श्रीनिवास, रांची:
सभ्यताओं के टकराव या मिलन से (ऐसा किसी कौम द्वारा दूसरे पर विजय हासिल करने से होंं; या व्यापार आदि अन्य कारणों से) एक दूसरे पर सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव पड़ता ही है। अंग्रेजी राज का भारत पर कुछ सकारात्मक असर भी हुआ। अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से हम विश्व से, विश्व इतिहास से, आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से परिचित हुए, वैसे अंग्रेज नहीं आते, तो हम शेष दुनिया से कटे रहते, यह धारणा भी सही नहीं है। मुगलों के और उसके पहले भी भारत का व्यापारिक, सांस्कृतिक-आध्यात्मिक सम्बन्ध अनेक देशों से बना हुआ था। भारत से निकल कर कर बौद्ध धर्म दक्षिण व पूर्व एशिया के अनेक देशों तक फ़ैल चुका था। इंडोनेशिया, कम्बोडिया आदि देशों तक हिन्दू धर्म का व्यापक असर हो चुका था। बहरहाल, यह सही है कि अंग्रेजों द्वारा स्थापित स्कूल-कालेजों में; और इंग्लैंड के उच्च शिक्षा संस्थानों में ही पढ़े बहुतेरे भारतीयों ने आजादी के आंदोलन को मजबूती दी। इस प्रक्रिया ने एक मायने में पहली बार भारत को राजनीतिक रूप से एक किया। हालाँकि सच यह भी है कि अंग्रेजी राज के खिलाफ लड़ते हुए ही एक देश के रूप में भारत का मौजूदा स्वरूप बना है। लेकिन अंग्रेज यह सब हमारे ‘उद्धार’ के लिए नहीं कर रहे थे। इसके पीछे उनका अपना स्वार्थ था। मैकाले ने ही कहा था कि वह ऐसे भारतीय गढ़ना चाहता है, जिनका शरीर तो भारतीय होगा, पर मन से वे ‘अंग्रेज’ होंगे। अब उन्हें यहाँ शासन करना था, तो उसके लिए ‘उपयुक्त’ मुलाजिम की दरकार तो थी ही। वैसे मुझे लगता है कि आज भी भारत की एकता और शासन व्यवस्था में उस तंत्र की अहम भूमिका है, हम कितनी भी उसकी आलोचना करें।
अंग्रेजों ने भारत में कानून का शासन स्थापित किया
सही है कि अंग्रेजों ने भारत में कानून का शासन भी स्थापित किया, विधि व्यवस्था के लिए लिखित कायदे कानून लागू हुए। यह और बात है कि ब्रिटिश साम्राज्य को चुनौती दिये जाने पर सारे कायदे कानून मुल्तवी हो जाते थे। उसी कानून का इस्तेमाल वे आजादी के दीवानों को प्रताड़ित करने में भी करते थे। भगत सिंह और उनके साथियों ने तो अंतिम समय में अदालत का बहिष्कार ही कर दिया था- यह कह कर कि वहां कोई न्याय नहीं होता, कि अदालती कार्रवाई महज दिखावा है, कि उनका फैसला तो पहले ही हो चुका है. फिर उन्हें ‘सभ्य’ होने का गुमान भी था। आज भी वे हमें ‘सभ्य’ बनाने का दावा करते हैं!
अंग्रेजी शासन की तुलना में मुस्लिम शासन
जहाँ तक भारत की प्राचीन संस्कृति को नुकसान पहुँचने की बात है, तो मुझे नहीं लगता कि अंग्रेजी शासन की तुलना में मुस्लिम शासन के दौरान हमारी संस्कृति को अधिक नुकसान हुआ। मुस्लिम हमलों या मुग़ल शासन में बहुतेरे मंदिरों को जरूर क्षति पहुंचाई गयी। मगर इसे भी अतिरंजित करके बताया जाता है। अभी अभी एक खबर सामने आयी थी कि पकिस्तान में 126 वर्ष पुराने एक मंदिर पर कुछ उन्मादियों ने हमला कर उसे क्षतिग्रस्त कर दिया था। वहां के सुप्रीम कोर्ट के आदेश से इसे फिर बना दिया गया. इससे यह तो पता चलता ही है कि आज भी पाकिस्तान में अनेक मंदिर सुरक्षित हैं। जो लोग लगातार यह कहते हैं कि मुगलों या मुसलमानों के शासन काल में भारत के सारे मंदिर नष्ट कर दिये, क्या उनसे पूछा नहीं जाना चाहिए कि मुसलिम शासन तो छोड़ो, इसलाम के नाम पर बने पाकिस्तान में भी इस सहित अनेक हिंदू मंदिर कैसे बचे रह गये?
