logo

शर्मनाक : सड़क...बिजली और पानी के लिए तरसे लोग, झारखंड के इस गांव में दशकों से नहीं है बुनियादी सुविधाएं

a229.jpg

दुमका: 

ये विकास पथ पर दौड़ते झारखंड की अविकसित सड़क है। सॉरी। सड़क नहीं पगडंडी कह लीजिए। जंगल-झाड़ से घिरा। पथरीला। क्या एक सामान्य आदमी इस पर चल सकता है। क्या इस पगडंडी पर आसानी से वाहन चलाया जा सकता है। नहीं। इसपर एडवेंचर किया जा सकता है, लेकिन ग्रामीण भला क्या एडवेंचर करेंगे। उनके पास ना तो जीवन बीमा है और ना ही मेडिकल बीमा।

उन बिचारों को कहां पता था कि सरकारें इतना विकास करेगी कि उनके गांव में ही एडवेंचर वाली सड़क बना डालेगी। बिचारों को डर है।

अगले चुनाव में कहीं कोई जनप्रतिनिधि कह ना बैठे। बाइक एडवेंचर स्पोर्ट्स का इतना अच्छा साधन दिया है। और क्या चाहिए रे।

इसमें लहरा कर चलो या लहरा कर गिर जाओ। मर्जी तुम्हारी है।

 

पथरीला रास्ता ही मुख्य मार्ग तक पहुंचने का साधन
अब बाइक सवार इन भाईसाहब को ही देख लीजिए। दोनों तरफ से घनी झाड़ियों से घिरी इस पथरीली पगडंडी पर उनकी बाइक लहरा रही है। हिचकोले खा रही है। बलखा रही है। 10 मीटर की दूरी तय करने में 4 बार बाइक के स्टैंड से पैर नीचे रखना पड़ा है।

इस सड़क को उपलब्धि बताते हुए सरकारें दावा कर सकती है कि हम दूरद्रष्टा हैं। हमने जानबूझकर इस सड़क पर ज्यादा मेहनत नहीं की। अब बाइक हिचकोले खाएगी तो चालक बहुत देर तक बाइक पर पैर रख नहीं पाएगा। बार-बार उसे जमीन पर रखेगा।

इससे जमीन से उस व्यक्ति का जुड़ाव बना रहेगा। बाइक हिचकोले खाएगी तो आदमी भी हिलेगा। बैठे-बिठाए उसका एक्सरसाइज हो जायेगा। इसे, सकारात्मक रूप में देखियेगा तो समझ आएगा कि फिट इंडिया मूवमेंट के लिए प्राकृतिक कसरत का ये सरकारी तरीका है। यही नहीं। 

पथरीली पगडंडी पर बनी रहती है दुर्घटना की आशंका
यहां पगडंडी केवल पथरीली और उबड़-खाबड़ ही नहीं है। बीच में टूटी हुई पुलिया, खड्डा और बहता हुआ पानी ही है। इसमें चलते हुए आप लाइव वीडियो गेम का भी मजा ले सकते हैं। अलग-अलग लेवल पर अलग-अलग चीजें। पहले पथरीला रास्ता। इसके बाद पानी। फिर टूटी हुई पुलिया। फिर झाड़-झंखाड़। सही सलामत सब पार कर लिया तो कान में आवाज आयेगा। यू विन। येहे। जोक सपाट।

चमकते सरकारी दावों के पीछे की स्याह हकीकत बताती है ये सड़क। ये सड़क बताती है कि हुक्मरानों के दावे कितने खोखले हैं। घोषणाएं कितनी झूठी है।

काश प्रचार-प्रसार में खर्च होने वाली करोड़ों की राशि का एक छोटा सा टुकड़ा इस सड़क को बनाने में खर्च हो जाता। लेकिन क्या करें। आप भी विकास होर्डिंग में ही ढूंढ़ते हैं। 

पेयजल के लिए खेत में बने कच्चे कुएं पर निर्भर हैं ग्रामीण
यहां केवल प्रखंड मुख्यालय से गांव तक जाने वाली सड़क में ही एडवेंचर नहीं है बल्कि पूरा गांव ही एडवेंचर पार्क है, जो सरकारी नाकामियों की वजह से खुद-ब-खुद बन गया है। अब ये नजारा देखिये। चारों तरफ खेत। पीछे जंगल-झाड़ से घिरी पहाड़ी और बीच में कुआं। नहीं कच्चा कुआं। अरे नहीं। गड्ढा बोलिये। ये बरसाती गड्ढा है जिसे गांव वालों ने पत्थर से बांध दिया है।

आवश्यक्ता आविष्कार की जननी है। ये यहां देखकर समझ आ जायेगा। पगडंडी पर पुरुष एडवेंचर कर रहे थे, यहां महिलाएं कर रही है। इस महिला को देखिये। पत्थरों पर पैर टिकाकर कैसे बैलेंस बनाकर खड़ी हैं। गड्ढे से पानी निकाल रही हैं। बाकी महिलाएं उसे बर्तनों में भर रही हैं। देखने में एडवेंचर लगने वाला ये दृश्य कितना खतरनाक है। आप अंदाजा भी नहीं लगा सकते।

