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विधायकों को जब मिलता था 250 रुपये वेतन, सदन चलने पर प्रतिदिन 10 रुपया भत्ता   

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शिवानंद तिवारी 

मेरे बाबूजी 1952 में सोशलिस्ट पार्टी से विधायक बने थे। आज़ाद भारत में बिहार के विधानसभा का वह पहला चुनाव था। एमएलए फ़्लैट में उनको एक फ़्लैट आवंटित हुआ था। दो कमरे का फ़्लैट। एक रसोईघर, एक भंडार घर। एक शौचालय और एक स्नान घर। पिछले कमरे से रसोई में जाने के लिए एक बरामदा था। हर फ़्लैट के साथ पिछवाड़े की तरफ़ एक छोटा कमरा और उसी अनुपात में एक बरामदा था। उस तरह के कमरों के लिए एक सामूहिक स्नान घर और एक शौचालय था। अतिथियों के लिए वही एक छोटा कमरा था। ड्राइंग रूम नाम का कोई अलग प्रावधान फ़्लैट में नहीं था। बाबूजी गाय के शौक़ीन थे। उसी फ़्लैट के पीछे की ओर झोपड़ी बनवाकर उन्होंने एक गाय रख लिया था। इसके बाद हमलोगों को गांव से पटना बुलवाया। 


उस समय विधायकों को तनख़्वाह के रूप में ढाई सौ रूपया मासिक मिलता था। प्रोफ़ेसर या डिप्टी कलेक्टर को भी इतना ही मिलता था। सदन चलने पर विधायकों को दस रुपये रोज़ का भत्ता भी मिला करता था। इसके अतिरिक्त और किसी तरह की सुविधा नहीं थी। विधायक रेल या बस में अपना टिकट कटा कर सफ़र करते थे। स्वभाविक है कि उस समय के अधिकांश विधायक या नेता रेल में तीसरे दर्जा में सफ़र करते थे। बसों में भी सामान्य यात्री की तरह सफ़र करते थे। इसका परिणाम यह था कि विधायक और आम आदमी में कोई विशेष फ़र्क़ नहीं था। पार्टी के कार्यक्रम में कहीं जाने पर पार्टी के नेता-विधायक किसी साथी के यहाँ ठहरा करते थे। अत: नेता, विधायक का आम लोगों के साथ जीवंत रिश्ता बना रहता था। आम आदमी के सुख दुख के साथ उनका जुड़ाव तो रहता ही था। इसलिए विधायकों और सांसदों पर जनता की समस्याओं के लिए सक्रिय रहने और ज़रूरत पड़ने पर संघर्ष करने का दबाव रहता था। 


धीरे-धीरे जन प्रतिनिधियों की सुविधाएं बढ़ने लगीं। सुविधाओं में वृद्धि के पीछे तर्क यह था कि इससे विधायकों की कार्य करने की क्षमता बढ़ेगी। लेकिन वास्तविकता क्या है! कार्य क्षमता में वृद्धि क्या होगी, विधायक और सांसद जनता से दूर हो गये। अब देश के विधायक या सांसद एसी फ़र्स्ट क्लास में या हवाई जहाज में यात्रा करते हैं। अब नेता किसी कार्यक्रम में जाते हैं तो होटल या सर्किट हाउस में ठहरते हैं। इस प्रकार आज़ादी के बाद जन प्रतिनिधि और जनता के बीच फ़ासला तो बढ़ा ही, पार्टी के साथी कार्यकर्ता में बदल गये। इसलिए चुनाव लड़ने से लेकर किसी भी राजनीतिक कार्यक्रम में खर्च बढ़ता गया। बड़े नेताओं के चुनाव में तो खर्च बेतहाशा बढ़ा है। क्योंकि नेता अगर संसद में नहीं गया तो उसकी हैसियत घट जाती है। अगर बड़े नेता, चाहे उनकी राजनीति का रंग कोई हो, अपने चुनाव में कितना खर्च करते हैं या जीत के लिए क्या क्या हथकंडा अपनाते हैं, इसकी जानकारी चकित करने वाली होगी।
मुझे यह ध्यान नहीं है कि इन तथाकथित सुविधाओं में बढ़ोतरी कब से शुरू हुई। आज कल देश में अभूतपूर्व गैरबराबरी पर चिंता जताई जाती है। इसे दूर करने की पहल तो राजनीति ही करेगी। लेकिन जब राजनीति ही इस गैरबराबरी का लुत्फ़ उठा रही है तो उसके विरूद्ध जन कार्रवाई कौन करेगा! आजकल नेता वही माना जाता है जो सांसद या विधायक होता है। यह मेरा व्यक्तिगत तजुर्बा है। 77 और 80 में चुनाव लड़ने से मैंने इनकार कर दिया था। जबकि लालू, नीतीश आदि साथी 77 में ही विधायक या सांसद हो चुके थे। 
इसलिए जीवन जीने और जन राजनीति के साथ जुड़े रहने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ता है इसका व्यक्तिगत अनुभव मुझे है। लेकिन अभाव के उन दिनों मेरे अंदर जो जुझारूपन और तेवर था वह विधायक या सांसद बनने पर नहीं रहा। 


अभूतपूर्व गैरबराबरी की चर्चा होती है। लेकिन जन में और जन प्रतिनिधियों के बीच जो खाई और चौड़ी हो गई है इसकी चर्चा नहीं होती है। इसका नतीजा यह हुआ है कि महंगाई का सवाल हो या बेरोज़गारी का, जन प्रतिनिधियों को ये समस्या छूती नहीं हैं। इसलिए राजनीति में और विशेष रूप से विरोध की राजनीति में इन समस्याओं के विरूद्ध संघर्ष बंद हो गया है। मीडिया और विशेष रूप से टेलीविजन मीडिया का फैलाव नीचे तक हो गया है। इससे भी राजनीति में सक्रिय लोगों का जनता के बीच जाने का दबाव कम हो गया है। बयान, प्रेस कांफ्रेंस या ट्विटर के ज़रिए राजनीति करने का जमाना आ गया है।
सत्ता का चरित्र हमेशा परिवर्तन विरोधी और यथास्थितिवादी होता है। तरह तरह का अड़ंगा डालकर वह बदलाव को रोकने की कोशिश करता है। वैसी हालत में उपर से परिवर्तनकामी सरकार और बाहर से जन दबाव के ज़रिए ही यथास्थिति बनाए रखने की ताक़त को कमजोर किया जा सकता है।
लेकिन परिवर्तन की राजनीति की बात करने वाले समूह ने भी अपने आपको मीडिया तक सीमित कर लिया है। संघर्ष की ध्वनि लेफ़्ट पार्टियों में थोड़ी बहुत सुनाई देती है। लेकिन लेफ़्ट का प्रभाव सीमित है। राष्ट्रीय स्तर पर उनकी स्थिति भी कमजोर हुई है। इसलिए सत्ता परिवर्तन भी होता है तो नीचे से अगर परिवर्तन के पक्ष में जन दबाव नहीं होगा तो यथास्थिति वादी ताक़तें परिवर्तन के प्रयास को हमेशा विफल करती रहेंगी। 
शिवानन्द तिवारी, 28 अगस्त 24


 

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