हाँ, उस काल में हिंदू प्रजा के साथ भेदभाव हुआ होगा। मगर इससे हिंदू समाज और धर्म की परंपरा और व्यवस्था पर कोई आंच शायद ही आयी हो। जबकि अंग्रेजी शासन का दुष्प्रभाव आज भी नजर आ रहा है। भोजन और वेश भूषा से लेकर भाषा तक हम अंगरेजी रंग में रंग गये, बल्कि जो नहीं रंग पाया, उसे हम पिछड़ा और ‘गंवार’ भी मानते हैं।
हम अपना कैलेण्डर भूल गये (हालाँकि इसे मैं बड़ा नुकसान नहीं मानता), माँ को मॉम और पिता को पा या डैड कहने लगे। हमारा कोई पारिवारिक समारोह भी फूहड़-अश्लील फ़िल्मी गानों पर कमर हिलाये बिना पूरा नहीं होता। ‘बीड़ी जलइले पिया..’ और ‘चिकनी चमेली..’ जैसे गीतों की धुन पर हमारे बच्चे थिरकते हैं और हम ताली बजाते हैं! हम केक काट कर ‘बर्थ डे’ मनाने लगे। अपने बच्चों की अपनी भाषा में अज्ञानता पर हम शर्मिंदा नहीं होते, उनके अंग्रेजी ज्ञान पर गर्व करते हैं! हिंदी या कोई भारतीय भाषा बोलनेवालों के बजाय टूटी-फूटी भी अंग्रेजी बोलनेवालों की हर जगह पूछ होती है! ड्रेस तो लगभग पूरी तरह, खास कर पुरुषों का, बदल गया।
मुस्लिम शासन का नकारात्मक असर कितना
और यह कहना/मानना भी पूरी तरह सही नहीं है कि मुस्लिम शासन का सिर्फ नकारात्मक असर हुआ। वास्तु कला, संगीत, पहनावे और खानपान पर जो प्रभाव पड़ा, उन सबको नकारात्मक कैसे मान लें। शेरशाह को भी हम लुटेरा ही मान लें? मुसलिम साहित्यकारों-लेखकों, कवियों और संगीतज्ञों (इनकी एक लम्बी सूची है) ने भारत और यहाँ के पौराणिक/ऐतिहासिक पत्रों को केंद्र में रख कर जो कुछ रचा और लिखा है, वह सब निगेटिव है? खुसरो, ग़ालिब, मीर, जौक, जायसी आदि की रचनाएं (उस काल में बनी खूबसूरत इमारतों सहित) क्या हमारी धरोहर नहीं हैं? आधुनिक काल में भी साहिर, कैफ़ी आजमी, निषाद, मो रफ़ी, तलत आदि के गीतों-गानों को हम ‘मुसलिम’ कह कर ठुकरा सकते हैं या उन्हें अभारतीय कह सकते हैं?
अंग्रेज दौर में हजारों बुनकरों के हाथ काट डाले गये
मुस्लिम शासकों के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर को हममें से अधिकतर समझ नहीं पाते, या जानबूझ कर सबों को एक मान लेते हैं। वे अलग अलग नस्लों के थे, भिन्न मुल्कों से आये थे। उनमें परस्पर दुश्मनी भी थी। उनमें एक ख़ास अंतर मेरी समझ से यह भी है कि तुर्क और फारस आदि से आये शुरुआती मुस्लिम हमलावरों/आक्रान्ताओं के बाद आये मुगलों ने भारत को अपना देश मान लिया। वे यहाँ का धन लूट कर कहीं ले नहीं गये। जबकि अंग्रेज सिर्फ लूटते ही रहे। जब भारत में निर्मित वस्तुओं की गुणवत्ता के आगे इंग्लैंड से आयातित वस्तुएं टिक नहीं सकीं, तो कर की छूट देकर उन्हें सस्ता कर दिया, जबकि भारत की बनी वस्तुओं को मंहगा कर दिया। इससे खास कर बंगाल के बुनकर तबाह हो गये। कहा तो यह भी जाता है कि हजारों बुनकरों के हाथ काट डाले गये। इंग्लैंड की खुशहाली का राज भारत सहित अन्य उपनिवेशों की लूट में छिपा है। यही उनका मकसद भी था। अंग्रेजी शासन के पहले भारत में अकाल का जिक्र बहुत कम मिलता है, लेकिन अंग्रेजी काल में शासन की लापरवाही से बार बार अकाल पड़ने लगे।
विदेशी कौम की गुलामी हमेशा शर्मिन्दगी का सबब
बेशक, किसी विदेशी कौम की गुलामी हमेशा शर्मिन्दगी ही मानी जायेगी। लेकिन सच यह भी है कि बाहर से आये मुसलमान भी अंततः भारत की मिट्टी में रच-बस गये। उनके योगदान से एक मिश्रित संस्कृति विकसित हुई, जो अब भारतीय संस्कृति ही है। जिन हिन्दुओं ने किन्हीं कारणों (भय, लोभ या स्वेच्छा) से इस्लाम क़ुबूल कर लिया, वे तो भारतीय थे ही) उधर अंग्रेजों के लिए भारत हमेशा ‘उपनिवेश’ ही रहा, जिसके संसाधनों का दोहन कर अपने देश को समृद्ध करना ही उनका एकमात्र उद्देश्य था। और अंग्रेजी शासन का जो भी सकारात्मक लाभ हुआ, वह हम पर उनका एहसान नहीं था। यह एक सहज प्रक्रिया में हुआ, जो अवश्यम्भावी होता है।
