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बापू-बाबा-1: कितने थे गांधी और अंबेडकर में वैचारिक मतभेद 

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कुमार प्रशांत, दिल्ली:

भारतीय संविधान के शिल्पकार ड़ॉ भीमराव अंबेडकर की करुण गाथा 14 अप्रैल 1891 से  प्रारम्भ होती है। भारतीय समाज अपने समाज के एक बड़े दलित वर्ग के प्रति कितना कठोर हो सकता है, कितना अन्यायपूर्ण हो सकता है, कितना अमानवीय हो सकता है इसकी अगर कोई कहानी आपको समझनी हो तो अम्बेडकर का जीवन पढ़ लीजिये। यह जीवनी मनुष्य के अपमान का एक जीता जागता दस्तावेज है। इसलिए  बहुत ही सहानुभूति के साथ, बहुत ही सम्मान के साथ और गहरी संवेदना के साथ इस जीवन को पढ़ना चाहिए और महसूस करना चाहिए कि हम लोग जो किसी संयोगवश उच्च जातियों में पैदा हुए  हैं, हम लोगों ने कितनी अपमानजनक स्थिति में भारतीय समाज के एक बहुत बडे हिस्से को लंबे समय से डाल रखा है। अगर हम ये सब समझ सके तो हम खुद अपने आप में शर्म महसूस करेंगे। इसलिए आज अंबेडकर जयंती पर जो एक चीज सीखने की है वो ये है कि किसी भी कारण से, किसी भी परिस्थिति में, किसी भी तर्क से हम किसी मनुष्य का अपमान अपने जीवन में  कभी नहीं करेंगे, ये व्रत हमको आज लेना चाहिए। ये अगर हम समझ पाए तो ये जो अंबेडकर के जीवन की करुण गाथा है उसको महसूस कर सकेंगे।

उनके छात्र जीवन पर काफ़ी कुछ लिखा गया है कि कैसे वे मेधावी छात्र थे और पढ़ाई को लेकर  खंभे के नीचे बैठ कर केम्ब्रिज और कोलम्बिया तक चले गए।  मुझे लगता है कि दलित समाज को अंबेडकर के छात्र जीवन से ज्यादा प्रेरणा लेनी चाहिए,  इसलिए नहीं कि उन्होंने बहुत तकलीफ में पढ़ाई की अपितु कि एक लड़का जो घनघोर गरीबी से निकलकर कोलंबिया विश्वविद्यालय की सीढ़ियां चढ़ रहा था तो वह अपनी जिज्ञासाओं के बारे में सोच रहा था या तकलीफों के बारे में सोच रहा था। यह सही है कि बड़ौदा नरेश ने उनकी प्रतिभा को पहचानते हुए उन्हें बहुत बड़ी जगह दी लेकिन प्रश्न उठता है कि बड़ौदा के समाज ने उन्हें क्या दिया? उनकी प्रतिभा की जो पूरी कहानी है उस कहानी का एक दूसरा हिस्सा यह भी है कि तुम्हारी सारी प्रतिभाएं किसी कीमत की नहीं हैं अगर तुम समाज की बनी हुई जाति व्यवस्था में किसी नीची जगह पैदा हुए हो। 

 

Did Gandhi Want to “Annihilate Caste?” Revisiting the Ambedkar–Gandhi  Debate | Economic and Political Weekly

 

अंबेडकर अपने पूरे जीवन में कठोर दिखते हैं। इस  कठोरता को समझना और परिभाषित करना आसान है। जिस समाज ने उन्हें जो कठोरता दी उन्होंने ज्यों की त्यों लौटा दी। गांधीजी की तरह डॉ आंबेडकर ने भी कई सत्याग्रह किये। इस तरह कहा जा सकता है कि दोनों ही सत्याग्रही थे। गांधीजी चंपारण सत्याग्रह से चमके तो डॉ आंबेडकर महाड़ सत्याग्रह से भारतीय राजनीति में उभरे। अंबेडकर का भारतीय राजनीति में एक धूमकेतु की तरह उदय 20 मार्च 1927 को महाड़ सत्याग्रह से होता है  जब सनातनी हिंदुओं ने तालाब को शुद्ध किया उस दिन डॉ आंबेडकर ने कहा था  कि तुम लोगों ने  तालाब को शुद्ध कर और दलितों की पिटाई कर जो नीच काम किया है  उसके बाद हम हमारे और तुम्हारे बीच का पुल अब हमेशा के लिए टूट चुका है। यही वह समय था जब महात्मा गांधी और अंबेडकर वैचारिक रूप से एक दूसरे के नजदीक आये। 

