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धर्म और राजनीति की जुगलबंदी पर संवाद कर रहे हैं प्रेमकुमार मणि

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प्रेमकुमार मणि, पटना: 

काशी-विश्वनाथ में13 दिसम्बर को धर्म व राजनीति की जो जुगलबंदी हुई उस विषय पर मैं आपसे संवाद करना चाहूंगा। काशी हिन्दुओं का पवित्र तीर्थस्थल है। वहाँ विश्वनाथ अर्थात शिव का मंदिर है और निःसंदेह उसे करोड़ों लोगों का सम्मान प्राप्त है। देवी -देवताओं में मेरी कभी कोई श्रद्धा नहीं रही , लेकिन उनके पौराणिक औचित्य को मैं स्वीकार करता हूँ। शिव का अलमस्त स्वभाव मुझे आकर्षित भी करता है और बाज दफा उससे कुछ सीखना भी चाहता हूँ। शिव अखंड प्रेम के देवता हैं। औघड़ दानी. सर्वहारा चरित्र. गणपति नहीं, पशुपति कोई निजी पूँजी नहीं उनके पास बैल है। वह भी अपनी स्वतंत्र हैसियत रखता है। त्रिशूल है, लेकिन मैंने कहीं नहीं पढ़ा-सुना की शिव ने उसका इस्तेमाल हिंसक रूप में किया हो। वह अधिक से अधिक अलगनी की तरह है, जिस पर उनका डमरू टंगा हुआ होता है। लोक कथाओं में शिव -पार्वती के प्रेम और उनकी गरीब -हाल गृहस्ती के जो वर्णन हैं, उसे ध्यान से सुनता रहा हूँ । मेरी कल्पना का शिव अत्यंत कोमल और उदार स्वभाव का है, जिसे मैं भी अपनी धड़कन का हिस्सा बनाना चाहता हूँ ।

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लेकिन काशी के शिव कुछ अलग हैं। वह पशुपति नहीं, पंडापति हैं। ब्राह्मण पंडों से घिरे हुए। उनका एक भिन्न चरित्र और इतिहास है। 1902 ईस्वी में गांधीजी वहाँ गए थे। आत्मकथा में उनके वर्णन का एक हिस्सा रखना चाहूँगा। - " मैं ज्ञानवापी के पास गया। मैंने वहाँ ईश्वर को ढूंढा, पर वह नहीं मिला।इससे मन में कुढ़ रहा था। ज्ञानवापी के पास भी गंदगी मिली। कुछ दक्षिणा चढाने की श्रद्धा नहीं थी। इससे मैंने तो सचमुच ही एक पाई चढ़ाई। पुजारी झल्लाए। उन्होंने पाई फेंक दी। दो -चार गालियां सुनाकर बोले - तू यूँ अपमान करेगा, तो नरक में पड़ेगा। ' मैं शांत रहा. बोला- महाराज मेरा तो जो होना होगा, होगा, पर अपशब्द आपके मुंह से शोभा नहीं देते। यह पाई लेनी हो तो ले लीजिए, नहीं तो इससे भी हाथ धोओगे। ' 
'जा जा, तेरी पाई मुझे नहीं चाहिए। कहकर दो -चार और सुना दी। मैं पाई लेकर चलता बना . .. पर महाराज पाई खोने वाले नहीं थे। उन्होंने मुझे वापस बुलाया ' अच्छा धर दो। मैं तुझ जैसा नहीं होना चाहता. मैं न लूँ तो तेरा बुरा होगा। "

 


यह काशी विश्वनाथ का नहीं हर तीर्थ का हाल है। पुरोहितों के चंगुल से कोई तीर्थ बच ही नहीं सकता। वह चाहे किसी भी धर्म मजहब का तीर्थ हो आस्थाका केन्द्रीकरण विकृतियां पैदा करेगा ही। अतएव कोशिश होनी चाहिए कि आस्था से प्रज्ञा की तरफ हम प्रस्थान करें। यूरोप में जिस रेनेसां की बात होती है वह और कुछ नहीं। पादरियों के खिलाफ एक विद्रोह था। उस रेनेसां अथवा नवजागरण का अगला चरण प्रबोधन काल था जिसमें बाइबिल पर भी सवाल उठने लगे। तब यूरोप में ज्ञान-विज्ञान का समय आरम्भ हुआ। हमारे भारत में उन्नीसवीं सदी में राजा राममोहन राय, जोतिबा फुले, स्वामी दयानन्द आदि ने विचारों का एक प्रवाह दिया था। पुरोहितवाद के विरुद्ध सबसे जोरदार आवाज फुले की थी। उसका अगला चरण प्रबोधन का होना था। ब्रिटिश सल्तनत विरोधी राष्ट्रवादी अंगड़ाई के कारण यह संभव नहीं हुआ। 1930 के दशक में भीमराव आम्बेडकर, जवाहरलाल नेहरू और भगत सिंह जैसे कुछ लोगों ने अपने वैज्ञानिक अभिचिन्तन से प्रबोधन की कुछ लकीरें खींचीं; लेकिन राजनीतिक आवेगों ने  उन्हें पल्लवित पुष्पित नहीं होने दिया। प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू की साइंटिफिक टेम्परामेंट की अपील भी प्रभावशाली नहीं हो सकी। लेकिन उन्होंने एक कोशिश तो की उनकी धर्मनिरपेक्ष अपील ने एक नए भारत का ढांचा खड़ा करना जरूर चाहा। यह अलग बात है कि उनके स्वयं के अंतर्विरोधों ने इसे अमली जामा नहीं दिया।
लेकिन आज यह क्या हो रहा है ! इक्कीसवीं सदी में हमने भारत को विज्ञान सम्मत समाज बनाने का वायदा किया था। क्योंकि आज विज्ञान के अलावा और कुछ भी हमारे सामाजिक -आर्थिक चिंतन का आधार नहीं हो सकता। जातपात , धार्मिक अनुदारता ,सामाजिक दकियानूसी सोच जैसी जितनी भी बुराइयां हैं, उनका निदान केवल वैज्ञानिक सोच के पास है। यह विज्ञान पिछली सदियों से कुछ मायनों में पृथक है। क्योंकि पिछली सदियों में हमने टेक्नोलॉजी को ही विज्ञान मान लिया था। आज हम तकनीक के नकार को भी विज्ञान मान सकेंगे , जैसे पर्यावरण के परिप्रेक्ष्य में। भौतिक विकास नहीं , मानवीय खुशियां वास्तविक विकास है।हम इस वैज्ञानिक सोच के निकट हैं। हम पूरी दुनिया ,पूरी सृष्टि को एक नई दृष्टि से देखना चाहते हैं।

 

(प्रेमकुमार मणि हिंदी के चर्चित कथाकार व चिंतक हैं। दिनमान से पत्रकारिता की शुरुआत। अबतक पांच कहानी संकलन, एक उपन्यास और पांच निबंध संकलन प्रकाशित। उनके निबंधों ने हिंदी में अनेक नए विमर्शों को जन्म दिया है तथा पहले जारी कई विमर्शों को नए आयाम दिए हैं। बिहार विधान परिषद् के सदस्य भी रहे।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।