कनक तिवारी, रायपुर:
यह दिलचस्प विवाद है कि संविधान के अनुच्छेद 163 का असली मर्म सभी संभावित परिस्थितियों में क्या हो सकता है। ‘163: (1) जिन बातों में इस संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने कृत्यों या उनमें से किसी को अपने विवेकानुसार करे, उन बातों को छोड़कर राज्यपाल को अपने कृत्यों का प्रयोग करने में सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रि-परिषद होगी जिसका प्रधान मुख्यमंत्री होगा। (2) यदि कोई प्रश्न उठता है कि कोई विषय ऐसा है या नहीं जिसके संबंध में इस संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने विवेकानुसार कार्य करे तो राज्यपाल का अपने विवेकानुसार किया गया विनिश्चय अंतिम होगा और राज्यपाल द्वारा की गई किसी बात की विधिमान्यता इस आधार पर प्रश्नगत नहीं की जाएगी कि उसे अपने विवेकानुसार कार्य करना चाहिए था या नहीं। (3) इस प्रश्न की किसी न्यायालय में जांच नहीं की जाएगी कि क्या मंत्रियों ने राज्यपाल को कोई सलाह दी, और यदि दी तो क्या दी।‘
सुप्रीम कोर्ट ने 5 सदस्य संविधान पीठ में मध्यप्रदेश स्पेशल पुलिस इस्टेबलिशमेंट बनाम म.प्र. राज्य मामले में संवैधानिक प्रतिमान स्थिर किए हैं। उनका सूक्ष्म अवलोकन संवैधानिक प्रावधानों का सही विवेचन करता है। मध्यप्रदेश के दो मंत्रियों के खिलाफ म.प्र. लोकायुक्त अधिनियम के तहत लोकायुक्त ने जांच में उन्हें भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम 1988 के तहत दोषी पाकर उनके विरुद्ध पुलिस में प्रथम सूचनापत्र दर्ज कराया। लोकसेवक मंत्रियों के विरुद्ध दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 के तहत मंत्रिपरिषद अर्थात मुख्यमंत्री ने पूर्व मंजूरी नहीं दी। तब राज्यपाल ने प्रकरण में मंत्रियों की संलिप्तता समझते अपराधिक कार्यवाही संस्थित करने अनुमति दे दी। म.प्र. हाईकोर्ट के एकल जज ने राज्यपाल का आदेश अनुच्छेद 163 (1) के मातहत मंत्रिपरिषद की राय के बिना करने पर खारिज कर दिया। हाई कोर्ट की डिवीजन बेंच में वही आदेश कायम रहा। लोकायुक्त पुलिस संगठन ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। वहां मामले पर बहुत गंभीर विचारण हुआ।
सुप्रीम कोर्ट को बताया गया संविधान मे कई अनुच्छेद हैं जहां राज्यपाल राज्यमंत्रिपरिषद से सलाह किए बिना आदेश कर सकते हैं। मसलन अनुच्छेद 139 (2) अनुच्छेद 356, पांचवीं अनुसूची और अनुच्छेद 200 में तो मुखर प्रावधान हैं। सुप्रीम कोर्ट ने माना राज्यपाल अमूमन मंत्रिपरिषद की सलाह और राय मानने बाध्य हैं। लेकिन संविधान निर्माताओं ने स्पष्ट प्रावधान रचे कि कई स्थितियों में राज्यपाल को स्वयमेव निर्णय का अधिकार देना मुनासिब होगा। अन्यथा लोकतंत्र में संवैधानिक भावना का विलोप हो सकता है। राज्यपाल के स्वविवेक और मंत्रिपरिषद के सामूहिक विवेक के बीच संविधान स्पेस छोड़ता है। उसे संवैधानिक न्यायालयों द्वारा बूझा और निर्णीत किया जा सकता है। ऐसी स्थितियां कभी कभार होंगी लेकिन असामान्य स्थितियों की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने पाया मध्यप्रदेश का मामला एक असमान्य मामला है। गंभीरता से बूझने के बदले मध्यप्रदेश हाई कोर्ट ने उसे सरसरी तौर पर निपटा दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की कि अनुच्छेद 163 (2) और 163 (3) का भी अवलोकन जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट ने यह नोट किया कि प्रमुख लोकायुक्त सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज हैं। इसलिए ऐसा अनुमान