महाड़ सत्याग्रह पर  महात्मा गांधी की प्रतिक्रिया थी कि यह सत्याग्रह एक अनुकरणीय सत्याग्रह है। इस सत्याग्रह में दलित समाज ने सवर्णों की जो यातना झेली है वह मेरी नजर में एक बहुत बड़ी बात है । इस सत्याग्रह ने  दलित समाज को नैतिक जीत और सवर्ण समाज को नैतिक हार के कगार पर पहुंचा दिया है। डॉ आंबेडकर महाड़ सत्याग्रह के बाद  दलित समाज से कहते हैं कि अपने देश में गांधी ही एक ऐसे आदमी है जो हम लोगों को अपना मानते है। इसीलिए इस आदमी के साथ हमें जुड़कर रहना है। यह बहुत बड़ी बात है कि देश का इतना बड़ा नेता हमको अपना मानता है, हमारे साथ खड़ा होता है। इसका और हमारा साथ छूटना नहीं चाहिए। इसके बाद घटनाक्रम तेजी से बदलता है। नमक सत्याग्रह  बड़े पैमाने पर होता है। गांधी सहित लाखों कांग्रेस कार्यकर्ताओं को जेल में ठूंस दिया जाता है। कांग्रेस को गैर कानूनी संस्था घोषित कर दिया गया। देश में एक डेडलॉक उत्पन्न हो जाता है। अंग्रेजों पर दुनियाभर के दबाव है कि इस डेडलॉक को खत्म कीजिये।ऐसी स्थिति में वाइसराय गांधी को बातचीत के लिए बुलाते हैं।  गांधी इरबिन समझौता होता है । 

 

यह दौर  भारतीय राजनीति के लिए बहुत ही उलझा हुआ दौर है जिसमें  भगतसिंह की फांसी , कांग्रेस की पूरी लीडरशिप की जेल से रिहाई, और तीसरे घटक के रूप में डॉ आंबेडकर का भारतीय राजनीति में धूमकेतु की तरह प्रवेश होता है। ऐसे समय में 14 अगस्त 1931 को मणि भवन में गांधी और अम्बेडकर के बीच पहली बार बात होती है। ये बातचीत अच्छी बातचीत नहीं कही जाती है।

गांधीजी मणि भवन में फाइलों में उलझे हुए हैं क्योंकि अगले दिन उन्हें कॉन्फ्रेंस में भाग लेने इंग्लैंड जाना है। ऐसे समय  14  को शाम को युवा अम्बेडकर मणि भवन में प्रवेश करते हैं। गांधी  का उनसे पहली बार आमना सामना हुआ है। गांधीजी कहते हैं कि जल्दी बोलो डॉक्टर तुमको क्या कहना है?  अम्बेडकर गांधी से कहते हैं कि मुझे कुछ नहीं कहना,  आप बोलो आपको क्या कहना है?  गांधी सकपका जाते हैं कि ये कौन नौजवान है जो मेरे सामने इस तरह कह रहा है। गांधी अम्बेडकर से कहते हैं कि आजादी की लड़ाई बड़े नाजुक दौर में है इस समय हम सभी को मिलकर काम करना है। अम्बेडकर  कहते हैं कि ये आपकी आजादी होगी ये मेरी आजादी नहीं। इस तरह यह बातचीत अच्छी नहीं रही।  गांधी और अम्बेडकर दोनों को इंग्लैंड जाना है लेकिन वाइसराय से उन्हें बातचीत करनी है इसलिए अम्बेडकर एक दिन पहले पानी के जहाज से रवाना होते हैं और दूसरे दिन गांधी रवाना होते हैं। अगर वे दोनों एक ही जहाज से जाते तो सम्भव था कि वे एक दूसरे को अच्छे से समझ सकते।

भारत को आजादी कैसे दी जाए इस बात पर विचार करने के लिए अंग्रेज इंग्लैंड में  गोलमेज कॉन्फ्रेंस आयोजित करते हैं। अंग्रेजों ने एक नया पासा फेंका है कि आप इंग्लैंड आइए और वहां हम इस मुद्दे पर बैठकर चर्चा करेंगे। पहली बैठक में गांधीजी जेल में होने से बैठक भाग नहीं ले पाते। इस बीच दूसरी गोलमेज कॉन्फ्रेंस होती है। इस बैठक के लिए कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में गांधीजी को मनोनीत किया जाता है। इस प्रकार द्वितीय गोलमेज कांफ्रेंस शुरू होती है।  गोलमेज कांफ्रेंस में अंग्रेजों ने एक दूसरा खेल खेला । गांधी जब कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि की हैसियत से गोलमेज कांफ्रेंस में प्रवेश करते हैं तो उनके सामने एक दर्जन हिंदुस्तान बैठे दिखते हैं। इंडिया सेकेट्री सर सेमुअल होर गांधी से कहते हैं कि ये सब लोग हिंदुस्तान के प्रतिनिधि हैं। जिन्ना मुस्लिम हिंदुस्तान के , डॉ आंबेडकर  दलित हिंदुस्तान के , मदन मोहन मालवीय राष्ट्रवादी सवर्ण हिंदुस्तान के , सरदार सुंदर सिंह मजीठिया सिक्ख हिंदुस्तान के प्रतिनिधि हैं । अंग्रेज गांधी से कहते हैं कि सिर्फ आपकी बात सुनी जाय और उसको ही भारत की बात मानी जाय ऐसा अब संभव नहीं है।

