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लोकसभा विशेष : कभी नक्सलवाद के भय से गांव छोड़ गये थे मांझीपारा के ग्रामीण, लौटे तो उम्मीद नहीं 'दर्द' मिला

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द फॉलोअप डेस्क, चतरा:

लोकसभा चुनावों का आगाज हो चुका है। झारखंड में भी 14 सीटों पर चुनाव होंगे। झारखंड जैसे प्रदेश में तमाम मुद्दों के अलावा जिस एक जरूरी बात पर चर्चा होती है, वो है नक्सलवाद। झारखंड के 24 में से 22 जिले नक्सलवाद से प्रभावित रहे हैं और उनमें भी चतरा जिला नक्सलवाद से सर्वाधिक प्रभावित रहा है। अब जबकि मतदान में कुछ ही दिन बचे हैं, हम आपको कभी लाल आतंक के साये में रहने वाले गांव मांझीपारा की कहानी सुनाएंगे। इस कहानी में शोषण, संघर्ष, शहादत और पलायन, सबकुछ है। ये वही गांव है जहां से कभी झारखंड में माओवाद के लाल आतंक की शुरुआत हुई थी। अब, इलाके को नक्सलवाद से तो मुक्ति मिल गई लेकिन संघर्ष और पलायन आज भी है।

लाल आतंक ने मांझीपारा गांव से क्या छीना, ये टूटे फूटे खंडहरनुमा मकान, कच्ची पगडंडियां और सूखे पड़े खेत बखूबी बता रहे हैं। मांझीपारा ने पिछले करीब 30 दशक में जो सबसे ज्यादा दंश झेला वो पलायन का था। 

मांझीपारा गांव में सबसे पहले नक्सलवाद की दस्तक
चतरा जिला के कुंदा प्रखंड अतंर्गत मांझीपारा गांव में खरवार समुदाय के लोग रहा करते हैं। दशकों पहले यहां इनकी जमींदारी थी। दूर जहां तक आपकी निगाहें जाएंगी, वहां इनकी ही जमीनें थी। खूब खेती होती थी और खलिहान फसल से भरे रहते। पूरे गांव में समृद्धि थी। सब अच्छा चल रहा था और तब एक दिन इलाके में लाल आतंक ने दस्तक दी। दरअसल, साल 1967 में पश्चिम बंगाल में मुर्शिदाबाद के नक्सलबाड़ी गांव से कानू सान्याल और चारू मजूमदार ने नक्सलवादी आंदोलन की शुरुआत की तो मुद्दा ही जमीन था। विचारधारा ये मानती थी कि देश में जमीनों का असमान वितरण है। बहुत थोड़े से धनाढ्य जमींदारों के पास अकूत भूसंपदा है और दूसरी और बड़ी आबादी उन्हीं जमीनों पर बेगार करने को विवश है। इनका मानना था कि ये समस्या बंदूक से ही सुलझेगी। पश्चिम बंगाल से शुरू हुआ आंदोलन पूरे देश में फैला। बिहार के गया और जहानाबाद जिलों में नक्सलवाद का व्यापक प्रभाव था।

मांझीपारा में हिंसक संघर्ष से रोज मारे जा रहे थे लोग
चतरा की सीमा, इन 2 जिलों से लगती है और फिर कुंदा ही वो जगह है जहां झारखंड में सबसे पहले लाल आतंक ने दस्तक दी। निशाना यही मांझीपारा गांव था क्योंकि यहां जमींदारी थी। नतीजा, नक्सलियों और मांझीपारा के खरवार समुदाय के बीच हिंसक संघर्ष शुरू हो गया। रोज लोग मारे जाने लगे। कुंदा और मांझीपारा की धरती कभी नक्सलियों तो कभी खरवारों के रक्त से लाल हो रही थी। रोज बंदूकें गरजतीं। रोज धमाके गूंजते। 3 दशक पहले, मांझीपारा की हर शाम रक्तरंजित थी। ये बातें प्रशासन तक पहुंच रही थी और तब एक बड़ा फैसला लिया गया। जिला प्रशासन ने रोज के खून खराबे से बचने के लिए मांझीपारा के गांव वालों को ले जाकर चतरा के शहरी इलाके में ले जाकर बसा दिया। 

झारखंड में अब नक्सलवाद पर काबू पा लिया गया है
अब नक्सलवाद पर काबू पा लिया गया है। ये इलाका माओवादी हिंसा से रहित है। शांति के बीच खरवार समुदाय के ये लोग वापस लौटने लगे हैं। समस्या ये है कि गांव में न तो पक्का मकान है और न ही खेत-खलिहान। ग्रामीणों के सामने आवास के साथ-साथ आजीविका का भी संकट है। ग्रामीणों का कहना है कि हमने 30 साल पहले गांव छोड़ा था। अब जब लौटे हैं तो लगता है कि 150 साल पीछे चले गये। कभी, इस इलाके में हमारी जमींदारी हुआ करती थी लेकिन अब कुछ नहीं बचा है।

30 साल बाद गांव लौटे ग्रामीणों के पास उम्मीद नहीं
मांझीपारा के ग्रामीण 30 साल बाद गांव लौटे हैं। खंडहर हो चुके कच्चे मकान, कच्ची पथरीली पगडंडियां, सूखे खेत और शुद्ध पेयजल का अभाव, यही इस गांव में शेष रह गया है। 30 साल बाद लौटे ग्रामीणों को नए सिरे से सब समेटना है ताकि जिंदगी पटरी पर लौटे लेकिन, इसके लिए सरकार और प्रशासन का सहयोग चाहिए। बड़ा सवाल ये है कि क्या लोकसभा चुनाव में मांझीपारा मुद्दा भी है।

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