द फॉलोअप डेस्क, लातेहार:
जर्जर मकान में सीलन भरे दीवारों के बीच टूटी फूटी चारपाई में बैंगनी रंग का कंबल ओढ़े इस बुजुर्ग आदमी का नाम रामनंदन सिंह हैं। इसे विडंबना ही कहेंगे कि हमें आपको बताना पड़ेगा कि रामनंदन सिंह कौन हैं। आपने नीलांबर और पीतांबर का नाम तो सुना होगा। 2 सहोदर भाई जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ पहला स्वतंत्रता संघर्ष कहे गये 1857 की क्रांति में झारखंड में अंग्रेजी सत्ता से लोहा लिया था। रामनंदन सिंह इन्हीं पीतांबर की चौथी पीढ़ी के वंशज हैं। या, यूं कहना सही होगा कि रामनंदन सिंह, शहीद पीतांबर के परपोते हैं। रामनंदन सिंह अभी लातेहार जिला के तरवाडीह पंचायत के कोने गांव में रहते हैं।
दीवार पर घोषणाएं लेकिन लाभ नहीं मिला
सरकार से मिला एक अदद अंबेडकर आवास, हर महीने पेट भरने को सरकारी राशन और अपने पूर्वजों द्वारा किए संघर्ष की धूमिल होती यादें, यही रामनंदन की कुल जमापूंजी है। लेकिन, क्या ऐसा होना चाहिए था। जिस नीलांबर-पीतांबर ने अंग्रेजों की मुखालफत करने में 12 गांवों की जागीर गंवाई, महीनो अंग्रेजी फौज के खिलाफ लड़ाई में घने और दुर्गम जंगलों की खाक छानते रहे और आखिरकार, लाखों की आबादी की स्वाधीनता के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान दिया, क्या उनके वंशजों को इस हाल में होना चाहिए था। सीधा और सपाट जवाब होगा नहीं लेकिन हालात खुद हकीकत की गवाही दे रहे हैं। चुनावी सभाओं से लेकर घोषणापत्र के वादों में और सदन के भाषणों से लेकर लच्छेदार शब्दों से लिपटी घोषणाओं तक में जिन शहीदों को यथोचित सम्मान देने का दावा सरकारें करती आई हैं, उसकी हकीकत रामनंदन सिंह का उदासी से भरा चेहरा, पैबंद लगी चादर, अतीत को याद कर गालों में ढुलक आये आंसू और ये जीर्ण शीर्ण मकान बयां कर रहा है। सच ढूंढ़ने और कहां जायेंगे।
पीतांबर की चौथी पीढ़ी के रामनंदन सिंह हैं
टूटी फूटी दीवारों के ऊपर खपरैल की छत वाले इस सीलन भरे मकान में रामनंदन अपने बेटे कोमल खेरवार के साथ रहते हैं। दीवार पर सरकार आपके द्वार कार्यक्रम का पोस्टर तो है लेकिन नीलांबर-पीतांबर की चौथी और पांचवीं पीढ़ी के पास अधिकांश सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं पहुंचा। वर्षों पहले एक अंबेडकर आवास मिला था जिसे बनाने में जेब से पैसे लग गये। मुख्यमंत्री पशुधन योजना के तहत गाय शेड तो मिला है लेकिन गाय नहीं। हां, गांव में सिंचाई कूप और एक अदद पीसीसी सड़क का निर्माण जरूर हुआ लेकिन ये सबकुछ, एक ऐसे परिवार के लिए नाकाफी है जिसके पूर्वजों ने प्रदेश की अस्मिता और लोगों की स्वाधीनता के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया हो। आप चाहें या न चाहें, नीलांबर-पीतांबर के वंशज, निश्चिंत रूप से ऐतिहासिक धरोहर हैं जिनका संरक्षण और संवर्धन होना चाहिए। जिन्हें आवास, बिजली, पानी और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएं मिलनी चाहिए।
रामनंदन सिंह बताते हैं कि सरकार से उनके परिवार को केवल यही एक अंबेडकर आवास मिला है और इसकी भी हालत ठीक नहीं है। पीएम आवास या आबुआ आवास जैसी योजनाओं का लाभ नहीं मिला। राशन तो मिलता है लेकिन सर्वजन पेंशन योजना का लाभ नहीं मिला। सोचिए। पिछले 24 वर्षों मे झारखंड में कितनी सरकारें आईं और गईं। कभी बीजेपी ने शासन किया तो कभी कांग्रेस और झामुमो ने। प्रदेश के तकरीबन हर बड़े सरकारी कार्यक्रम में सरकारें शहीदों के नाम की माला जपती है। उनके उद्धार और सम्मान की बात करती है। उनके नाम से योजना लॉन्च होती है लेकिन सच्चाई, भयावह है।
रामनंदन सिंह के बेटे कोमल चाहते हैं सरकारी नौकरी
रामनंदन सिंह के बेटे कोमल खेरवार चाहते हैं कि उनके परिवार के किसी सदस्य को उनकी योग्यता के हिसाब से एक सरकारी नौकरी मिल जाए ताकि उनकी आर्थिक स्थिति सुधरे। जो थोड़े बहुत खेत हैं, उनमें इतनी कृषि नहीं होती कि सबका पेट भर जाए। फसल का इतना अधिशेष नहीं बचता कि बाजार में बेचकर आजीविका चलाई जा सके।
1857 की क्रांति में झारखंड में लड़े थे नीलांबर-पीतांबर
अंत में नीलांबर पीतांबर की वीरगाथा बताते हुए आपको एक सवाल के साथ छोड़ जाएंगे। नीलांबर और पीतांबर गढ़वा जिला अंतर्गत चेमो सनैया के जागीरदार चेमू सिंह के बेटे थे। अंग्रेजों ने चेमू सिंह की जागीर जब्त कर उनको निर्वासित कर दिया था। इसी समय, देश में 1857 की क्रांति भड़क उठी। तब भोक्ता समाज के 2 सहोदर भाई नीलांबर और पीतांबर ने चेरो और खेरवार जनजातीय समुदाय को साथ लेकर आंदोलन छेड़ दिया। मौजूदा पलामू, लातेहार और गढ़वा का संयुक्त इलाका इनके संघर्ष का केंद्र था। दोनों भाई, छापामार लड़ाई किया करते थे। उन्होंने, इलाके में अंग्रेजी फौज की ईंट से ईंट बजा दी। हालांकि, ब्रिटिश फौज ने इस विद्रोह का दमन कर दिया। पीतांबर सिंह को कालापानी की सजा हुई और नीलांबर सिंह को फांसी दे दी गई। अब आप सोचिएगा। आप इन शहीदों को कितना जानते हैं। इनके वंशजों के बारे में आपके पास क्या जानकारी है। सरकारें कब तक शहीदों के नाम पर केवल वोट बटोरती रहेगी। आखिर कैसे, झारखंड में ऐतिहासिक धरोहरों का संरक्षण होगा।