 

 

गांधीजी बिना किसी तैयारी के द्वितीय गोलमेज कांफ्रेंस में बोलना शुरू करते हैं । गांधी के भाषण के बारे में इंडिया सेकेट्री सेमुअल होर अपनी बायोग्राफी में लिखते हैं कि गांधी का भाषण एक्सटेम्पोर भाषण था। दुनिया में मुझे इस तरह का दूसरा भाषण नहीं मिला। गांधी ने अपने तर्क अंग्रेज सरकार के सामने उड़ेल कर रख दिये जिसका जवाब किसी के पास नहीं था। गांधी कहते हैं कि आज सम्मेलन में  जितने भी लोग बैठे हुए हैं ये सभी रोटी का अपना अपना टुकड़ा लेने के लिए यहां आए हुए हैं। मैं पूरी रोटी लेकर लेकर यहां से जाऊंगा। अगर इसका बंटबारा ही करना होगा तो हम सब अपने देश में बैठकर कर लेंगे। लेकिन यहां से पूरी रोटी लेकर जाएंगे। गांधी की और बाकी लोगों की भूमिका में अगर कोई अंतर है तो यह है कि गांधी इस बात को मानने को तैयार नहीं हैं कि भारत की किस्मत का फैसला अंग्रेज करें। वे कहते हैं कि भारत की किस्मत का जो भी फैसला होगा हम अपने देश में अपने लोगों के बीच में बैठकर कर लेंगे।अंग्रेजों का काम सिर्फ इतना है कि वे भारत से अपने बोरी बिस्तर बांध कर चले जाएं।

डॉ आंबेडकर ने स्वदेश वापस आने पर यह भी कहा कि अंग्रेजों का भारत आना दलितों के सौभाग्य की शुरुआत है। क्योंकि अंग्रेजो के आने के बाद ये जो दलित समाज है इसे बोलने का और खड़े होने का मौका मिला।  इसके जवाब में गांधीजी कहते हैं कि हमारे यहां एक बहुत बड़ा समाज है जो यह मानता है कि गुलामी में भी हमारे लिए ज्यादा सम्मान और फायदा है। ये कितनी बड़ी खीज है इसको सवर्ण समाज को पूरी सहानुभूति के साथ समझना चाहिए।

गोलमेज कॉन्फ्रेंस के आखिरी दिन वाइसराय यह घोषणा करते हैं कि जो सेंटीमेंट्स हम देख रहे हैं उससे हम समझ पा रहे हैं कि भारत में जो  दलित और अल्पसंख्यक हैं वे सभी अपने को असुरक्षित महसूस करते हैं। इसलिए भारत को आजादी देने से पहले ब्रिटिश सरकार की ये जिम्मेवारी है कि वह इन सभी को संतुष्ट करे। इसलिए ब्रिटिश सरकार एक सेपरेट एलेक्टरेट की व्यवस्था दलित समाज के लिए करेगी। जैसे ही यह अधिसूचना वायसराय द्वारा की गई। गांधीजी ने इसके विरोध में यरवदा (पूना) जेल में  20 सितम्बर, 1932 से आमरण अनशन करने की घोषणा कर दी। गांधी का कहना था कि इससे अछूत भारतीय समाज से अलग हो जायेंगे, जिससे समाज में विघटन हो जायेगा। इसके बाद 24 सितंबर 1932 को गांधीजी और  बाबा साहब अंबेडकर के बीच पूना पैक्ट हुआ। इस पैक्ट के बारे में कहा जाता है कि डॉक्टर अंबेडकर ने रोते हुए इस समझौते पर हस्ताक्षर किए। इसकी चर्चा अगली कड़ी में करूँगा। 

शेष अगली कड़ी में।

(गांधीवादी लेखक कुमार प्रशांतगांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं। )

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।