द फॉ़लोअप टीम, डेक्स
ताइवान व तिब्बत को लेकर अमेरिका और चीन के बीच तनातनी चरम पर है। दोनों देशों के बीच तनाव इस कदर है कि यह गतिरोध नए शीत युद्ध को जन्म दे सकता है। अभी हाल ही में तिब्बती राष्ट्राध्यक्ष के अमरिकी दौरे के बाद से चीन और अमेरिका के बीच नए सिरे से तल्खी बढ़ गयी है।
चीन-ताइवान गतिरोध
ताइवान को लेकर अमेरिका और चीन के बीच तनातनी चरम पर है। संयुक्त राज्य अमेरिका में भले ही सत्ता परिवर्तन को लेकर सियासी संकट चल रहा हो, लेकिन चीन को लेकर उसकी धारणा साफ है। अमेरिका ने हाल ही में चीन की वायु रक्षा क्षेत्र में बमवर्षक विमान भेज कर उसे सावधान किया था। अमेरिका का यह कदम चीन को खुली चेतावनी थी। अमेरिका ने साफ संदेश दिया कि चीन अपनी हरकतों से बाज आए नहीं तो अमेरिकी सेना की क्षमता उसके घर के अंदर जाकर मारने की क्षमता रखती हैं। खास बात यह है कि अमेरिकी विमान ऐसे वक्त चीन की हवाई सीमा में प्रवेश किए जब चीन एक नौसना अभ्यास कर रहा है। दोनों देशों के बीच तनाव इस कदर है कि एक नए शीत युद्ध को जन्म दे सकता है। आइए हम आपको बताते हैं ताइवान को लेकर अमेरिका और चीन के बीच क्या है फसाद की जड़। ताइवान के ऊपर चीन के प्रभुत्व में कितना है दम।
क्या है ताइवान के प्रति चीनी दृष्टिकोण
चीन ने हमेशा से ताइवान को अपने एक प्रांत के रूप में देखा है, जो उससे अलग हो गया है। हालांकि, बीजिंग का पक्का विश्वास है कि भविष्य में ताइवान चीनी का हिस्सा बनेगा। उधर, ताइवान की एक बड़ी जनसंख्या अपने आपको एक अलग देश के रूप में मानती रही है। चीन और ताइवान के बीच संघर्ष का मूल कारण यही है। वर्ष 2000 में ताइवान की सत्ता चेन बियान के हाथों में आई। चेन ताइवान के राष्ट्रपति चुने गए। वह ताइवान की स्वतंत्रता के बड़े हिमायती थे। चीन को ताइवान की स्वतंत्रता की बात खटक गई। तब से ताइवान और चीन के बीच संबंध तनावपूर्ण है। हालांकि, समय-समय पर ताइवान ने चीन के साथ व्यापारिक संबंधों को बेहतर बनाने के प्रयास किए हैं।
अमेरिका का सातवां बेड़ा ताइवान की पहरेदारी के लिए तैनात
वर्ष 1949 में चीन में चल रहे गृहयुद्ध के अंत में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के संस्थापक माओत्से तुंग ने पूरे चीन पर अपना अधिकार कर लिया था। उस वक्त राष्ट्रवादी विरोधी नेताओ और उनके समर्थक ताइवान की ओर रुख कर गए। माओ के डर से ताइवान अमेरिका के संरक्षण में चला गया। 1950 में अमेरिका ने जंगी जहाज का सातवां बेड़ा ताइवान और चीन के बीच पहरेदारी करने के लिए भेजा। 1954 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति आइजन हावर ने ताइवान के साथ रक्षा संधि पर दस्तखत किए।
ताइवान का इतिहास
वर्ष 1662 से 1661 तक ताइवान नीदरलैंड की कॉलीनी था। इसके बाद चीन में चिंग राजवंश का शासन रहा। वर्ष 1683 से 1895 तक इस वंश का शासन रहा। 1895 में जापान के हाथों चीन की हार के बाद वह जापान का हिस्सा बन गया। दूसरे विश्व युद्ध में जापान की हार के बाद अमेरिका और ब्रिटेन ने तय किया कि ताइवान को चीन के शासक चैंग कोई शेक को सौंप देना चाहिए। उस वक्त चीन के बड़े हिस्से में चैंग का कब्जा था। चैंग और चीन की कम्युनिस्ट सेना के बीच हुए सत्ता संघर्ष में हार का सामना करना पड़ा।
