देश लोगों से बनता है। कथक सम्राट पडित बिरजू महाराज ऐसे ही भारत निर्माता थे। नृत्य के अलावा शास्त्रीय गायन में भी उनकी भूमिका स्वर्णिम रही है। 4 फरवरी 1938 को लखनऊ में जन्मे पंडित बिरजू महाराज ने करीब 83 साल की उम्र में आज तड़के नई दिल्ली में अंतिम सांस ली। उनकी पोती रागिनी महाराज के बक़ौल पिछले एक महीने से उनका इलाज चल रहा था। बीती रात उन्होंने मेरे हाथों से खाना खाया। मैंने कॉफी भी पिलाई। इसी बीच उन्हें सांस लेने में तक़लीफ हुई। हम उन्हें अस्पताल ले गए, लेकिन उन्हें बचाया ना जा सका। उनका रांची से बरसों पुराना नाता रहा।सम्भवत 2017 की बात है। धारित्री के आयोजन में शिरकत करने महाराज अंतिम बार आये थे। रेडिसन में उनसे मिलना-बतियाना हुआ था। द फॉलोअप परिवार विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता है। पढ़िये यादगार संस्मरण।
महज़ छह साल के बच्चे की लय और ताल देख चकित रह गए थे लोग
संजय कृष्ण, रांची:
बिरजू महाराज यान भारतीय शास्त्रीय गीत-संगीत और नृत्य का एक युग। ऐसा दौर जिसके साथ देश भी परवान चढ़ता रहा। उनसे मिलकर आप कई राहों से गुज़र जाते थे। जिसमें इतिहास, परंपरा, साहित्य, कला और संस्कृति के कई मनभावन द्वार खुलते रहते थे। जिस अस्पताल में बिरजू महाराज पैदा हुए, उसमें इनका छोड़ लड़कियां ही पैदा हुईं। तब, लोगों ने कहा, इतनी सारी लड़कियों के बीच एक लड़का हुआ है तो क्यों न उनका नाम बृजमोहन मिश्र रख दिया और यही नाम रख दिया गया। नाम की लंबाई को घर वालों ने थोड़ा घटा दिया और फिर बिरजू पुकारने लगे और यही नाम चस्पा हो गया-पं बिरजू महाराज।
2017 अगस्त की एक दोपहर महाराज के संग यादगार चित्र
9 अगस्त 2017 को जब रांची के होटल रैडिसन में उनका दरश-परस हुआ था तो अस्सी बसंत की ओर बढ़ते पं बिरजू महाराज अपने बचपन की यादों में खोते ही तो चले गए थे। उम्र का असर नहीं था। स्मृति लाजवाब थी। यादों के चिराग जब जल तो वह जमाना भी याद आया जब राजा-महाराजा के दिए हुए पूर्वजों के पास चार-चार घोड़े हुआ करते थे। सिपाही हुआ करते थे। धन-दौलत की कोई कमी नहीं थी। सबके लिए अलग-अलग बग्घी हुआ करती थी। लेकिन समय ने ऐसा करवट लिया कि खाने के लिए भी लाले पड़ गए और साडिय़ों को जलाकर उसमें से सोने-चांदी के तारों को बेचकर राशन आने लगा था।
कहते हैं, पिता अछन महाराज लखनऊ घराने के नर्तक थे। रामपुर-रायगढ़ महाराज के यहां पिता रहे। रायगढ़ महाराज के यहां दो साल पिता रहे। रायगढ़ महाराज खुद तबला बजाते थे। उनके साथ मैं भी था। ढाई साल की उम्र से ही पिता के संग-साथ हो लिए और जहां जाते, वहां यह भी जाते। पिता के नृत्य को देखते-समझते। यह काम अम्मा का था। अम्मा कहती हैं, बच्चे को भी साथ ले जाओ। उनकी वजह से जो आंखों-कानों ने सुना उसे आत्मसात कर लिया। यहीं से ताल व लय की जानकारी हुई। पिता ने कहा, लड़का तो अच्छा है, लयदार है। जब लोग महफिल में पिता को इनाम देते तो पिता मुझे गोद में उठा लेते और फिर इनाम लेते। ऐसे दौर भी देखे