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झारखंड के एसटी आरक्षित लोकसभा सीट पर जीतना बीजेपी की असली चुनौती, कैसा है अतीत

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द फॉलोअप डेस्क, रांची:

लोकसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान इसी महीने कभी भी किया जा सकता है। बीजेपी ने पहले चरण में देश के 16 राज्यों और 2 केंद्र शासित प्रदेशों की 195 लोकसभा सीटों पर उम्मीदवारों का ऐलान कर दिया है। झारखंड की 14 में से 11 लोकसभा सीटों पर उम्मीदवारों का ऐलान किया है। इनमें से 5 लोकसभा सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है। बीजेपी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में इन 5 में से 2 एसटी सीटें गंवा दी थी। बीजेपी को राजमहल और सिंहभूम में हार मिली थी। सिंहभूम में लक्ष्मण गिलुवा बीजेपी के उम्मीदवार थे जिन्हें तब कांग्रेस की गीता कोड़ा ने हराया था। राजमहल में हेमलाल मुर्मू बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़े थे जिन्हें झामुमो के विजय हांसदा के हाथों शिकस्त मिली थी। पिछले आम चुनाव में बीजेपी जरूर 11 सीटें जीतने में सफल रही थी लेकिन राजमहल और सिंहभूम में हार की कसक आज भी चुभती है। पिछले 1 साल में भारतीय जनता पार्टी में राजमहल और सिंहभूम लोकसभा सीट को लेकर सर्वाधिक मंथन हुआ। गृहमंत्री अमित शाह तो पिछले साल चाईबासा और देवघर गये। कार्यकर्ताओं के साथ मंथन किया और फीडबैक लिया कि कैसे यह सीटें जीत सकते हैं। 

उम्मीदवारों के ऐलान में बाबूलाल मरांडी की राय सर्वोपरि
कहा जा रहा है कि इस लोकसभा चुनाव में झारखंड की 14 सीटों पर उम्मीदवारों का नाम तय करने में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी की राय को सर्वोपरि रखा गया। अब तक जिन 11 सीटों पर प्रत्याशियों के नाम का ऐलान किया गया है, कहा जा रहा है कि इसमें बाबूलाल मरांडी की बड़ी भूमिका रही है। अब सियासी जानकारों का मानना है कि इस बार आम चुनावों में झारखंड बीजेपी के अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी की असली चुनौती महज 14 लोकसभा सीटों पर जीत भर नहीं है बल्कि अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सभी 5 सीटों पर जीत है। इनमें भी राजमहल चाईबासा पर खास निगाहें रहेंगी। चाईबासा को लेकर बीजेपी आत्मविश्वासी महसूस कर सकती है क्योंकि वहां की मौजूदा सांसद गीता कोड़ा अब कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में आ चुकी है। वहीं, राजमहल में 2 बार विधायक और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष रह चुके ताला मरांडी को मौका दिया गया है। राजमहल में आखिरी बार साल 2009 में बीजेपी जीती थी। तब देवीधन बेसरा सांसद बने थे। 2014 और 2019 में लगातार 2 बार बीजेपी ने यह सीट गंवा दी। दोनों ही बार झामुमो से बीजेपी में आये हेमलाल मुर्मू को मौका दिया गया था। वह नतीजा बदल नहीं पाये। 

पिछले 1 साल में बहुत बदला है राजनीतिक समीकरण
पिछले 1 साल में बहुत कुछ बदल गया है। हेमलाल मुर्मू की घर वापसी हो गई है। वह अब झामुमो में हैं। वरीय झामुमो नेता और लोबिन हेम्ब्रम का बागी रुख जारी है। वह खुलेआम ऐलान कर चुके हैं कि वह राजमहल में मौजूदा सांसद विजय हांसदा के खिलाफ प्रचार करेंगे। जरूरत पड़ी तो निर्दलीय चुनाव भी लड़ेंगे। हालांकि, इसका कुछ फायदा बीजेपी को मिलेगा, ऐसा कहना जल्दीबाजी होगी। खूंटी लोकसभा सीट पर पिछले चुनाव में अर्जुन मुंडा बहुत करीबी अंतर से जीते थे। महागठबंधन के कालीचरण मुंडा से जीत-हार का अंतर महज 1445 वोट का ही था। आदिवासी बहुल सीट पर इस बार भी मुकाबला आसान नहीं होगा।

 