पत्थरों के बीच में सांप या ऐसा ही कोई जहरीला जीव-जंतु हो सकता है। बरसात है। पत्थरों में काई जम जाती है। महिलाएं पानी भरते हुए इसमें गिर भी सकती हैं। गंभीर चोट लग सकती है या शायद मौत भी हो जाये। झारखंड के अखबारों को ठीक से टटोलिएगा तो ऐसी स्थितियों में ना जाने कितने ही लोगों को सांप काटने, चोट लगने या फिर मौत हो जाने की खबरें छपी रहती है।

पर आपको क्या। आप तो हिंदू-मुस्लिम, पाकिस्तान-चीन या फिर बॉलीवुड गॉसिप पढ़िये। कुएं से जोखिम भरी परिस्थिति में पानी भरती महिलाओं के लिए ये रोज की नियति है। 

पानी लाने के दौरान गांव वाले हादसे का शिकार होते हैं
ये जो पथरीला रास्ता और खेतों के बीच बना गड्ढा है। इसका गहरा पारस्परिक संबध है। गांव की महिलाएं, बच्चे औऱ पुरुष रोजाना सुबह इनसे रूबरु होते हैं। सुबह होते ही ये लोग पानी का बर्तन लिए, इस पथरीली पगडंडी से होते हुए बरसाती कुएं तक पहुंचते हैं।

रोज इसी तरह जोखिम उठाकर पानी भरते हैं औऱ फिर पानी से भरा हुआ बर्तन लेकर वापस उसी पथरीली पगडंडी से लौटते हैं। वर्षों से हर रोज यही होता आ रहा है। सरकारें वादा करती रहीं। घोषणायें करती रहीं। पोस्टर बंटवाती रही। होर्डिंग टंगवाती रही।

हवा में लटका होर्डिंग चहु्ओर विकास का दावा करता रहा और धरातल में ये कच्ची पगडंडी, टूटे मकान, कच्चा कुआं और लोगों की उदास आंखे, राज्य की तस्वीर में किसी पैबंद की तरह बढ़ते रहे। सिर में बर्तनों का भारी बोझ उठाये नंगे पांव पथरीले रास्तों पर चलती इस बच्ची का क्या गुनाह है। भारत को आजाद हुए 75 साल हो गये। सरकार आजादी का अमृत महोत्सव मना रही है।

देश विश्व गुरु बनने की राह चल पड़ा है। झारखंड गठन को 22 साल बीते। यदि हुक्मरानों में थोड़ी सी भी शर्म बची हो तो इस बच्ची से आंख मिलाए और कहे उससे कि वो आजादी के अमृत महोत्सव में शिरकत क्यों नहीं करती। आजादी की 75वीं वर्षगांठ का जश्न क्यों नहीं मनाती। 

दुमका के आमगाछी पहाड़ गांव में नहीं हैं बुनियादी सुविधा
ये नजारा दरअसल, झारखंड की उपराजधानी दुमका के मसलिया प्रखंड का है। मसलिया प्रखंड के सुग्गापहाड़ी पंचायत अंतर्गत आने वाले संताल और पहाड़िया जनजाति बहुल आमगाछी पहाड़ गांव वर्षों से मूलभूत सुविधाओं से मरहूम है। 80 परिवार वाले इस गांव में आजादी के 75 साल और झारखंड गठन के 22 साल बाद भी विकास नाम की किसी चिड़िया ने दस्तक नहीं दी है।

प्रखंड मुख्यालय से गांव तक जाने के लिए पक्की सड़क नहीं है। पेयजल के लिए यही बरसाती कुआं एकमात्र स्त्रोत है। गांव में बिजली नहीं पहुंची। आमगाछी पहाड़ गांव से मुख्य मार्ग की दूरी 5 किमी से भी ज्यादा है। पूरा रास्ता पथरीला और उबड़-खाब़ड़ है।

किसी तरह हिचकोले खाते हुए मोटरसाइकिल ही इस पर चलाई जा सकती है। बीमारों को अस्पताल पहुंचाना हो तो खटिया की एकमात्र साधन है। पीडीएस दुकान से राशन लाना हो तो पहाड़ी से उतरकर ढाई किमी पैदल चलना पड़ता है। गांव में अधिकांश मकान कच्चे हैं। मानसून जारी है।

अंदाजा लगाइये। इस गांव और यहां रहने वाले लोगों को अपनी दैनिक बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए भी कितना संघर्ष करना पड़ता है। गंभीर सवाल है कि सरकारें कब जागेंगी। उन्हें कौन जगाएगी। कब तक थोथे वादे होते रहेंगे। आखिर कब तक! 

रिपोर्ट- मोहित कुमार