संबंध में कई बुद्धिजीवियों का कहना है कि अपनी संस्कृति और परंपराओं को बचाना है तो हमें गांवों को बचाना होगा।

होली पर क्या कहते हैं बूढ़े-बुजुर्ग
बुजुर्गों का कहना है कि हमारे जमाने में होली का काफी महत्व था, अपनी परंपरा थी। होली से समाज में भाईचारा और प्रेम बना रहता था। सभी लोग एक जगह एकत्र होकर फगुआ के गीत गाते थे। वहीं आपस में कोई भेदभाव नहीं रहता था। हमारे समय में होली पूरे हर्षो-उल्लास के साथ बनाया जाता था। हमे अपनी परंपराओं को नहीं भूलनी चाहिए। 

वहीं एक बुजुर्ग कहते हैं कि उस समय समाज में काफी एकता होती थी। सभी एक दूसरे का सम्मान करते थे। यदि किसी को मनमुटाव भी है तो होली आते ही सब भेदभाव को भूल कर, आपस में एक हो जाते थे। सभी मिलकर फगुवा गीत गाते थे। आपसी प्रेम देखते ही बनता था। परंपराएं समाज की आधार होती हैं।