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यूं ही कोई मिल गया था......संगीत की दुनिया का वो सितारा जो आस्‍मां में खो गया

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मनोहर महाजन, मुंबई:
क्या कभी आपने 'मीनू कातृक' या 'मीनू बाबा' का नाम सुना है? अगर जानते हैं तो आप ज़हीन है-फ़िल्म इंडस्ट्री को नज़दीक से जानते है..और अगर नहीं? तो आपको जानना चाहिए। संगीत के 'लेजेंडरी' और नामचीन 'साउंड-रिकार्डिस्ट'  का नाम है- 'मीनू कातृक' या 'मीनू बाबा।' आज शायद ही कोई  इन्हें जानता हो? वजह? पर्दे के सामने काम करने वालों को तो हम जानते हैं, पर पर्दे के पीछे की प्रतिभाओं को जानने में हमें कोई रुचि नहीं रहती। ये विडम्बना नहीं तो और क्या है? फ़िल्म रूपी इमारत के कंगूरों को देखकर तो हम उसकी तारीफ़ करते हैं, पर वो ख़ूबसूरत इमारत जिन 'नींव के पत्थरों' पर खड़ी है, उन्हें नज़रंदाज़ कर जाते हैं। मीनू कातृक ऐसे ही नींव के पत्थर हैं। अगर आपको  ये बताया जाए कि इस हस्ती द्वारा रिकार्डेड  फ़िल्मी गाने आपके दिल के टुकड़े रहे हैं आप दशकों से गुनगुनाते आ रहे हैं..आये है.. तो आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी? शायद आप भी  मेरी तरह इनके सामने नतमस्तक हो जाएंगे।



न भुलाए जाने वाले सदाबहार गाने
रिकॉर्डिंग स्टूडियो : 'फेमस महालक्ष्मी ताड़देव:बम्बई' के चीफ़-रिकार्डिस्ट बनने से पहले मीनू कातृक फ़िल्म 'लक्ष्मी' (1940),'वनमाला' (1941).'शारदा' (1942) 'पहले आप'(1944) जैसे फिल्मों के गाने रिकॉर्ड कर चुके थे। 1946 में 'फेमस महालक्ष्मी ताड़देव'  की स्थापना के साथ  ही उन्होंने इसे जॉइन किया। यहीं उन्होंने 'न भुलाए जाने वाले सदाबहार फ़िल्मों' के 'सदाबहार गाने' रिकॉर्ड किये। उस दौर के प्रायः हर संगीतकार की पहली पसंद मीनू कातृक ही थे। यहां उनका सफ़र फ़िल्म 'मेला' (1948) के गानों की रिकॉर्डिंग से शुरू हुआ। उनका हुनर  50 और 60 के दशक की हर बड़ी फिल्म के गानों को' सोने की डलियों' में तब्दील करने लगा..  । 'आवारा' (1951), 'दाग' (1952), आह (1953), बूट पॉलिश (1954) और जागते रहो (1956)। 50 के दौर की कुछ और 'म्यूज़िकली सुपरहिट' फिल्में थीं- 'नया दौर', 'न्यू डेल्ही',' काला-पानी', 'यहूदी',और 'हावड़ा ब्रिज' (1958)। 60 के दशक की कुछ मशहूर फिल्में जो मीनू बाबा की रिकॉर्डिंग का कमाल है। उन्हें भी जान लेंगे तो उनका नाम आपके दिलोदिमाग़ में उन फिल्मों के गानों की तरह हमेशा के लिए छप जाएगा। 'साहिब बीवी और ग़ुलाम'(1962),'वो कौन थी', 'काश्मीर की कली', 'तीसरी क़सम', 'तीसरी मंजिल', 'ज्वैल थीफ़', एन इवनिंग इन पेरिस, 'पड़ोसन','संघर्ष', और 'आया सावन झूम के' (1969)।



350 फिल्मी गानों और बैक-ग्राउंड म्यूजिक की रिकॉर्डिंग
संगीतकार  मदन मोहन और शंकर जयकिशन के वो सबसे पसंदीदा रिकार्डिस्ट थे। उनकी वजह से ही 'स्टूडियो फेमस महालक्ष्मी ताड़देव' का नाम भारत के सबसे व्यस्त रिकॉर्डिंग स्टूडियोज़ में शामिल हुआ। 70 के दशक में  रिटायर होते होते भी फ़िल्म 'हीररांझा (1970), 'जॉनी मेरा नाम', 'आन मिलो सजना', 'सफर', 'मेरा गांव मेरा देश', रेशमा और शेरा', 'अमर प्रेम' और 'पाकीज़ा' (1971) के गानों को अपनी प्रतिभा और हुनर से अमर कर गए। मीनू कातृक  ने तक़रीबन 350 फिल्मों के गानों और बैक-ग्राउंड म्यूजिक रिकॉर्ड किया जो साउंड क़्वालिटी और संगीत-संयोजन के हिसाब से अपने आप में एक कीर्तिमान है। ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री की 'रिकॉर्डिंग कला' को स्थापित  करने वाले विशाल स्तम्भों में से मीनू कातृक एक थे। उन्हें फॉलो करके कइयों ने नाम कमाया पर उन जैसा एक ही है। हम उन्हें बड़े प्यार से सलाम करते है।



(मनोहर महाजन शुरुआती दिनों में जबलपुर में थिएटर से जुड़े रहे। फिर 'सांग्स एन्ड ड्रामा डिवीजन' से होते हुए रेडियो सीलोन में एनाउंसर हो गए और वहाँ कई लोकप्रिय कार्यक्रमों का संचालन करते रहे। रेडियो के स्वर्णिम दिनों में आप अपने समकालीन अमीन सयानी की तरह ही लोकप्रिय रहे और उनके साथ भी कई प्रस्तुतियां दीं।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।