कनक तिवारी, रायपुर:
महाराष्ट्र कंट्रोल आफ आरग्नाइज्ड एक्ट (मकोका) 1999 का मुख्य प्रयोजन उन संगठनों की गर्दन नापना है जो फिरौती लेने या इसी तरह के अन्य आर्थिक अपराधों में सांगठनिक तौर पर लिप्त हैं। मकोका का आकाश पोटा की तरह विस्तृत नहीं रहा। चटखारे लेने की बात यह कि अधिनियम भाजपा-शिवसेना के कार्यकाल में रचा गया और कांग्रेस बछिया के ताऊ का दूध दुहती रही। यक्ष उत्तर यह है कि टाडा की वजह से पंजाब में शांति स्थापित नहीं हुई। के पी एस गिल को आतंकवादी संगठनों से निपटने के साथ साथ एक महिला अधिकारी को चिकोटी काटने की फुरसत भी मिलती रही। केवल पुलिसिया कड़ाई के कारण पंजाबी आतंकवादियों को काबू नहीं किया जा सका था। राजनीतिक प्रक्रिया साथ साथ बल्कि अन्दर ही अन्दर चलती रही।
निवारक नजरबंदी कानूनों को बनाने के पहले जितने भी प्रचलित कानून सरकार के पास उपलब्ध रहे हैं, उनसे भी विध्वंसकारी ताकतों से निपटा जा सकता था। सुप्रीम कोर्ट के अनुभव में आया है कि भारतीय दंड संहिता में पकड़े गए अपराधी तो बच नहीं पाए, लेकिन वही अपराधी खतरनाक नजरबंदी कानूनों से साफ बच निकले। राजीव गांधी की हत्या में अपराधियों पर टाडा लगाया गया और भारतीय दंड विधान की धाराएं भी। श्रमुलजिम टाडा में छोड़ दिए गए लेकिन ताजीरात-ए हिंद में नहीं बच सके। ऐसे कई प्रमाण हैं जिनमें सुप्रीम कोर्ट ने बार बार कहा है कि निवारक नजरबंदी कानूनों को लेकर पुलिसिया समझ संदिग्ध है। अर्थात् उसे लार्ड मैकाले द्वारा बनाए गए कानूनों पर ही ज्यादा भरोसा करना चाहिए। इन कानूनों से आतंककारियों के मन में खौफ तो नहीं बढ़ा है, बल्कि आतंकवादी घटनाएं बढ़ी हैं। इनसे जनता ही अलबत्ता भयभीत हुई है। इससे पुलिस की ताकत में बेतहाशा वृद्धि हुई है और वह भी बिना किसी उत्तरदायित्व की भावना के।
आतंकवादियों के पास अक्सर जो हथियार पकड़े जाते हैं, वे भारत में नहीं योरोप और अमेरिका में बने होते हैं। आतंकवाद रोकती सरकारें भी उन्हीं देशों के हथियारों का इस्तेमाल करती हैं। श्वेतपत्र प्रकाशित होने चाहिए कि आतंकवाद के नाम पर हथियारों के विदेशी उत्पादनों का धंधा कितना फलफूल रहा है। ऐसा नहीं है कि आतंकवादी भले लोग हैं और आतंकवाद विरोधी कानूनों की आलोचना को आतंकवाद या नक्सलवाद का समर्थन माना जाए। संविधान और लोकतंत्र में विश्वास नहीं रखने वालों को तो कानूनी बंदिशों का सामना करना ही होगा। अराजकता की स्थिति उत्पन्न होने देना संविधान की आयतों में नहीं है। कथित माओवादी क्रांतिकारी राजनीतिक आदर्शों की आड़ में तेंदूपत्ता और अन्य वन उत्पाद एवं दीगर वस्तुओं के ठेकेदारों से वसूली करें-यह भी राजनीतिक आदर्शवाद या अराजकतावाद भी नहीं है। स्कूलों, अस्पतालों, बिजलीघरों वगैरह को नष्ट कर देना नक्सलवाद का विरोधी नहीं विकृत चेहरा है। निरपराध आदिवासियों को मार डालना कोई बहादुरी या आतंकवाद भी नहीं