ताइवान का पूरा नाम रिपब्लिक ऑफ चाइना
ताइवान एक राष्ट्र न होते हुए भी उसकी अपनी सरकार है। उसका अपना राष्ट्रपति है। अपनी मुद्रा है। अपनी सेना है। इन सबके बावजूद ताइवान को संपूर्ण राष्ट्र का दर्जा हासिल नहीं है। आधिकारिक तौर पर इसका नाम रिपब्लिक ऑफ चाइना है। चीन का हम पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना है, जबकि ताइवान केवल रिपब्लिकन ऑफ चाइना है। ताइवान की आबादी ढाई करोड़ से कम है। इसकी राजधानी ताइपेई है। चीन की समुद्री सीमा से मात्र सौ मील की दूरी पर स्थित एक द्वीप है। इस छोटे से द्वीप का औद्योगिक विकास बहुत तेजी से हुआ है। ताइवान की अर्थव्यवस्था काफी मजबूत है। इसकी मुद्रा ताइवानी डॉलर भारतीय रुपये से काफी मजबूत है।
चीन-तिब्बत गतिरोध
अमेरिका और चीन के बीच चल रहे व्यापारिक गतिरोध के बीच तिब्बत की निर्वासित सरकार के प्रमुख डॉक्टर लोबसांग सांगे ने व्हाइट हाउस का दौरा किया है। बीते शुक्रवार को डॉक्टर सांगे ने व्हाइट हाउस में तिब्बत मामलों के नवनियुक्त समन्वयक रॉबर्ट डेस्ट्रो से मुलाकात की। तिब्बत की निर्वासित सरकार के किसी नेता का यह बीते छह दशकों में पहली आधिकारिक अमेरिकी यात्रा है। अमेरिका के इस कदम से चीन के साथ पहले से चल रहे तल्ख रिश्तों में और तनाव पैदा हो सकता है। जानकारों के मुताबिक केंद्रीय तिब्बती प्रशासन (सीटीए) के लिए यह एक ऐतिहासिक कदम है क्योंकि इससे सीटीए की प्रजातांत्रिक व्यवस्था और इसके राजनीतिक प्रमुख दोनों को मान्यता मिलती है। बता दें कि केंद्रीय तिब्बती प्रशासन (सीटीए) का मुख्यालय भारत स्थित हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में है।
तिब्बत के प्रति चीनी दृष्टिकोण
चीन और तिब्बत के बीच विवाद, तिब्बत की कानूनी स्थिति को लेकर है। चीन कहता है कि तिब्बत तेरहवीं शताब्दी के मध्य से चीन का हिस्सा रहा है लेकिन तिब्बतियों का कहना है कि तिब्बत कई शताब्दियों तक एक स्वतन्त्र राज्य था और चीन का उसपर निरंतर अधिकार नहीं रहा।
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तिब्बत का इतिहास
मंगोल राजा कुबलई खान ने युआन राजवंश की स्थापना की थी और तिब्बत ही नहीं बल्कि चीन, वियतनाम और कोरिया तक अपने राज्य का विस्तार किया था। फिर सत्रहवीं शताब्दी में चीन के चिंग राजवंश के तिब्बत के साथ संबंध बने. 260 साल के रिश्तों के बाद चिंग सेना ने तिब्बत पर अधिकार कर लिया, लेकिन तीन साल के भीतर ही उसे तिब्बतियों ने खदेड़ दिया और 1912 में तेरहवें दलाई लामा ने तिब्बत की स्वतन्त्रता की घोषणा की। फिर 1951 में चीनी सेना ने एक बार फिर तिब्बत पर नियन्त्रण कर लिया और तिब्बत के एक शिष्टमंडल से एक संधि पर हस्ताक्षर करा लिए जिसके अधीन तिब्बत की प्रभुसत्ता चीन को सौंप दी गई। दलाई लामा भारत भाग आए और तभी से वे तिब्बत की स्वायत्तता के लिए संघर्ष कर रहे हैं।