प्रेम कुमार, बेगूसराय:
कामदेव सिंह की मौत का परवाना लेकर स्वयं तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री जैल सिंह को दिल्ली से पटना आना पड़ा था। तब राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू था और जगन्नाथ मिश्र राज्य में सबसे महत्वपूर्ण नेता के तौर पर थे। जैल सिंह ने मिश्र से कामदेव सिंह का मृत शरीर मांगा और मिश्र ने नजरें झुका हामी भरींं। कल तक कांग्रेस पार्टी और मिश्र का दाहिना हाथ रहा व्यक्ति अब राजनीति की भेंट चढ़ने वाला था। कामदेव सिंह ने जितनी धमाकेदार जिंदगी जी थी, उनका अंत भी लगभग उसी पैमाने का रहा। अपने उठान के दौर में लगभग 20-25 साल तक उन्होंने अपने बाहुबल और धनबल के दम पर PM से लेकर CM तक को अपना मुरीद बनाए रखा और अकेले दम बिहार के बड़े हिस्से की राजनीति को अपने हिसाब से प्रभावित करते रहे। और अंततः उसी राजनीति की भेंट भी चढ़ गए।
एसपी रणधीर वर्मा को मिली जिम्मेवारी
इस प्रसंग में मौत या अन्य समानार्थी शब्द का प्रयोग न कर उनके साथ 'खात्मा' का प्रयोग इसलिए किया है। क्योंकि कामदेव सिंह की मौत सत्ता द्वारा निष्ठुरता से प्रयोग किए जाने के बाद सिर्फ नए राजनीतिक समीकरणों को बिठाने के चक्कर में उन्हें खत्म कर दिए जाने की वजह से ही हुई थी। अगर सीधे घटनाक्रम के तौर पर उनकी मौत को लिखा जाए तो वो कुछ ऐसा ही था। 1978 में तेजतर्रार स्वर्गीय रणधीर वर्मा बेगूसराय के एसपी बने। उन्हें कामदेव सिंह एंड कम्पनी के खिलाफ सख्ती बरतने की हिदायत मिलने लगी थी। लगभग दो साल की घेरेबंदी के बाद उन्हें घेरा जा सका।सही मायनों में उनके खिलाफ तेजी जैल सिंह की यात्रा के बाद ही आई थी।1980 में कामदेव सिंह पर सरकार द्वारा 10,000 का इनाम घोषित किया गया। कहते हैं जब कामदेव सिंह के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई की बाबत योजना बनाई जा रही थी तो उनके जलाल से आतंकित हो कर बिहार पुलिस ने हाथ खड़े कर दिए थे। तब CRPF की एक विशेष टुकड़ी को बिहार पुलिस की मदद के लिए लगाई गई।
जगन्नाथ मिश्रा ने रामचन्द्र खां को भेजा बेगूसराय
इन सबके बावजूद जगन्नाथ मिश्रा किसी पर भरोसा नहीं कर पा रहे थे। फिर एक बार बेगूसराय में एसपी रह चुके स्वजातीय रामचन्द्र खां को विशेष कमान देकर साथ लगाया गया। मुखबिरी के लिए बेगूसराय में पुलिस ने दो साल तक युद्धस्तर पर तैयारियां और कोशिशें की थीं। जिसने भी समय पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कहते हैं कि कामदेव सिंह के एक निकटतम व्यक्ति ने ही मुखबिरी की थी। बताते हैं उनका खात्मा भारत का पहला सबसे बड़ा संगठित पुलिस एनकाउंटर था। नियत दिन से पहली रात सैकड़ों की संख्या में पुलिस और सीआरपीएफ की टुकड़ी ने उनके गांव से काफी दूर ही गाड़ियों को छोड़ कर पैदल ही अँधेरे में गांव को घेर लिया था।
तीन तरफ से गोलियां चलते देख गंगा में लगा दी छलांग
18 अप्रैल 1980 की सुबह कामदेव सिंह अपने गांव के नजदीक ही गंगा के किनारे ठेके के काम की निगरानी के लिए आए हुए थे। तभी अचानक से तीन तरफ से घेरेबंदी कर चुकी टुकड़ियों ने धावा बोला। उन्होंने बचने के लिए बेधड़क गंगा में छलांग लगा दी क्योंकि वो खुद बेहतरीन तैराक थे।पीछे से गोलियाँ चलाईं गईं जो शायद उनकी पीठ में लगी लेकिन वो गंगा में समाए ही रह गए। चार पाँच घंटों तक गोताखोरों की हिमालयी कवायद के बाद उनका शव हाथ लगा। जिसकी शिनाख्त उनकी पत्नी और माँ ने की। लेकिन उनकी बहुमूल्यता का अंदाजा इस बात से लगाइए कि इन सब के बाद जब पटना संदेशा भेजा गया कि कामदेव सिंह एनकाउंटर में खत्म कर दिए गए तो भी वहाँ किसी को आसानी से विश्वास नहीं हो पा रहा था।
CID की तस्दीक के बाद मानी सरकार कि सचमुच डॉन मारा गया
