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विवेक का स्‍वामी-1:  विवेकानंद की दुनिया और हिन्दुत्व

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कनक तिवारी, रायपुर:

यह सर्वमान्य है कि राजा राममोहन राॅय ने उन्नीसवीं सदी के नवयुग का औपचारिक श्रीगणेश किया। राममोहन राॅय भारतीय नवोदय के अरुणोदय कहे जाते हैं। हालांकि उनके एजेण्डा और मैदानी रणनीति में जद्दोजहद करता व्यक्तित्व नहीं दिखाई देता जिसका क्लाइमैक्स आखिरकार विवेकानन्द में हुआ। इतिहास का पहला चरण यात्रा की मंजिल पर नहीं पहुंचता। सतीप्रथा का विरोध तथा धार्मिक सुधारों का बीड़ा उठाने पर भी राममोहन राॅय कुलीन भारतीयों के सक्रिय, सजग, नफासत वाले प्रतिनिधि से ज्यादा मर्तबा हासिल नहीं कर पाए। उनक युग में बच्चों के दुधमुंहे दांतों की तरह अहिंसक लेकिन दिखाऊ उपस्थिति इतिहास का तेवर लगती रही है। जीवन भर चबाने का हौसला देने वाले भारत के यौवन के दांत उगे। तब उन पर विवेकानन्द का नाम खुदा था। मध्यवर्ग को एक उत्साहमय उग्र समूह में तब्दील करने का मनोवैज्ञानिक जोखिम विवेकानन्द ने ही उठाया। भारत का मजदूर वर्ग विशेष पहचान के रूप में इतिहास में अपनी पक्षधरता के साथ तब तक उपस्थित नहीं हो पाया था। विवेकानन्द इस अभूतपूर्व भौतिक विचार के भी प्रवर्तक थे लेकिन शिल्पज्ञ नहीं बन सके। शायद विवेकानन्द अनुकूल वक्त के पहले पैदा हो गए थे। 

 

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हैडिलबर्ग विश्वविद्यालय (जर्मनी) के दक्षिण एशिया संस्थान द्वारा आयोजित व्याख्यान में शीर्ष हिन्दी लेखक निर्मल वर्मा ने कहा है, ‘थोड़ी अतिरंजना के साथ विवेकानन्द ने बड़े ही जीवंत ढंग से औसत भारतीय की अपने उन गोरे शासकों के विषय में बनाई राय को प्रस्तुत किया है जो ‘‘हाल ही में पाई प्रभुता के मद में चूर थे, जंगली जानवरों जैसे भयाक्रांत जो अच्छे और बुरे के बीच भेद नहीं करते, औरतों के दास, अपनी लोलुपता में पागल, सिर से पांव तक शराब में डूबे हुए, जिनके पास कोई आचार-संहिता नहीं, गंदे, भौतिकवादी, दूसरों के राज्य और दौलत को किसी भी तरह हथियाने वाले, और जिन्हें अगले जीवन में कोई आस्था नहीं।‘ इस सिलसिले में स्वामी दयानन्द सरस्वती की याद आवश्यक है। उन्होंने उन्नीसवीं सदी में इस्लाम और ईसाइयत के विजयी दीखते तेवरों के मुकाबले हिन्दुइज़्म के शाश्वत तत्वों का बौद्धिक अस्त्र अपनी तार्किक यौद्धिक कला के लिए इस्तेमाल किया। दयानन्द यूरोप जाकर वैदिक धर्म संस्कृति का प्रचार करने को प्रतिबद्ध थे। कम उम्र में मृत्यु होने से वह सांस्कृतिक संकल्प नष्ट हो गया। शायद समय की भी यह मंशा रही हो कि वह ऐसे प्रकल्प के लिए बंगाल के एक नवयुवक को चुनेगा जो इतिहास की इस कशिश को सफल बना दे। बंगाल सहित भारत में देवेन्द्रनाथ टैगोर, केशवचन्द्र सेन, श्रीरामकृष्ण देव, सर सैयद अहमद, स्वामी दयानन्द सरस्वती, महादेव गोविन्द रानाडे, महर्षि अरविन्द घोष, लोकमान्य तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले और स्वामी विवेकानन्द आदि में ‘भारत तत्व‘ व्याकुल हो उठा था। वह फकत अतीतजीवी नहीं, अपने समय के साथ समाजवैज्ञानिक मुठभेड़ करना चाहता था। 

 

