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सामयिक : छठ के बहाने पारंपरिक लोकगीतों में लड़कियों के स्वर कितने मुखर

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निराला बिदेसिया, रांची:

छठ के गीतों में बेटी की कामना के स्वर परांपरागत तौर पर मिलते हैं। विंध्यावासिनी देवी का तो लोकप्रिय छठ गीत ही था-रुनुकी झुनुकी के बेटी मांगीला। शारदा सिन्हा जी ने गाया- हमरो जे बेटिया, कवन अस बेटिया, उनके लागी...पारंपरिक गीत है- पांच पुत्तर अन धन लछमी। असल बात यह है कि लोकगायन की जो भी विधा  पारंपरिक होगी, उसमें बेटी या स्त्री को माइनस कर सोच ही नहीं सकते। चाहे वह सोहर हो, कजरी हो या छठ गीत ही क्यों न हो।  विवाह के गीतों में तो परिधि और केंद्र, दोनों महिलाएं ही होती हैं।  असल में अपने यहां बेटियां और महिलाएँ  ही आधार रही हैं पारंपरिक लोकगीतों की। इसलिए बार बार आग्रह रहता है कि इतिहास को जरूर जानें। लोक साहित्य, लोक संगीत, लोक संस्कृति में चतुर समझदार लोग पहली कोशिश इतिहास मिटाने की करते हैं। इतिहास के मिटने से या नेपथ्य में जाने से उन्हें अपने नायकत्व को उभारने, चमकाने,स्थापित करने में सहूलियत होती है।

 

लोकगीतों की लड़कियां लाचार होती हैं!!

पारंपरिक गीत-1
रूनझुल खोलअ ना हो केवड़िया...
इस गीत में एक लड़की की शादी होती है। शादी के बाद वह ससुराल आती है। पति कुछ ही दिन बाद कहता है कि तुम घर पर ही रहो। यहीं पर. मैं बाहर जा रहा हूं। कमाने। अकेले। लड़की कहती है कि मैं अकेले यहां क्या करूंगी। मुझे मायके भेज दो। लड़का कहता है कि तुम मायके जाओगी तो फिर जितना पैसा तुमसे व्याह करने में खर्च हुआ, वह दे कर जाओ मायके. हमेशा हमेशा के लिए। लड़की कहती है— ठीक है पैसा देती हूं पर, मैं जिस हाल में अपने मायके से आयी थी, उसी हाल में भेजो.लड़का निरूत्तर।

पारंपरिक गीत-2
काहे के माई सेजिया जाये...
एक लड़की की शादी होनेवाली है. मंडप सज गया है। लड़की मंडप के पास खड़ी है। वह पूछती है अपने पिता से ​कि काहे व्याह कर रहे हो, जरा बताओ। लड़की फिर अगला सवाल कहती है कि यह भी बता दो कि विवाह के बााद पुरुष के साथ ही क्यों सोना पड़ता है? मां तेरे साथ ही क्यों सोती है? बहुत सहज सवाल है. एक नाबालिग लड़की इनोसेंटली सवाल पूछती है। यह सवाल पारंपरिक गीत में है।

पारंपरिक गीत-3
आज सुहाग के रात...
यह सुहाग ग़ीत है। लड़की की ज​ब शादी होती है तब महिलाएं सामूहिक स्वर में गाती हैं। लड़का और लड़की के पहली मिलन की रात वाली शाम को गीत गाया जाता है। मौसी,फुआ, मामी, काकी सब मिलकर गाती हैं.कहती हैं कि आज मेरी बेटी की सुहाग की रात है. आज रात जरा लंबी हो तो ठीक. चंद्रमा से कहती हैं महिलाएं कि तुम ही आज उगना. सुरज से कहती हैं कि कल सुबह जरा विलंब से उगना। मुरगे को कहती हैं कि सुबह जरा लेट से बोलना. आज मेरी बेटी की सुहाग का रात है।

 

 

 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। प्रभात खबर और तहलका में सेवारत रहे। इन दिनों स्वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।