Central Intelligence Department की टीम डीआईजी डी एन सहाय के नेतृत्व में स्पॉट पर भेजी गई। जिसने तस्दीक की कि सचमुच 'मालिक' मारे जा चुके हैं। पुराने लोग बताते हैं कि कामदेव सिंह के अंतिम संस्कार के समय उस जमाने में सत्तर पचहत्तर हजार लोगों की भीड़ उमड़ी थी और उनके इलाके के गरीब गुरबों की रोती-बिलखती फौज उनकी अर्थी के पीछे दूर तक गई थी। आजतक इस इलाके के कई लोग इस बात पर यकीन करते हैं कि घेरेबंदी की वजह से भँभरा (छिछली जगह) में फँस जाने के कारण ही उनकी मौत हुई अगर उन्होंने गंगा का धार पकड़ लिया होता तो वो बच ही जाते क्योंकि गंगा दियारे के बादशाह कामदेव सिंह असाधारण तैराक थे। तत्कालीन एसपी रणधीर वर्मा ने भी कहा था कि उनके पैरों के तलवे फटे हुए थे ऐसा छिछली जगह पर गंगा में बाढ़ से बचने के लिए डाले गए पत्थरों पर कूदने की वजह से ही हुआ था।
CPI के कांग्रेस से मधुर संबंध बना कामदेव सिंह की मौत का कारण
आईए अब बेगूसराय के मालिक उर्फ कामदेव सिंह की मौत के सीधे सादे घटनाक्रम के पीछे की तिरछी और कुत्सित राजनीति को देखते हैं।1975 में इंदिरा गांधी ने देशव्यापी इमरजेंसी घोषित की जो 1977 तक चली थी। कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) ने इसका समर्थन किया था। जिसकी वजह से आनेवाले वर्षों में कम्युनिस्टों के कांग्रेस से बड़े मधुर संबंध बने। जिसकी एवज में भारत के कई वैचारिक मतनिर्माणक संस्थाओं को उन्हें भेंट किया गया। दूसरे बेगूसराय के ही कम्युनिस्ट नेता सूर्यनारायण सिंह 1980 में सांसद बने और उन्होंने जोरशोर से कामदेव सिंह के खिलाफ संसद में भी मामले को उठाया था। मतलब कम्युनिस्टों के साथ अपने नए बने समीकरण की जड़ में श्रीमती गांधी ने अपने ही खास सिपहसालार रहे कामदेव सिंह की जान को खाद बना कर देना स्वीकार किया। चूंकि कामदेव सिंह कम्युनिस्ट पार्टी के लिए लंबे अरसे से नासूर बने हुए थे सो उनकी बलि काँग्रेस-कम्युनिस्ट गठबंधन की वेदी पर चढाई गई।
रूसी जासूस की किताब में ललित नारायण हादसे का जिक्र
कहा यह भी जाता था कि इमरजेंसी के बाद बनी जनता पार्टी की सरकार के नेताओं से राब्ता बढ़ाने की कोशिशें भी कामदेव सिंह ने की थीं जो श्रीमती गांधी को नागवार गुजरी थी। एक थ्योरी उस दौर के हम जैसे लोगों ने ये भी सुनी थी कि तत्कालीन रेलमंत्री और कांग्रेस के दिग्गज नेता ललित नारायण मिश्र जिनकी उनके पद पर रहते हुए ही 3 जनवरी,1975 को बिहार के समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पर बम मार कर हत्या कर दी गई थी। ये हत्या इंदिरा गांधी ने ही उनके बढ़ते हुए कद से सशंकित हो कर कामदेव सिंह के मार्फत कराई थी सो कभी राज खुल न जाए, इस डर से भी कामदेव सिंह का खात्मा जरुरी हो गया था। रूसी जासूस द्वारा लिखी गई किताब Mitrokhin Archive 2, KGB in the world में भी ललित नारायण मिश्र की हत्या के बाबत तत्कालीन कांग्रेस पार्टी और उसकी नेता की तरफ ही साफ तौर पर उँगली उठाई गई है।
पत्रकार प्रियदर्शन शर्मा ने अलग दिया इशारा
कामदेव सिंह की मौत के प्रसंग में महत्वपूर्ण टीप लिखते हुए पत्रकार प्रियदर्शन शर्मा ने इस बाबत भी इशारा किया है कि ललित नारायण मिश्र की मौत के बाद उनके भाई जगन्नाथ मिश्र बिहार के सबसे बड़े और शक्तिशाली कांग्रेसी नेता बन गए जो उसी दौरान 11अप्रैल 1975 से 30 अप्रैल 1977 तक बिहार के मुख्यमंत्री भी रहे। उन्होंने भी जरुरत पर कामदेव सिंह की सेवाओं का भरपूर लाभ उठाया। लेकिन बिहार की राजनीति में भूमिहारों की संख्या के मुकाबले ज्यादा वर्चस्वशाली भूमिका से निपटने का रास्ता भी उन्हें कामदेव सिंह के खात्मे में ही नजर आया। प्रियदर्शन ने लिखा है, "उस दिन कामदेव सिंह की मौत के बाद सत्ता के गलियारों में बैठे लोगों ने पूरी जाति को गालियाँ दीं और जश्न मनाया. सत्ताधारियों ने वहीं से एक पूरी जाति को निशाना बना कर अपनी राजनीति बिहार में चमकानी शुरु कर दी,लोग चाहे जो भी कहते रहें लेकिन बिहार में जाति की राजनीति के असली सूत्रधार जगन्नाथ मिश्र ही थे।"
-यह किस्त समाप्त
बाकी 7 किस्त पढ़ने के लिए अलग-अलग लिंक पर क्लिक करें:
(प्रेम कुमार बिहार के बेगूसराय में रहते हैं। स्वतंत्र लेखन करते हैं।)
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।