नवजागरण के सांस्कृतिक दौर का मुख्य मकसद केवल पश्चिम का प्रतिरोध नहीं था। वह साथ साथ प्रचलित देशज मूल्यों की दुबारा खोज और संशोधन के साथ उनकी शाश्वत स्थापना के आग्रह को लेकर भी था। इस प्रक्रिया की अन्दरूनी और बाहरी हलचलों में विवेकानन्द का योगदान सबसे महत्वपूर्ण बनता गया था। उनके विचार दर्शन में सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ता, उतरता क्रमिक विकास भी साफ साफ दिखाई देता है। उनके वक्त बंगाल में क्रान्तिकारी दलों का अभ्युदय हुआ और बम उनके स्वाभाविक हथियारों में था। रोमां रोला ने विवेकानन्द की याद में अपनी देह में बिजली के झटके की तरह रोमांच पाए बिना मैं उनके इन वचनों को, जो तीस वर्ष पूर्व लिखी गई पुस्तकों के पृष्ठों पर बिखरे पड़े हैं, छू नहीं सकता। और कैसे बवंडर एवं तूफान उठे होंगे, जब वे ज्वलन्त शब्द उस नायक के होठों से प्रस्फुटित हुए होंगे!‘ विवेकानन्द के नववेदान्तवाद ने राष्ट्रवाद की धमनियों में एक उदात्त आदर्शवादिता को इंजेक्ट किया। उसके बिना बेहतर हालतों में रहने वाले अंगरेजों को बौद्धिक हिकमतों में हरा पाना मुमकिन नहीं था। लाला लाजपत राय की राय में विवेकानन्द ने राष्ट्रीय सहनशीलता और वैज्ञानिक समझ की वैचारिकता बुलन्द की। महात्मा गांधी का आत्मस्वीकार है कि विवेकानन्द की किताबों को पढ़कर उनकी देशभक्ति में इज़ाफा हुआ। गांधी के ‘अंग्रेज़ों! भारत छोड़ो‘ के आह्वान की पृष्ठभूमि में विवेकानंद का नारा ‘उत्तिष्ठत, जाग्रत प्राप्य वरान्रबोधत‘ गूंजता रहा है। 

 

अपने समकालीन युवा क्रान्तिकारियों से संवाद या सहकार विवेकानन्द का रहा है। क्रान्तिकारी दल के दफ्तर और कई सदस्यों के निवास पर पुलिसिया छापा मारे जाने से विवेकानन्द की किताबें अमूमन मिलती ही मिलती थीं। इसलिए उनके द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन को एक अवैध संगठन भी घोषित किया गया। साधु के वेश में गतिशील ऊर्जा और देशभक्ति का जज़्बा लिए विवेकानन्द इतिहास के कुतुबनुमा बनते गए। उन्होंने तवारीख को झील या तालाब के ठहरे हुए जल के बदले नदी की बहती धारा की तरह समझाया। इस्लाम से ज़्यादा ब्रिटिश हुकूमत ने अपनी संस्कृति भारतीयों में रोपी। स्वामी जी की समझ के अनुसार अंग्रेज़ों ने सबसे ज़्यादा भारतीय मानस को अराष्ट्रीयकृत किया। उन्होंने भारतीय मस्तिष्क पर ही बौद्धिक फतह हासिल की। ताज़ा पछुआ हवा के झोंके की तरह विवेकानन्द पश्चिम की यात्रा से लौटकर देशवासियों को झकझोरने तथा उनमें आत्मविश्वास पैदा करने के लिए आए। अन्य समकालीनों के मुकाबले विवेकानन्द इतिहास को उसकी गुणात्मकता और अर्थमयता के साथ एक शाश्वत प्रक्रिया के रूप में समझने में समर्थ रहे।  उन्होंने कहा था जिस समय का इतिहास में कोई लेखा नहीं है, जिस सुदूर धुंधले अतीत की ओर झांकने का साहस परम्परा को भी नहीं होता, उस काल से लेकर अब तक न जाने कितने ही भाव एक के बाद एक भारत में पैदा हुए हैं। उनका हर शब्द आगे शान्ति तथा पीछे आशीर्वाद के साथ कहा गया है। संसार के सभी देशों में केवल हमारे ही देश ने लड़ाई झगड़ा करके किसी अन्य देश को पराजित नहीं किया है। इसका शुभ आशीर्वाद हमारे साथ है और इसी से हम अब तक जीवित हैं।‘ (वि0सा0, 5/5)।

( जारी )

(स्‍वामी विवेकानंद के अहम जानकार लेखक रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।