द फॉलोअप डेस्क
झारखंड हाईकोर्ट ने अपने एक अहम आदेश में स्पष्ट किया है कि किसी अधिकारी का पिछला स्वच्छ आचरण उसे अनुशासनात्मक सजा की मात्रा में संशोधन करने का आधार नहीं बन सकता है, खासकर जब उस सजा को अपीलीय प्राधिकारी और एकल-न्यायाधीश पीठ द्वारा पहले ही पुष्टि की जा चुकी हो। यह आदेश सीआईएसएफ, बीएसएल के एक पूर्व सहायक कमांडेंट द्वारा दायर अपील पर विचार करते हुए दिया गया, जिसमें आरोप था कि उन्होंने अपने कार्यालय में एक इंस्पेक्टर की जाति पर टिप्पणी की थी।
मामले की सुनवाई झारखंड हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस एम.एस. रामचंद्र राव और जस्टिस गौतम कुमार चौधरी की खंडपीठ में हुई। अदालत ने कहा कि किसी कर्मचारी का अनुशासन और आचरण विशेष रूप से महत्वपूर्ण होता है, जब वह एक अनुशासित बल जैसे सीआईएसएफ का सदस्य हो। कोर्ट ने यह भी कहा कि जब आरोप गंभीर होते हैं, जैसा कि इस मामले में है, तो सजा में नरमी की कोई गुंजाइश नहीं हो सकती।
मामला 2008 और 2009 का था, जब अपीलकर्ता सीआईएसएफ में सहायक कमांडेंट के पद पर कार्यरत था। उस पर आरोप था कि उसने एक एएसआई के सामने एक इंस्पेक्टर की जाति (एससी) पर टिप्पणी की थी, जिससे कदाचार का माहौल उत्पन्न हुआ। 2009 में, उसने फिर से एक अन्य एएसआई के सामने उस इंस्पेक्टर की जाति का उल्लेख करते हुए अपमानजनक टिप्पणी की। इसके बाद, अपीलकर्ता के खिलाफ कार्रवाई शुरू की गई, जिसमें मासिक पेंशन में 20% की कटौती और उसकी पूरी ग्रेच्युटी जब्त करने का जुर्माना लगाया गया।
अपीलकर्ता ने इस निर्णय के खिलाफ विभागीय अपील दायर की, जो खारिज कर दी गई। इसके बाद उन्होंने सिंगल बेंच के आदेश को डबल बेंच में चुनौती दी। हालांकि, अदालत ने माना कि अपीलकर्ता के आचरण को लेकर आरोप साबित हो चुके हैं और यह कदाचार एक गंभीर प्रकृति का था। कोर्ट ने यह भी कहा कि अपीलकर्ता ने चार्ज मेमो में इस्तेमाल किए गए शब्द 'घोर कदाचार' का लाभ नहीं उठाया, क्योंकि यह शब्द कदाचार की गंभीरता को दर्शाता है।
इस मामले में रजनी कांत पात्रा द्वारा हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की गई थी, लेकिन अंततः कोर्ट ने अपील खारिज कर दी और विभागीय सजा को सही ठहराया। यह आदेश सरकारी कर्मचारियों के अनुशासन और आचरण के महत्व को रेखांकित करता है, खासकर जब मामला संवेदनशील और गंभीर हो।