इस्लामी आतंकवाद के शिकार सबसे अधिक मुस्लिम
इस्लामी आतंकवाद का जो चेहरा आज नजर आ रहा है, वह भयावह है। पूरे मानव समाज के लिए चिंताजनक भी है। यह संदेह भी अकारण नहीं है कि ऐसे जूनून को वैचारिक खुराक कहीं मजहब से ही तो नहीं मिल रही; यह भी कि मुस्लिम समाज में शायद इसका अपेक्षित विरोध भी नहीं हो रहा है। फिर भी इसके लिए आम मुसलमानों को तो जिम्मेवार नहीं ही ठहराया जा सकता। भारतीय मुस्लिम समाज को तो और भी नहीं। वैसे इस आतंकवाद के शिकार भी सबसे अधिक मुस्लिम ही हो रहे हैं। यहाँ तो भारत पर दोनों शासनों के प्रभाव की बात हो रही थी। कोई शक नहीं कि मुस्लिम शासन के दौरान हुए भेदभाव और अत्याचार बहुतेरे हिंदुओं को इसलिए चुभते हैं कि अंग्रेज अपने तो 1947 में अपने देश लौट गये, जबकि आज भी भारत में एक बड़ी मुस्लिम आबादी रहती है।
हालाँकि ये लोग हर लिहाज से ‘भारतीय’ ही हैं। और ऐसा भी नहीं है कि मुस्लिम शासन काल में यह आबादी बहुत संपन्न थी और बड़े मौज में थी। सच तो यह है कि अधिकतर मुसलमान धर्मान्तरित हिंदू ही हैं। इनमें से अधिकतर की स्थिति तब भी ऐसी ही थी. इसी तरह सारे हिंदू बदहाल और दरिद्र थे, ऐसा भी नहीं था. और ऐसा भी नहीं कि मुसलमानों के आने के पहले तमाम हिंदू सामान रूप से संपन्न व सुखी थे और सम्मानित जीवन जी रहे थे।
ऊंच-नीच पर आधारित समाज व्यवस्था
हिंदू समाज की आतंरिक व्यवस्था और संरचना के साथ कोई हस्तक्षेप उस दौर में भी नहीं हुआ। यानी हमारी ऊंच-नीच पर आधारित समाज व्यवस्था और परम्पराएँ मुस्लिम काल में; फिर अंग्रेजों के समय भी बदस्तूर चलती रहीं। अंग्रेजों ने तो भारतीय परम्पराओं में (संभवतः सकात्मक उद्देश्य से ही) हस्तक्षेप करने का प्रयास भी किया। जैसे सती प्रथा पर रोक लगा कर; शूद्र जातियों की शिक्षा पर अघोषित रोक को हटा कर। लेकिन मुस्लिम शासकों ने ऐसा कोई प्रयास किया, मुझे ध्यान नहीं है। इस तरह अंगरेजी शासन और मुस्लिम शासन के प्रभाव में किसी को सकारात्मक और नकारात्मक कहना सही नहीं है। यह सही है कि अंगरेजी शासन का असर अधिक गहरा सिद्ध हुआ है. यह कितना सकारात्मक या नकारात्मक है, इस पर मतैक्य कठिन ही होगा।
हिंदू मुस्लिम वैमनस्य को अंग्रेजों ने और सींचा
वैसे भारत पर मुस्लिम शासन का एक दूरगामी प्रभाव यह पड़ा कि इस देश का भूगोल ही बदल गया। इस्लाम के प्रसार से भारत की डेमोग्राफी बदल गयी। हिंदू मुस्लिम वैमनस्य के कुछ कारण तो थे ही, अंगरेजों ने अपने हित में उसे और सींचा। फिर राननीति में धर्म का इस्तेमाल शुरू हुआ। दोनों तरफ धार्मिक संकीर्णता को बढ़ाने और उसके दोहन का खेल शुरू हुआ। यह आज भी बदस्तूर जारी है। आंतरिक कारणों और सांप्रदायिकता के राजनीतिक इस्तेमाल से यह देश पहले दो भागों में बंटा। फिर बंटा टुकड़ा भी बंट गया। मगर हिंदू- मुस्लिम का सवाल आज भी देश को नुकसान पहुंचाने, बांटने का एक बड़ा कारण बना है। इस राजनीति ने करीब बीस फीसदी 'भारतीयों की भारतीयता को ही संदिग्ध बना दिया है।
(लेखक जेपी मूवमेंट से जुड़े रहे। बरसों मुख्यधारा में पत्रकारिता की। संप्रति रांची में रहकर स्वतंत्र लेखन)
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