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बापू-बाबा-2: गांधी और आंबेडकर के बीच जब हुआ पूना समझौता

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कुमार प्रशांत, दिल्ली:

पहली कड़ी में मैंने आपको बताया था कि द्वितीय गोलमेज कॉन्फ्रेंस के बाद 16 अगस्त 1932 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री रेम्मजे मैक्डोनल्ड ने साम्र्पदायिक पंचाट  (कम्युनल अवार्ड) की घोषणा की जिसमें दलितों सहित 11 समुदायों को पृथक निर्वाचक मंडल प्रदान किया गया। इसके बाद वायसराय ने बाकायदा कानून की शक्ल में प्रथक निर्वाचन (सेपरेट एलेक्ट्रोरेट) की अधिसूचना जारी कर दी। गांधीजी ने वायसराय को कड़ा पत्र लिखा कि मैंने गोलमेज कॉन्फ्रेंस के दौरान ही अंग्रेज सरकार के समक्ष आपत्ति की थी कि मैं अपने जीते जी अंग्रेजो की इस चाल को सफल होने नहीं दूंगा। जब अंग्रेज सरकार व वायसराय ने गांधीजी के पत्र पर कोई ध्यान नहीं दिया तो गांधी ने इसके विरोध में यरवदा (पूना) जेल में 18 अगस्त, 1932 को  घोषणा की क़ि वे आगामी 20 सितम्बर, 1932 से आमरण अनशन पर चले जायेंगे।  गांधी का कहना था कि अंग्रेजों ने फूट डालने की ये कुटिल चाल चली है इससे भारतीय समाज विघटित हो जाएगा।  

गांधीजी के सामने लड़ाई के तीन मोर्चे थे। एक मोर्चा जिसमें वे देश की आजादी के लिए अंग्रेजों से लड़ रहे हैं,  दूसरा मोर्चा है जिसमें वे सांप्रदायिकता के कारण बढ़ते हुए खतरे से  लड़ रहे हैं और तीसरे मोर्चे पर वे अस्पृश्यता के मुद्दे पर सनातनी हिंदुओं से लड़ रहे हैं। एक तरफ देश की एकता को रखते हुए आजादी पानी है दूसरी तरफ जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग के द्वारा भारत के मुसलमानों को भड़काने से रोकना है  तीसरी चुनौती अम्बेडकर के रूप में थी जो  प्रथक निर्वाचन की मांग पर अडिग थे। गांधी तीनों मोर्चों पर एक साथ लड़ते हैं। ऐसा गांधी के साथ पहली बार नहीं हो रहा था। गांधी के साथ पूरे जीवन ऐसा ही होता रहा था। हर आदमी जो उनसे असहमत होता था उनकी लीडरशिप को चुनौती देने सामने आता था और  वह चाहता था कि गांधी खुद उसे मान्य करें। यानी गांधी को रिजेक्ट करने के लिए खुद गांधी का एप्रूवल चाहिए। गांधी अपने से हर असहमत व्यक्ति के सामने अपनी बात इतने प्रभावी तरीके से रखते हैं कि सामने वाला निरुत्तर हो जाये। 

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गांधीजी 20 सितंबर 1932 को यरवदा जेल में अपना आमरण अनशन प्रारम्भ करते हैं। 21 सितंबर से डॉ आंबेडकर के घर के सामने प्रदर्शन होने लगते हैं। लेकिन अंबेडकर अपनी मांग पर अड़े रहते हैं। अम्बेडकर को पूरा भरोसा था कि इस मुद्दे पर उन्हें दलितों के साथ साथ मुस्लिम लीग का समर्थन मिलेगा। गांधीजी के अनशन से पूरे देश में हाहाकार मच जाता है। गांधी के अनशन पर पहली प्रतिक्रिया याकूब हुसैन  की आती है जो मद्रास मुस्लिम लीग के अध्यक्ष थे। वे एक वक्तव्य जारी कर कहते हैं कि ये जो विवाद चल रहा है उसमें मेरा कहना यह है कि भारत की आजादी की जंग जब से शुरू हुई है तब से महात्मा गांधी को  पूरा देश अपना एकमात्र नेता मानता है। वे  कहते हैं कि जिन्ना  के नेतृत्व में जो मुस्लिम  लीडरशिप उभरी है वह महात्मा गांधी के सामने बहुत बौनी है। और इस नाजुक घड़ी में हम गांधीजी के साथ खड़े हैं। इसलिए हम डॉ अम्बेडकर से अपील करते हैं कि इस समय वे महात्मा गांधी के प्राणों  की रक्षा करें। 

दूसरी प्रतिक्रिया घनश्यामदास बिड़ला की ओर से आती है। वे कहते हैं कि इस मुद्दे पर डॉ आंबेडकर को गांधीजी के साथ बैठकर चर्चा करनी चाहिए और कोई हल निकालना चाहिए। डॉ राजेन्द्र प्रसाद, मदनमोहन मालवीय डॉ आंबेडकर घनश्यामदास बिड़ला के घर पर बैठते हैं और अंततः चौतरफा दवाब में ड़ॉ अंबेडकर अपने साथियों के साथ 24 सितंबर को यरवदा जेल में प्रवेश करते हैं। वहां गांधीजी और। बाबा साहब के बीच जो वार्तालाप हुआ उसे हमें बड़े आदर और गंभीरता से समझना चाहिए। इसे पक्ष विपक्ष नहीं बनाना चाहिए। यह हमारे लिए उस दौर को जानने का एक तालीमी लम्हा है। 

 