है बल्कि कायराना हमला है। देखना होगा आतंकवाद पर नियंत्रण और उसके खात्मे के साथ साथ मानवाधिकारों और व्यक्ति की अभिव्यक्ति, सामाजिकता और उसके रहन सहन की सभी आजादियां किस तरह सुरक्षित की जाएं। यह ऐसा जन प्रयोजन है जिसे केवल सरकारों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। नागरिकों, स्वयंसेवी संगठनों, मानव अधिकार कार्यकर्ताओं, मीडिया और कानून विशेषज्ञों आदि की सरकारों के साथ विमर्श की जरूरत के बगैर यथास्थिति के ही बने रहने की सम्भावना है।
शायद मंटो जैसे किसी तीक्ष्ण लेखक ने बूढ़ी, जर्जर हो चुकी किसी लाचार, औरत की छाती पर दो मरे कबूतर लटकने का प्रतीक आत्मा को चबुलाने वाले यथार्थ के बरक्स बताया था। मणिपुर का 15 जुलाई का एक चित्र आंखों में तेजाब भर रहा है। इसमें कोई दस बारह महिलाएं पूरी तौर पर निर्वस्त्र होकर एक पचहत्तर वर्षीय औरत की अगुआई में देष के सबसे पुराने अर्द्धसैनिक बल असम रायफल्स के सैनिकों की हविश को चुनौती दे रही हैं कि वे उनका बलात्कार करें। वितृष्णा, आक्रोश, प्रतिकार, अवज्ञा और करुणा का ऐसा मार्मिक चित्र तो कल्पना में भी नहीं हो सकता होगा।
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संदर्भ नागालैंड-1: सेना की हिंसा में आम नागरिकों की हत्या से उपजे सवाल
तैंतीस वर्षीय शर्मिला नामक युवती पिछले पौने चार साल से इस बदनुमा अधिनियम को वापस लेने के लिए अनशन पर रही हैं। उसे जवाहरलाल नेहरू अस्पताल में नाक के द्वारा भोजनौषधि देकर जिन्दा रख जा रहा है। 15 अगस्त 2004 को छात्र पेबम चित्तरंजन ने खुद को उसी तरह जलाकर मार डाला जैसे मणिपुर आग में जल रहा है। लेकिन केन्द्र सरकार है कि अपनी ज़िद पर अड़ी रहती हैं। उन एक दर्जन महिलाओं के नग्न-प्रदर्शन ने प्रदेश सरकार की इतनी थुक्का फजीहत करा रखी थी जो मणिपुर के इतिहास का सबसे काला अध्याय कहा जाएगा। वहां 11 जुलाई 2004 को थंगजम मनोरमा नामक 32 वर्षीय महिला को पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पी.एल.ए.) नामक प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन का सदस्य तथा बम बनाने की महारत होने के आरोप में सेना की अभिरक्षा में बलात्कार और मृत्यु का शिकार होना पड़ा। उस पर पुलिस की गिरफ्त से भागने का आरोप लगाया गया। मनोरमा को आधी रात में सोते वक्त उसके घर से निहत्था गिरफ्तार किया गया था। दैनिक शान और मणिपुर न्यूज़ के सम्पादकों की हत्या कर दी गई। संवाददाता अर्धसैनिक संगठनों द्वारा भी पीटे जाते रहे। केबल आॅपरेटर हिन्दी फिल्में नहीं दिखा सकते रहे। ग्रामीण तो गरीब की लुगाई ही समझे जाते हैं।
( जारी )
(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं। छत्तीसगढ़ के महाधिवक्ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्वतंत्र लेखन।)
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