जब उबड़-खाबड़ जमीन पर दरी बिछ गई और उसी दरी पर कार्यक्रम पेश किया। जब पिता का शागिर्द बनना चाहा तो पिता ने कहा, नजराना लगेगा। तब, कहीं से बीस तो कहीं पचीस रुपये जो इनाम मिले थे, उस एकत्रित कर करीब पांच सौ एक रुपया पिता को देकर विधिवत गंडा बंधवाया। बहुत सिंपल पर्सन थे पिता। खुद शागिर्द अपने पिता अच्छन महाराज का। उस समय साढ़े सात साल की उम्र थी। छह साल की उम्र में रामपुर के दरबार में नाचा हूं। बाबू जहां भी नाचे, वहां-वहां ले जाते। लेकिन दुर्भाग्य से जब साढ़े नौ साल का हुआ तो पिता का साया सिर से उठ गया और फि चाचा की सोहबत में आगे बढ़ा। तबला, बांसुरी, सरोद, सितार आदि सीखा। बांसुरी बाद में छोड़ दी, क्योंकि इससे स्वर पर प्रभाव पड़ता, क्योंकि गाने में दिक्कत होती।
14 साल की उम्र में संगीत भारती में रहा। वहां भारती कला केद्र रहा। वहां नृत्य नाटिका कीं। कथा रघुनाथ रामायण तीन घंटे की। कृष्ण लीला की। फिर एक अतुकांत कविता पर नृत्य किया। उसे खुद लिखा भी और कंपोज भी किया...मैं एक लोहे का टुकड़ा हूं...। बस कत्ल कत्ल, कत्ल, एक दूसरा लोहा उठाया, उसे मंदिर का घंटा बनाया। मंदिर की शोभा बढ़ता रहा। तो घुंघरूओं की रोशनी में कविता भी लिखता हूं, पेंटिंग भी करता हंू, तबला भी बजता हूं, सरोद भी बजाता हूं। पर, आज ये ये चीजें सेंकेंडरी है। नृत्य ही प्रमुख है। बाबा की पांच हजार ठुमरी उसी को बजाता हूं। सुनाता हूं। रसिकों का प्यार मुझे बहुत मिला। बड़े लोगों ने खूब आशीर्वाद दिया।डांस को बहुत प्यार करता हूं। हर मूवमेंट को देखता हंू तो लगता है, कृष्ण मेरे सामने खड़े हैं। कभी अकेला नहीं नाचता। वह नाचते हैं और साथ-साथ मैं नाचता हूं।
फिल्मों की बाबत कहा, सत्यजीत रे शतरंज के खिलाड़ी बना हरे थे। तो उन्होंने नृत्य की बात कही। बोले, कोई सेट नहीं होगा। नृत्य में नाखून तक दिखाना चाहता हूं। गाना क्या हो तो ठुमरी गाई? अमजद खान वाजिद अली शाह बनकर बैठे थे। इसके बाद यश चोपड़ा ने फोन किया तो माधुरी के लिए नृत्य किया। माधुरी आगे बढ़ी तो देवदास, डेढ़ इश्किा, बाजीराव मस्तानी में। संजय लीला भंसाली मन को समझते हैं। डिस्टर्ब नहीं करते। फिल्मी नाच झमेले वाला होता है। मैं पहले ही पूछता हूं, हेरोइन कपड़ा पहनेगी न। इसके बाद दीपिका ने कोशिश की। बाजीराव में। लेकिन माधुरी दीक्षित के अंदर कुदरतन एक भाव है। अभी तक मेरी फेवरेट हैं।
जीवन के इस मोड़ पर कोई आखिरी इच्छा के सवाल पर कहा था, इस उम्र में सांसारिक जीवन से विरक्ति होती है। लेकिन नृत्य-संगीत प्रभु की ओर ध्यान दिलाने लगता है। मीरा, सूरदास ने खूब रचा। मीरा ने प्रोग्राम के नहीं नाचा। रिदम में रामायण लिख दिया कवियों ने। भक्ति तो माध्यम है। अब मुझे लगता है, मैं पूजा कर रहा हंू, नाच नहीं रहा हूं।
( जन सरोकार से जुड़े पत्रकार-लेखक संजय कृष्ण का जम्न जमनिया गाजीपुर यूपी में हुआ। कर्मभूमि झारखंड को बनाया। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति एक दैनिक अख़बार से संबद्ध।)