द फॉलोअप डेस्क
फिलहाल सरना धर्म कोड को लेकर झारखंड में राजनीति उफान पर है। झामुमो और कांग्रेस ने इस मुद्दे पर झारखंड में राजनीतिक तूफान पैदा करने का बीड़ा उठा लिया है। इसी कारण जातीय जनगणना और पेसा को पीछे छोड़ इन दोनों ही दलों ने सरना धर्म कोड को राजनीतिक मुद्दा बनाया है। भाजपा भी पीछे नहीं है। वह पैसा को हथियार बनाने की ठानी है। कुल मिला कर झारखंड में सरना धर्म कोड, पैसा और जातीय जनगणना राजनीति का केंद्र बिंदु बन गया है। झामुमो और कांग्रेसी कार्यकर्ता सड़क पर उतर रहे हैं। धरना और प्रदर्शन कर रहे हैं। भाजपा फिलहाल प्रेस कंफ्रेंस के माध्यम से अपना संदेश दे रही है। लेकिन सच यह है कि इन तीनों ही मुद्दों पर तीनों ही दलों के दामन हमेशा दागदार रहे हैं।
कांग्रेस पर आरोप है कि आजादी के बाद उसने जनगणना में आदिवासियों के लिए रहे कॉलम को हटा दिया। 1941 तक आदिवासियों के लिए जनगणना में कॉलम था। लेकिन आजादी के बाद हुई पहली जनगणना में आदिवासियों के लिए कॉलम हटा दिया गया। बीच बीच में कार्तिक उरांव सरीखे नेताओं ने आदिवासियों के लिए अलग कॉलम की मांग की। कांग्रेस दशकों देश की सत्ता पर काबिज रही। लेकिन जनगणना में आदिवासियों के लिए कोई कॉलम का प्रावधान नहीं किया गया। आदिवासियों की अलग पहचान को कायम नहीं होने दिया। भाजपा तो शुरू से ही आदिवासियों को हिंदू धर्म का ही एक पंथ मानती रही है। आरएसएस इसके लिए काफी सिद्दत से काम करता रहा है। बात झामुमो की आती है तो उसका भी सरना धर्म कोड के मुद्दे पर दामन दागदार ही रहा। झामुमो ने कभी सरना धर्म कोड के मुद्दे को उस तरह इश्यू नहीं बनाया जब जब केंद्र में यूपीए या कांग्रेस की सरकार रही। लेकिन केंद्र में भाजपा की सरकार के होने के पर सरना धर्म कोड के मसले को वह हवा दे रहा है।
जातीय जनगणना और पेसा
जातीय जनगणना और पेसा के मुद्दे पर भी अलग अलग डफली और अलग अलग राग है। भाजपा ने अब इस मुद्दे को जोड़ से पकड़ा है। पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास ने आज प्रेस कंफ्रेंस के माध्यम से पेसा पर पार्टी का नजरिया साफ कर दिया है। उन्होंने हेमंत सोरेन सरकार पर पेसा लागू नहीं कर आदिवासी विरोधी होने का आरोप लगाया है। पेसा के मुद्दे पर भाजपा शिड्युल एरिया में आदिवासी, मुसलिम और ईसाई के गठजोड़ को समाप्त करना चाहती है। झामुमो के इस संगठित वोट बैंक में दरार पैदा करना चाहती है। भाजपा का तर्क है कि पेसा आदिवासी हितों के लिए संसद से बनाया गया कानून है। इस कानून के माध्यम से आदिवासियों की परंपरा, संस्कृति और परंपरागत स्वशासन व्यवस्था को मजबूती दी गयी है। लेकिन हेमंत सोरेन की सरकार पेसा नियमावली को लटकाए रख कर ग्रामीण इलाकों में आदिवासियों को मजबूत होने नहीं देना चाहती है। कल बाबूलाल मरांडी ने सरना धर्म कोड को लेकर हेमंत सोरेन सरकार पर बड़ा हमला बोला था। उन्होंने आंकड़े में गिनाया था कि 2011 की जनगणना के आधार पर आदिवासियों का एक बड़ा समूह ईसाई बन चुका है। आदिवासियों की जनसंख्या घटती जा रही है। पहले आदिवासियों को संरक्षित और बचाने की जरूरत है। फिर सरना धर्म कोड को लागू करने की। हालांकि झामुमो ने उनके 2018 के एक पत्र को सोशल मीडिया पर डाल कर पूछा है कि उस समय वे सरना धर्म कोड लागू करने के हिमायती थे। आज पलटी क्यों मार रहे हैं। मतलब चारो ओर राजनीति ही हो रही है।
जनगणना शुरू हुई तो सुरक्षित सीटों का मुद्दा जोर पकड़ेगा
राजनीति के धुरंधरों का कहना है कि झामुमो के रणनीतिकार जातीय जनगणना को दबाने के लिए ही सरना धर्म कोड के मुद्दे को ऊपर उठा रहे हैं। क्योंकि जनगणना में इस बार झारखंड में आदिवासियों की जनसंख्या में भारी कमी आने की संभावना है। जनसंख्या में कमी का सीधा असर आदिवासियों के लिए झारखंड में सुरक्षित विधानसभा व लोकसभा की सीटों पर पड़ेगा। फिर सुरक्षित सीटों की संख्या में होनेवाली कमी भी झारखंड में राजनीति का मुद्दा बनेगी। इस पर भी पक्ष और विपक्ष का वार-प्रति होना सुनिश्चित है। इसीलिए झामुमो अभी से सरना धर्म कोड पर भाजपा को घेर कर जातीय जनगणना के मुद्दे को गौन रखना चाहती है।