कर्मेंदु शिशिर
आँख बंदकर समर्थन ही नहीं, आँख बंदकर विरोध भी विचारणीय है। विरोध में समझ और कारण भी साफ होने चाहिए। जिससे समझने वाले का मत प्रभावित हो सके। फिर एकांगी विरोध का यह अर्थ भी नहीं निकलना चाहिए कि इसके अलावे बाकी सब बेहतर है। जिस तरह का भाजपा और हिन्दू विरोध हो रहा है, उससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि भाजपा के हटने से हालात बदल जायेंगे। हर कट्टरता एक दूसरी कट्टरता की ख़ुराक बनती है। अगर हम यह सोचते हैं कि अपनी प्रखर तर्कावली से हम समस्या को हिन्दुत्व तक केन्द्रित कर बाकी सबको दूध धुला मानकर समस्या खत्म कर लेंगे तो यह बड़ी भूल है। हम अगर सचमुच आजादी के स्वप्नों का भारत चाहते हैं तो हम सबको आत्म-मंथन करना होगा।
नष्ट हो रहा सब कुछ बचा लीजिये
धर्मांतरण हो या गैरधार्मिक विवाह अथवा और कोई भी विभेद या विवाद। इसको हो हल्ला, तकनीकी रूप से सही, दुरुस्त और तर्क से हम ख़ुद को भले जस्टीफाई कर लें, मगर एक जहरीली दूरी बना कर। यह किसी चैनल तक तो ठीक है, लेकिन समाज की बेहतरी के लिए नहीं। यह एक ईमानदार और विवेकपूर्ण कोशिश से ही संभव है। सही-सही तथ्यों का पता कर उनका आकलन कर सबको खुद अपने में सुधार करना ही होगा। वरना हर बात को झुठलाते, खुद को निर्दोष साबित करते और दूसरे को दोषी ठहराते वास्तविकता बहुत ही घातक शक्ल अख्तियार कर चुकी है। कुछ लोग विचार की शाश्वत ईमानदारी और प्रखर तर्क पर इतना ज्यादा भरोसा करते हैं कि उनको लगता है कि इससे वे यथार्थ बदल देंगे। हम अपने सही होने के अहंकार में इतने डूबे हुए हैं कि इससे उपजी सघन प्रतिक्रिया का अनुमान ही नहीं कर सकते। नतीजतन समाज में जो छोटा छेद था वह भभाड़ हो चुका है और होता ही जा रहा है। इसे भरने के लिए अब सबको आजादी के दौर वाली समझ, जज़्बा और बुद्धिमत्ता चाहिए। वरना सच्चाई यह है कि अंदर कुछ बचा नहीं है। तार-तार है। बस, पर्दा से ढँका भर है। यह सबके लिए बहुत ही घातक है। समाज में अब भी स्पेस है। हम चाहे तो बचा सकते हैं। वरना नष्ट तो हो ही रहा है।
विचार को कर दिया गया अप्रासंगिक
सवाल निराशा या हताशा का नहीं है। सवाल ज्यादा गंभीर है। जिस तरह इस देश में विचार और विचारधारा, दर्शन और इतिहास,शोध, बौद्धिक विमर्श, साहित्य, संगीत,नृत्य, कला,पुस्तक,पत्रिका, प्रकाशन या मुक्त उद्बबोधन को बिना किसी हस्तक्षेप के अप्रासंगिक कर दिया गया है, वह भयावह है। विश्वविद्यालय और ज्ञान के तमाम केन्द्रों का कोई मतलब नहीं रह गया है। पचास बर्षों तक की साधना दो कौड़ी की भी नहीं रह गई है। अखबार और टीवी पर अपढ़ मूर्ख विचारक बनकर राजनीति, अर्थ नीति और संस्कृति समझायेंगे और हम सुनने को विवश हैं। किसी भारतीय भाषा में कोई अच्छी फिल्म नहीं बन रही। बावजूद विश्व गुरु का पद स्थाई है।
अंत में .....
आप सोचिये, जिन चीजों का कोई उपयोग नहीं, जीवन में शामिल नहीं, उनका कोई असर नहीं, तो हम किस पागलपन में रतजगा करें? बीपी और शुगर क्यों बढ़ायें? फिर भी अगर मान नहीं रहे हैं, तो जाहिर है हम थोड़ा घसके हुए लोग हैं। यह समय,ऐसा समाज और ऐसा देश हमारी कल्पना में कभी नहीं था।
( वरिष्ठ लेखक कर्मेंदु शिशिर का जन्म वाराणसी में हुआ, कर्मभूमि बिहार रही। बहुत लंबी राह (उपन्यास), कितने दिन अपने, बची रहेगी जिंदगी (कहानी-संग्रह), नवजागरण और संस्कृति (वैचारिकी), राधामोहन गोकुल और हिंदी नवजागरण (शोध समीक्षा), हिंदी नवजागरण और जातीय गद्य परपंरा (गद्य समीक्षा), 1857 की राजक्रांति: विचार और विश्लेषण, नवजागरण कालीन साहित्यकार राधाचरण गोस्वामी, निराला और राम की शक्तिपूजा (आलोचना) आदि उनकी प्रकाशित प्रमुख पुस्तकें हैं। संप्रति गाजियाबाद में रहकर स्वतंत्र लेखन।)
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।