करना अनुचित है कि उन्होंने बिना किसी विश्वसनीय साक्ष्य के मंत्रियों के विरुद्ध कोई अवधारणा बना ली हो। कोर्ट ने संकेत किया जांच आयोग का पीठासीन अधिकारी संविधान न्यायालय का जज है। तो सामान्य धारणा होगी उसने न्यायिक विवेक के आधार पर ही निर्णय किया होगा। आयोग में पूर्व न्यायिक अधिकारी होने से उनके न्यायिक विवेक, मंत्रिपरिषद के सामूहिक विवेक और राज्यपाल के स्वविवेक के तुलनात्मक संदर्भ को व्याख्यायित करने की जरूरत सुप्रीम कोर्ट ने नहीं व्यक्त की। अवधारणा कायम रही कि सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज की न्यायिक क्षमता पर बिना समुचित विचारण के दरकिनार मध्यप्रदेश हाई कोर्ट द्वारा नहीं कर दिया जाना चाहिए था। जांच आयोगों के निष्कर्षों को संविधान न्यायालयों द्वारा निरस्त भी किया जाता रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि मध्यप्रदेष हाई कोर्ट ने निष्कर्षों की वैधता को लेकर कोई संतोषजनक मीमांसा नहीं की।
प्रकरण में मुख्य आरोप था कि मंत्रियों ने अपराधिक साजिश में हिस्सेदारी की। सुप्रीम कोर्ट ने महत्वपूर्ण टिप्पणी की कि साजिश को सबूत करना न्यायालय में ही हो सकता है। उसे हाई कोर्ट ने अपनी बहस में कैसे सुन, समझ और निराकृत कर दिया। लोकायुक्त के निष्कर्ष को बिना जांचे ही हाई कोर्ट ने खारिज कर दिया। किसी न्यायालय द्वारा ही मंत्रियों द्वारा साजिश करने के आरोप की जांच की जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने माना मंत्रिपरिषद पर प्रत्यक्ष पक्षपात या तरफदारी का आरोप लगता दिखाई नहीं पड़ता। न ही ऐसा आरोप लगाया गया। यह भी नहीं है कि मंत्रिपरिषद ने मंजूरी नहीं देने में कोई दुर्भावना दिखाई। संविधान के अनुसार मंत्रिपरिषद एक जिम्मेदार निकाय है। उससे सद्भावनापूर्वक अपेक्षा की जाती है कि पक्षपातरहित होकर ईमानदारी से विधिसम्मत आचरण करेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने सूक्ष्म बात कही यदि प्रथम दृष्टि में लोकायुक्त और राज्यपाल को अपराधिक प्रकरण मंत्रियों के खिलाफ बनता दिखाई दिया। तो उसे सरसरी तौर पर मंत्रिपरिषद द्वारा ही यदि खारिज कर दिया जाता रहेगा। तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा। यह भी हो सकता है कई निर्वाचित जनप्रतिनिधि खुला भ्रष्टाचार करें और उम्मीदजदा रहें कि उनके विरुद्ध अपराधिक प्रकरण दर्ज करने का अनुमोदन किया ही नहीं जा सकेगा। कोर्ट ने कहा कि पक्षपात या तरफदारी का कोई मामला मंत्रिपरिषद के आचरण से नहीं दिखाई देता हो। तब भी मंत्रिपरिषद द्वारा अपने सहयोगी मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में मंजूरी नहीं देने से पक्षपात या तरफदारी की संभावना तो बन सकती है। ऐसी संभावना के मुकाबले लोकायुक्त द्वारा की गई जांच और उस पर वस्तुपरक ढंग से किया गया राज्यपाल का विचारण सुप्रीम कोर्ट को आदेश करने के लिए उपलब्ध है। कोर्ट ने कहा पक्षपात या तरफदारी की संभावना देखते तथा लोकायुक्त की साजिश के संबंध में निष्कर्षों पर न्यायालय में विचारण होने देने के बदले मंत्रिपरिषद ने खुद ही नकार दिया। यह संवैधानिक व्यवस्थाओं का उल्लंघन है। इसलिए मंत्रियों पर भ्रष्टाचार का मुकदमा चलेगा। मंत्रिपरिषद और हाई कोर्ट के आदेशों को निरस्त करना ही न्यायालय और संविधान के अनुकूल होगा।
(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं। छत्तीसगढ़ के महाधिवक्ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्वतंत्र लेखन।)
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