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शक्ति वामा-9: शत्रुपक्ष की स्त्री का अपमान करके प्रतिशोध लेना कितना नैतिक !

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या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता। 
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:||

स्त्री-शक्ति की उपासना के नौ-दिवसीय आयोजन की शुभकामनाएं। इस आशा के साथ कि स्त्री-शक्ति की पूजा की यह गौरवशाली परंपरा स्त्रियों के प्रति सम्मान के अपने मूल उद्देश्य से भटककर महज कर्मकांड बनकर न रह जाए।-संपादक

ध्रुव गुप्ता, पटना:

एक बार फिर राम के विजयोत्सव और रावण के पुतला-दहन की प्राचीन परंपरा को दुहराने का समय आ गया है। बेशक रावण का अपराध गंभीर था कि उसने देवी सीता का अपहरण किया था। इस अपराध को इसीलिए न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता कि उसने ऐसा अपनी बहन शूर्पणखा के अपमान का बदला लेने के लिए  किया था। शूर्पणखा का अपमान अगर राम और लक्ष्मण ने किया था तो उसका बदला भी उन्हीं से लिया जाना चाहिए था। अपने पक्ष की स्त्री के अपमान का प्रतिशोध शत्रुपक्ष की स्त्री का अपमान करके लेने को किसी भी दृष्टि से नैतिक नहीं ठहराया जा सकता। यह स्त्री को पुरुष की वस्तु या संपति समझने की घृणित मानसिकता है। हां, इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि इस अपराध के बीच रावण के चरित्र का एक उजला पक्ष भी रहा था। रावण ने अपनी बहन की नाक के एवज में सीता की नाक काटने का प्रयास नहीं किया। सीता के साथ उसका आचरण मर्यादित हीं था। उनकी इच्छा के विरुद्ध रावण ने उनसे निकटता बढ़ाने का कोई प्रयास नहीं किया। स्वयं महर्षि बाल्मीकि ने इस तथ्य की पुष्टि करते हुए लिखा है - राम के वियोग में व्यथित सीता से रावण ने कहा कि यदि आप मेरे प्रति काम-भाव नहीं रखती हैं तो मैं आपका स्पर्श भी नहीं कर सकता।

 

 

दशहरे का दिन राम के हाथों रावण की पराजय और मृत्यु का दिन है।  किसी युद्ध में  एक योद्धा के लिए विजय और पराजय से ज्यादा बड़ी बात उसका पराक्रम माना जाता रहा  है। रावण अपने जीवन के अंतिम युद्ध में एक योद्धा की तरह लड़ा। राम ने उसे मारकर उसे उसके अपराध का दंड दिया।  राम ज्ञानी थे। वे रावण के अहंकार के बावजूद उसकी विद्वता और ज्ञान का सम्मान करते थे। उसकी मृत्यु पर दुखी भी हुए थे। उसके मरने से पहले उन्होँने ज्ञान की याचना के लिए भ्राता लक्ष्मण को उसके पास भेजा था। फिर हम कौन हैं जो सहस्त्रों सालों से रावण को निरंतर जलाए जा रहे हैं ? एक अपराध का कितनी बार दंड निर्धारित है हिन्दू  नीतिशास्त्र में ?  हमारी संस्कृति में तो युद्ध में लड़कर जीतने वालों का ही नहीं, युद्ध में लड़कर मृत्यु को अंगीकार करने वाले योद्धाओं को भी सम्मान देने की परंपरा रही है। एक योद्धा की मृत्यु का उत्सव हर युग में अस्वीकार्य  है। वैसे भी देश-दुनिया के लंबे इतिहास में रावण अकेला अपराधी नहीं था। उससे भी बड़े अभिमानी, दुराचारी और हत्यारे हमारी दुनिया में  हुए हैं।एक अकेले रावण के प्रति ही हमारा ऐसा दुराग्रह क्यों ? 

 

अब रावण में कितनी अच्छाई थी और कितनी बुराई , इस पर बहस होती रहेगी। एक शिकायत इस देश के चित्रकारों और मूर्तिकारों से अवश्य रहेगी। वे लोग रावण के ऐसे कुरूप और  वीभत्स पुतले, चित्र अथवा मूर्तियां क्यों बनाते हैं ?  रावण कुरूप तो बिल्कुल नहीं था। उसके दस सिर भी नहीं थे। दस सिर की कल्पना यह दिखाने के लिए की गई थी कि उसमें दस लोगों के बराबर बुद्धि और बल था। जैसा कि रामलीला, हमारे फिल्मों या टीवी सीरियल्स में चित्रित किया जाता रहा है वह सदा प्रचंड क्रोध से भी नहीं भरा रहता था और न मूर्खों की भांति बात-बेबात अट्टहास ही किया करता था। 'रामायण' में ऐसे प्रसंग भरे पड़े हैं जिनसे यह अनुमान होता है कि अहंकार के बावजूद रावण में गंभीरता थी और  स्थितियों के अनुरूप आचरण का विवेक भी। देखने में भी वह राम से कम रूपवान नहीं था। तब उसके रूप और सौंदर्य के उदाहरण दिए जाते थे। हनुमान पहली बार उसे देखकर मोहित हो गए थे। 'वाल्मीकि रामायण' का यह श्लोक देखें- 'अहो रूपमहो धैर्यमहोत्सवमहो द्युति:।अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता॥' अर्थात रावण को देखते ही हनुमान मुग्ध होकर कहते हैं कि रूप, सौंदर्य, धैर्य, कांति सहित सभी लक्षणों से युक्त रावण में यदि अधर्म बलवान न होता तो वह देवलोक का भी स्वामी बन सकता था। 

क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि रावण को वीभत्स दिखाकर अथवा उसकी हत्या का वार्षिक समारोह मनाकर वस्तुतः हम अपने भीतर के काम, क्रोध, अहंकार और भीरुता से ही आंखें चुराने का प्रयास कर रहे होते हैं ? स्त्रियों की अस्मिता और उनके साथ होने वाले अपराध को सिर्फ रावण के साथ ही क्यों जोड़कर देखा जाता है ? स्त्रियों के प्रति हम इतनी ही चिंता से भरे हुए है तो हमें रावण के पुतलों की जगह देश के कोने-कोने में हर दिन हमारी बच्चियों और स्त्रियों का शोषण, बलात्कार और क्रूर हत्या करने वाले दरिंदों को सज़ा देने और दिलाने की कोशिशें करनी चाहिए। दुर्भाग्य से ऐसा हम आजतक नहीं कर पाए। स्त्रियां आज भी हमारे समाज में असुरक्षित हैं और उनके साथ घट रहे अपराधों के प्रति हम आज भी संवेदनहीन और उदासीन।  रावण के बेजान पुतलों को जलाने में कोई शौर्य नहीं है। जलाना ही है तो अपने भीतर छुपी लंपटता, कामुकता  और बलात्कारी मानसिकता जैसे मनुष्यता के शत्रुओं को जलाकर राख कर डालिए ! रामराज्य की कल्पना को साकार करने की दिशा में हमारी यह सकारात्मक, सच्ची पहल होगी।

 

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(लेखक आईपीएस अफ़सर रहे हैं। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। सहमति के विवेक के साथ असहमति के साहस का भी हम सम्मान करते हैं।