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जिन्‍हें लता मंगेशकर ने ‘तपस्विनी’ तो नेहरू ने दिया 'संगीत की रानी' का ख़िताब

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मनोहर महाजन, मुंबई:
अनेक ख्यातिप्राप्त फ़नकारों ने सुब्बुलक्ष्मी की गायन कला की तारीफ़ की है। लता मंगेशकर ने उनकी संगीत साधना को देखते हुए ‘तपस्विनी’ कहा। उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली खां ने उन्हें ‘सुस्वर-लक्ष्मी’ कहा, तथा किशोरी आमोनकर ने उन्हें ‘आठवां सुर’ कहा, जो संगीत के सात सुरों से ऊंचा है। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू उन्हें 'संगीत की रानी' कहा करते थे। पूज्य बापू  कहते थे कि अगर सुब्बुलक्ष्मी जी ‘हरि, तुम हरो जन की  पीर’ मीरा भजन को गाने के बजाय बोल भी दें, तब भी उनको वह भजन किसी और के गाने से अधिक सुरीला लगेगा। एम एस सुब्बुलक्ष्मी जिनका  पूरा नाम 'मदुरै षण्मुखवडिवु सुब्बुलक्ष्मी' था,का जन्म मदुरै तमिलनाडु में,16 सितम्बर, 1916  को एक मंदिर हुआ था। इस नाते उन्हें  'कुंजाम्मा' यानी 'देवकन्या' भी कहा जाता है। उनके पिता 'वीणा वादक' और नानी 'वॉयलिन वादक' थीं। इसलिए उनको भक्ति गायन और संगीत के संस्कार वहीं से मिले थे। सुब्बुलक्ष्मी ने 8 वर्ष की आयु से गाना शुरू कर दिया था। उन्होंने सेम्मानगुडी श्रीनिवास अय्यर से कर्नाटक संगीत की शिक्षा ली। पंडित नारायण राव व्यास उनके हिंदुस्तानी संगीत में गुरु रहे।

 

 

एम.एस.सुब्बुलक्ष्मी का भक्ति संगीत का पहला एलबम तब आया जब उनकी उम्र केवल दस वर्ष की थी। उन्होंने जिस दौर में गायन शुरू किया उसमें पुरुष गायकों का ही दबदबा था, लेकिन सुब्बुलक्ष्मी ने उस परंपरा को तोड़ा और अपना स्थान बनाया। 17 वर्ष की आयु में उन्होंने 'चेन्नई संगीत अकादमी' में एक 'श्रेष्ठ गायिका' के रूप में अपना नाम दर्ज करा लिया था. प्रारम्भ से ही उनके मन में अपने संगीत के सम्बन्ध में यह भावना थी कि उनके संगीत को सुनकर मुरझाए हुए चेहरों पर परमानन्द की झलक दिखाई दे।

 

 

 

'तमिल' के अलावा के अलावा उन्होंने मलयालम, तेलुगू , हिंदी, संस्कृत,बंगाली और गुजराती में भी गया. उन्होंने 1945 में 'भक्त मीरा' नामक फ़िल्म में बेहतरीन भूमिका अदा की. उन्होंने मीरा के भजनों को अपने सुरों में पिरोया,जो आज तक लोगों द्वारा सुने और सराहे जाते हैं. इनकी अन्य फिल्मों में ‘सेवा सदनम’, ‘सावित्री’ तथा ‘मीरा’ आई.मगर बाद में इन्हें लगा कि 'गायन' ही उनका असली क्षेत्र है, इसलिए फिल्मों में अभिनय करना छोड़ दिया।

 

1936 में वह 'स्वतंत्रता सेनानी सदाशिवम' से मिलीं और 1940 में उनकी जीवन संगिनी बन गयीं। सदाशिवम के पहली पत्नी से चार बच्चे थे, जिन्हें सुब्बुलक्ष्मी ने अपनी संतान की तरह पाला बड़े प्यार से पाला। सुब्बुलक्ष्मी अपने पति सदाशिवम् का आभार मानती थीं। उनका मानना था कि उनके प्रयासों से ही वे सफलताओं की सीढ़ियां चढ़ कर ‘नाइटेंगेल ऑफ इंडिया’ का ख़िताब पा पाईं। 'रामधुन' के निर्माण की प्रेरणा भी उन्हें अपने पति सदाशिवम् से ही मिली थी।


जो लोग उनकी भाषा नहीं समझते थे, वे भी उनकी गायकी के दीवाने थे। उनकी आवाज को 'परमात्मा की अभिव्यक्ति' मानते थे। वे पहली भारतीय महिला हैं, जिन्होंने 'संयुक्त राष्ट्र की सभा' में संगीत कार्यक्रम प्रस्तुत किया। यही नहीं वे कर्नाटक संगीत का सर्वोत्तम पुरस्कार, 'संगीत कलानिधि' प्राप्त करने वाली पहली महिला भी वही है।  उन्हें 1954 में 'पद्म भूषण',1956 में 'संगीत नाटक अकादमी सम्मान', 1974 में 'रैमन मैग्सेसे सम्मान', 1975 में 'पद्म विभूषण', 1998 में 'भारत रत्न' समेत कई सम्मानों से सम्मानित किया गया। 

इसके अलावा कई विश्वविद्यालयों ने उन्हें मानद उपाधि से सम्मानित किया.2016 में उनकी 'जन्म शताब्दी' पर भारत सरकार ने एक 'डाक टिकट' जारी किया। गांधी जी के प्रिय भजन "वैष्णव जन तो तेने कहिए,जो पीर पराई जाने रे" और अन्य ऐसे ही अनेकानेक भजनों और गीतों को 'अमरत्व 'का जामा पहनाने वाली कंठकोकिला भारतरत्न एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी का 11 दिसम्बर 2094 में अट्ठासी वर्ष की आयु स्वयं भी 'अमरत्व' में लीन हो गईं. उनकी 105वीं वर्षगाँठ पर हम उन्हें दिल से सलाम करते हैं।

 

(मनोहर महाजन शुरुआती दिनों में जबलपुर में थिएटर से जुड़े रहे। फिर 'सांग्स एन्ड ड्रामा डिवीजन' से होते हुए रेडियो सीलोन में एनाउंसर हो गए और वहाँ कई लोकप्रिय कार्यक्रमों का संचालन करते रहे। रेडियो के स्वर्णिम दिनों में आप अपने समकालीन अमीन सयानी की तरह ही लोकप्रिय रहे और उनके साथ भी कई प्रस्तुतियां दीं।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।