बीजेपी ने विधानसभा चुनाव में जीतीं केवल 1 आरक्षित सीट
गौरतलब है कि पिछले आम चुनाव में झारखंड की 2 एसटी आरक्षित लोकसभा सीट गंवाने वाली बीजेपी राज्य विधानसभा चुनावों में एसटी आरक्षित सीटों में केवल 2 पर ही जीत हासिल कर पाई थी। इसका खामियाजा सत्ता गंवाकर चुकाना पड़ा था। बीजेपी केवल तोरपा और खूंटी विधानसभा सीट पर जीत दर्ज कर पाई थी। संताल में एसटी सीट पर पार्टी का खाता नहीं खुला। पिछले 2 साल में झारखंड की राजनीति आदिवासी और आदिवासियत पर ही केंद्रित रही है। झारखंड मुक्ति मोर्चा का हर बड़ा नेता सभी सार्वजनिक मंच से इस बात को दोहराता है कि बीजेपी, आदिवासियों का शासन झारखंड में बर्दाश्त नहीं कर पा रही है। 

आदिवासी और आदिवासियत पर लड़ा जा रहा है आम चुनाव
पिछले 1 साल में हेमंत सोरेन के खिलाफ हुई ईडी की कार्रवाई को झारखंड मुक्ति मोर्चा या महागठबंधन ने यही कहकर प्रचारित किया है कि एक आदिवासी मुख्यमंत्री को बीजेपी बर्दाश्त नहीं कर पा रही। बाहरी लोग राज्य के संसाधन पर कब्जा करना चाहते हैं। पूरे घटनाक्रम पर महागठबंधन ने बीजेपी को आदिवासी विरोधी बताने का प्रयास किया। यह कितना सफल रहा, पता नहीं लेकिन मांडर, मधुपुर और डुमरी उपचुनाव की जीत को सत्तापक्ष ने यही बताने का प्रयास किया है। वहीं, दूसरी तरफ पिछले विधानसभा चुनाव के 1 महीने बाद ही बाबूलाल मरांडी की बीजेपी में वापसी हुई। फिलहाल वही झारखंड में बीजेपी की तरफ से सबसे बड़ा आदिवासी चेहरा हैं। एनडीए ने झारखंड की पहली महिला राज्यपाल रहीं आदिवासी, द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाया।

झामुमो को धर्मसंकट में पड़कर, महागठबंधन से किनारा कर द्रौपदी मुर्मू को समर्थन देना पड़ा था। पिछले साल 15 नवंबर को बिरसा मुंडा की जयंती पर प्रधानमंत्री ने खूंटी के उलिहातू गांव जाकर पीएम जनमन योजना लॉन्च की जिसका मकसद देशभर के जनजातीय समुदाय का सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और राजनीतिक उत्थान है। योजना का बजट 24,000 करोड़ रुपये है। 

झारखंड में आदिवासी आरक्षित सीटें राजनीतिक दलों की चुनौती
पिछले 1 साल में प्रधानमंत्री सहित बीजेपी के तमाम बड़े-छोटे नेता दोहराते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी ने आदिवासियों को सम्मान दिया और अलग झारखंड राज्य का गठन किया। एनडीए की सरकार में ही अलग से जनजातीय मंत्रालय बनाया गया और इसका प्रभार झारखंड के ही खूंटी से सांसद अर्जुन मुंडा को सौंपा गया। बिरसा मुंडा के जन्मदिवस को राष्ट्रीय जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। बड़ा सवाल यही है कि क्या इसका आदिवासियों पर असर हुआ है। दूसरी तरफ महागठबंधन सरकार खुद को आदिवासियों की सबसे बड़ा हितैषी बताती है। कहती है कि झारखंड गठन के बाद पहली बार सत्ता आदिवासियों के हाथ आई है। आदिवासियों के विकास के लिए योजना चलाई जा रही है।

झामुमो के पास गिनाने को फूलो-झानो आशीर्वाद योजना, सावित्रीबाई फूले किशोरी समृद्धि योजना, मरांग गोमके जयपाल सिंह मुंडा पारदेशीय छात्रवृत्ति योजना और गुरुजी स्टूडेंट क्रेडिट कार्ड योजना है जो आदिवासियों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक उन्नति तक पहुंचायेगी। सबके दावे हैं। विकास की योजनाएं भी हैं और उसका प्रचार भी। सहानुभूति की लहर भी है। सवाल यही है कि यह सब बातें किसकी तरफ वोट बनकर गिरेंगी। झारखंड मुक्ति मोर्चा-कांग्रेस गठबंधन को या फिर की तरफ।