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बिहार में आरक्षण की तरह क्या रोजगार भी छलावा साबित होगा? क्या सही में बदलाव के मूड में हैं वोटर?

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द फॉलोअप टीम, पटना :
बिहार के हर चुनाव में जातिगत समीकरण के अलावा आरक्षण का मुद्दा भी उछाला जाता है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने हाल ही में एक रैली में कहा कि जितनी आबादी हो उसके हिसाब से आरक्षण होना चाहिए। लेकिन उनके इस बयान का भी राजनीतिक दलों या वोटरों ने इसपर रियेक्ट नहीं किया। क्या यह माना जाए कि अब आरक्षण कोई मसला नहीं रहा? कई दफे तो आरक्षण के जिन्न को जबरदस्ती बोतल से निकाला जाता है। लेकिन दशकों बाद इस चुनाव में आरक्षण का मुद्दा गौण हो गया है। दरअसल, कोरोना काल ने लोगों की जीवनशैली ही नहीं, सोच बदलने के लिए भी मजबूर कर दिया है। 
 
आरक्षण नहीं, रोजगार का मुद्दा हावी हो गया
याद करें 2015 में आरक्षण के मुद्दे पर मोहन भागवत के कथित बयान को लेकर लालू ने उस समय के चुनाव का समीकरण ही बदल दिया था, वो मुद्दा अब मुद्दा रहा ही नहीं। दरअसल, कोरोना काल में चुनाव के मुद्दे भी बदल गए, दशकों पुराने मुद्दे के गायब होने के पीछे भी इसी को वजह मान सकते हैं। तेजस्वी के दस लाख नौजवानों को रोजगार देने के वादे ने आरक्षण के मुद्दे को एक तरह से किनारे लगा दिया।

क्या रोजगार का मुद्दा भी छलावा साबित होगा? 
राजनीतिक समीक्षक मानते हैं कि चुनाव में राजनीतिक पार्टियां अपनी सहूलियत के हिसाब से एजेंडा सेट करती हैं। कोरोना काल में पलायन के साथ बेरोजगारी भी एक बड़ी समस्या के रुप में उभरकर सामने आई। दरअसल, तेजस्वी के थिंकटैंकरों ने बड़ी चतुराई से रोजगारी के मुद्दे को लपक लिया। अहम सवाल ये है कि क्या आरक्षण की तरह रोजगार भी एक छलावा साबित होगा? क्योंक ये हमेशा से होता आया है कि चुनाव के दौरान पार्टियां आरक्षण को मुद्दा तो बनाती आई हैं लेकिन इसे लागू करना एक चुनौती रहा है। एक तो सरकार का राजस्व घट रहा है, ऊपर से नौकरी देने के लिए उद्योग-धंधे नहीं हैं तो फायदा मिलेगा कैसे। नए मुद्दे रोजगार की बात करें तो इसमें भी यही दिक्कत है। इसलिए इसे निभाना आसान नहीं है। 

जातिगत समीकरण बना है वोट का आधार
रोजगारी का मुद्दा उठाने के बाद तेजस्वी ने भी अंततः जातिगत समीकरण को उछालने से बाज नहीं आए। ऐसा लग रहा था कि बिहार चुनाव में रोजगार एक बड़ा चुनावी मुद्दा बनेगा, लेकिन ऐसा अभी तक नहीं दिख रहा है। तेजस्वी यादव का 'बाबू साहब' के बयान ने असल चुनावी मुद्दों को ही पीछे छोड़ दिया है। हालांकि तेजस्वी ने इस मामले में अपनी साफगोई पेश की, लेकिन अगड़ी जातियों में इसका क्या प्रभाव छोड़ पाया, यह अभी कहना मुश्किल है। दूसरी ओर बिहार की राजनीति में लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों में हर जाति के अपने-अपने बाहुबली नेता हैं। इसी आधार पर इन बाहुबली नेताओं को चुनावों में राजनीतिक दल जातिगत समीकरणों को ध्यान में रख कर प्रत्याशी भी बनाते हैं। क्योंकि बिहार की राजनीति में जातिगत, बाहुबल और पैसे की ताकत राजनीति की बिसात में अहम भूमिका होती है। दिवंगत रामविलास पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी पूरी तरह जातिगत समीकरणों पर आधारित है। वहीं लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल को मुस्लिम-यादव गठजोड़ के रूप में देखा जाता है। नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड  को भी कुर्मी-कोयरी की पार्टी की संज्ञा दी जाती है। वहीं भूमिहार, कायस्थ, ब्राह्मण इत्यादि और वैश्य भारतीय जनता पार्टी के वोटर माने जाते हैं। 


हर जाति में बेरोजगारी का आलम
दरअसल, जात की राजनीति के कारण ही बिहार के गांवों में लोग आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य, सिंचाई और रोजगार जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए सरकार की तरफ आंख लगाए हुए हैं। हालांकि यह भी सच है कि बिहार की जनता ने कई बार जातिगत समीकरणों से ऊपर उठ कर मतदान किया है। दिवंगत कर्पूरी ठाकुर, लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार की सरकार इसके उदाहरण हैं, लेकिन अफसोस की बात यह है कि सत्ता में आने के बाद इन राजनीतिक दलों ने जातिगत राजनीति को तवज्जो देकर जनता की भावनाओं को ठेस ही पहुंचाने का काम किया है। इस बार के चुनाव में बेरोजगारी बहुत बड़ा मुद्दा बनकर सामने आया है, क्योंकि हर जाति में बेरोजगारी का आलम है। जब नौकरी है नहीं, तो आरक्षण लेकर भी कोई क्या कर लेगा।