यरवदा जेल में अनशन पर बैठे गांधीजी से डॉ अम्बेडकर कहते हैं कि आपने  हमारे साथ हमेशा अन्याय किया है और आज भी यही कर रहे हैं। गांधी कहते हैं कि यह मेरा दुर्भाग्य है कि पहली नजर में मैं सभी को ऐसा ही लगता हूँ। अंबेडकर कहते हैं कि आपने कांग्रेस के उन सदस्यों को पार्टी से निष्कासित क्यों नहीं किया जो दलितों के मंदिर प्रवेश का विरोध करते हैं। गांधीजी अम्बेडकर के सामने  अस्पृश्यता के सवाल को एक बहुत बड़े कलेवर में रखते हैं कि जाति सवर्णों के दिमाग में बसी हुई है इसलिए असली लड़ाई यहां लड़नी है। और मैं तुम्हारे इस विचार से सहमत हूँ। अम्बेडकर कहते हैं कि हमारी यह समस्या हिन्दू समाज में से बाहर निकल जाने से हल हो जाएगी। गांधी अम्बेडकर को समझाते हैं कि इस तरह से समाज  नहीं बनते है। इस समस्या को  टुकड़े करने से नहीं समग्र रूप से इसका रास्ता खोजना होगा। गांधीजी कहते हैं कि इस सम्पूर्ण संसार में अस्पृश्यता से बुरा कुछ भी नहीं है। मेरे जीवन के लिए यह एक बोझ होगा अगर हिंदू सवर्णवाद ने मुझे हरा दिया किंतु मैं अश्पृश्यता के सामने इसे बर्दाश्त नहीं करूंगा।

अम्बेडकर मानते थे कि जाति को हथियार बनाकर लड़ाई लड़ी जा सकती है। गांधी कहते हैं कि जाति को हथियार बनाओगे तो गांव गांव में लड़ाई हो जाएगी। अम्बेडकर कहते हैं इस लड़ाई में से हमारा स्वाभिमान जगेगा। गांधी कहते हैं इससे दलितों का शोषण और भीषण हो जाएगा। क्योंकि संख्या में ज्यादा होने के वाबजूद साधन सवर्णों पर कहीं अधिक हैं। अम्बेडकर कहते हैं कि इसमें से एक Reaction पैदा होगा। गांधी कहते हैं कि इससे Repression पैदा होगा। आप दोनों महानुभावों के नजरिये और तर्क के फर्क को देखिए। गांधी अम्बेडकर को समझाते हैं कि मैं सुरक्षित सीटों की ऐसी व्यवस्था करूँगा कि तुम संख्या में अधिक हो तो पूरा देश तुम्हारे हाथ में ही रहे। मैं सिर्फ सेपरेट एलेक्टोरेट का विरोध कर रहा हूँ क्योंकि उससे तुमको मिलेगा कुछ नहीं सिर्फ अशांति होगी। पूना पैक्ट की बातचीत चार दिन चली। चार दिन बाद  बेमन से रोते हुए पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर किए।

 

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पूना पेक्ट के बाद सवर्ण और दलित दोनों पक्ष करार से बाहर निकल जाते हैं। डॉ आंबेडकर खुद उस करार से बाहर निकल जाते हैं और पूरे देश में हरिजन उद्धार की बात करते हैं। वे समझौते से तो निकल जाते हैं पर जो इस समझौते से दलितों को जो मिला  जो सीटें मिलीं उन्हें अपने पास रखते हैं।  सवर्णों ने पेक्ट से पहले जो कहा था कि हम लोग हम अश्पृश्यता को समाज से हटाएंगे वे भी अपनी बात से पीछे हट जाते हैं। पूना पैक्ट से बंधे सिर्फ गांधी ही रहते हैं। गांधी कहते हैं कि जो पैक्ट हुआ है मेरे और अम्बेडकर के बीच मेरे लिए तो वह विश्वास का प्रतीक है। मैं इससे पीछे नहीं हटूंगा इसके लिए काम करता रहूंगा। पूना पेक्ट एक तरह से देश को एक सूत्र में बांधने हेतु महात्मा गांधी का डॉ आंबेडकर को यह पक्का वादा था कि भारत में जो विधायिका बनने वाली है उसमें कुछ सीटें दलित समुदाय के लिए आरक्षित की जाएंगी। यानी कि उन्हें ये गारंटी दी जाएगी कि आपको शामिल किया जाएगा। गांधीजी सहित सभी शीर्ष नेताओं का मानना था कि- हमारा समाज सहज रूप से जबर्दस्ती बहुत बड़े तबके को बहिष्कृत करता रहा है। इस वजह से जोर जबर्दस्ती जिसका बहिष्कार किया गया है, इसकी काट तो जोर जबरदस्ती से उनको शामिल करके ही मिल सकती है।

पूना पेक्ट के रूप में यही गांधीजी का दलितों को स्पष्ट वादा है जो  कानून की शक्ल में 1932 में बना। इसके बाद 1935 में जो Government of India act बना उसमें इसकी औपचारिक शुरुआत होती है कि दलित समुदाय को पूर्ण सदस्यता की कोई गारंटी दी जाय। इस तरह से आरक्षण का आविष्कार हुआ। अगर पूना पैक्ट अगर नहीं हुआ होता और उसमें जो कुछ भी दलित समाज को और पूरे भारतीय समाज को मिला, अगर वो नहीं हुआ होता तो आज राजनीति में दलितों की जो जगह मिली वह नहीं मिलती। दलितों के जो स्थापित नेता हैं उनमें से किसी का भी कहीं अस्तित्व नहीं होता। एक पूना पैक्ट ने इतनी सारी संभावनाओं के दरवाजे खोल दिये। दलित समाज इतना प्रभुत्व पाकर खड़ा है इसके पीछे अगर किसी एक आदमी की रणनीति ने कामकिया था तो उस आदमी का नाम था महात्मा गांधी। 

समाप्त

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(गांधीवादी लेखक कुमार प्रशांतगांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं। )

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।