दयानंद राय
गुलजार को मैं कितना जानता हूं। क्या कभी मिला हूं उनसे। क्या मैं समझता हूं कि हिन्दी शायरी और फिल्मों में उनका रचनात्मक योगदान क्या है। अगर मैं कह दूं समझता हूं तो यह मुकम्मल झूठ होगा। अगर कहूं न तो यह भी झूठ होगा। दरअसल, मैं गुलजार को थोड़ा समझता हूं और अधिक समझने की प्रक्रिया में हूं। सफेद झकझक कुर्ते में नजर आनेवाले गुलजार हमेशा ऐसे ही थोड़े रहे होंगे। उनकेे कंधे पर शॉल हमेशा से थोड़े रुका हुआ होगा। उनके बालों में चांदी जो आज दिखती है, वह कभी काली रही होगी। और शिशु रुप में गुलजार कैसे रहे होंगे, इसकी तो मैं बस कल्पना कर सकता हूं। इन सारी बातों का लब्बोलुआब यह है कि गुलजार आज जो हैं, वे पहले उसी रुप में नहीं थे, उनकी कविताएं वैसी ही नहीं थी, वह युग परिवेश से अनुभूतियां ग्रहण कर बदलाव की प्रक्रिया से गुजर रही हैं। क्या बंबई के एक मोटर गैराज में काम करनेवाले गुलजार वही थे, जो टाटा के जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में उपस्थित रहे। मैं कहूंगा नहीं। वे पहले से अधिक समृद्ध और सशक्त थे। पर बदलाव कि इन तमाम संभावनाओं के बीच गुलजार हैं तो गुलजार ही। तो अब मैं मुद्दे पर आता हूं। मुद्दा यह है कि गुलजार की रचनाशीलता केवल शाब्दिक नहीं है। यह बहुआयामी अर्थ छायाएं अपने साथ लिए चलती है। उदाहरण के लिए उनका पहला गीत ही ले लीजिए। यह गीत उन्होंने फिल्म बंदिनी के लिए लिखा था।
मोरा गोरा अंग लई ले, मोहे शाम रंग दई दे
छूप जाऊंगी रात ही में मोहे पी का संग दई दे
एक लाज रोके पैय्या, एक मोह खींचे बैय्या
जाऊ किधर ना जानू हमका कोई बताईदे
बदली हटा के चन्दा, चुपके से झाँके चन्दा
तोहे राहू लागे बैरी, मुस्काए जी जलाईके
कुछ खो दिया है पायके, कुछ पा लिया गवाईके
कहाँ ले चला है मनवा, मोहे बावरी बनाईके
पूरे गीत में सिर्फ आठ पंक्तियां हैं। इन आठ पंक्तियों में गुलजार की रचनाधर्मिता को समझने के कुछ सूत्र मिलते हैं। अब इनका विश्लेषण करते हैं। फिल्म की नायिका मनुहार करती है कि मेरा गोरा रंग लेकर, मुझे श्याम का रंग दे दो। श्याम यानि कृष्ण का रंग। वह ये भी करती है कि अगर मुझे पिया का संग मिल जाए तो मैं रात में छुप जाउंगी। नायिका लज्जाशील तो है लेकिन पिया का संग भी चाहती है। अगली पंक्तियों में नायिका कहती है कि लाज की डोरी उसके पांव खींच रही है पर पिया से मिलने का मोह उसकी बांहें खींच रहा है। नायिका मुश्किल में है, यह कश्मकश जिंदगी का अर्थ है। पर नायिका की समस्या बस इतनी नहीं है। वह प्रेम करती है, पिया से मिलना भी चाहती है, छुपना भी चाहती है पर जाना कहां है नहीं जानती। वह कहती है मुझे कोई रास्ता बता दे। नायिका को जब कुछ समझ में नहीं आता तो वह आकाश ताकने लगती है। आकाश में उसे बदली हटा के झांकता चंद्रमा दिखता है। यह दृश्य देखकर वह खुश होती है। फिर वह उसे ही उलाहना देने लगती है। कहती है तोहे राहू लागे बैरी मेरा जी जला रहे हो। अब वह अपनी मन स्थिति समझने लगी है। कहती है मैंने कुछ पाकर खो दिया है, और कुछ गंवा के पा लिया है। वह कहती है कि मन उसे बावरी बना के कहीं ले चला है। कुल मिलाकर यह गीत प्रेम में भींगी नायिका की अनुभूति दर्शकों के सामने रखता है। गीत फिल्माया गया तो नूतन पर है पर इस गीत के जरिए इसका सामान्यीकरण हो जाता है। इस पहले ही गीत में गुलजार की लेखकीय प्रौढ़ता की झलक मिल जाती है। गुलजार को थोड़ा और समझने के लिए फिल्म आंधी का एक गीत लेते हैं।
गीत के बोल हैं- तुम आ गये हो नूर आ गया है
नहीं तो चरागों से लौ जा रही थी
प्रेम की अनुभूति से भरा यह गीत प्रेमिका से प्रेमी के मिलन की भावनात्मक स्थिति को आवाज देता है। इन दोनों गीतों में एक तत्व जो निकलकर सामने आता है वह प्रेम है। गुलजार की पूरी रचना प्रक्रिया कहीं न कहीं प्रेम से प्रभावित संचालित होती रही है। अपनी पत्नी राखी से अलगाव का विछोह भी उनकी शायरी और रचनाओं में झलकता है। मैं पहले ही कह चुका हूं कि मैं गुलजार को पूरा नहीं समझता, समझने की कोशिश कर रहा हूं। मेरे इस प्रयास का मकसद यह बताना नहीं है कि मैं गुलजार को कितना समझता हूं बल्कि यह है कि आप गुलजार के पहले गीत की कशिश और अर्थवता को महसूस कर सकें।