logo

जिसने लिखा सबसे पहला भारत का झंडा गीत

4424news.jpg
सैयद शहरोज क़मर, रांची:

प्रसिद्ध राजनितिक दार्शनिक जेएस मिल कहते हैं कि राष्ट्रीयता मानव जाति का वह भाग है, जो सामान्य सहानुभूति द्वारा आपस में संगठित है और सामान्य सहाानुभुतियाँ एक राष्ट्रीयता की दूसरी राष्ट्रीयता से नहीं होती हैं। इस सामान्य सहानुभूति के कारण एक राष्ट्रीयता के लोगों में जितने सहयोग की भावना रहती है, उतनी दूसरों से नहीं हो पाती। समय 1867 का है। दरअसल यही दौर चाणक्य द्वारा प्रतिपादित भारतीय राष्ट्रवाद का सच था। यही राष्ट्रीयता हिंदुस्तानियों के अंतस में समाहित हो चुकी थी, जो कि अंग्रेजों की राष्ट्रीयता [अंग्रेजी राज सत्ता] को किसी भी कीमत पर सहयोग करने को तत्पर नहीं थी।

विभिन्नताओं के बावजूद भारत में एकानुभुति की भावना पायी जाती है। सर हर्बट रिजले ने सही लिखा है, भारत में धर्म, रीती-रिवाज, भाषा तथा सामाजिक और शारीरिक भिन्नताओं के होते हुए भी जीवन की एक विशेष एकरूपता कन्याकुमारी से लेकर हिमाचल तक देखी जा सकती है। आज जिस प्रकार जाति, धर्म और क्षेत्र-भाषा, मंदिर-मस्जिद को राष्ट्रीयता से ज़्यादा महत्व दिया जाता है, ऐसी संकीर्णता के पोषक या तो राष्ट्रिय आन्दोलन से अनभिज्ञ हैं या जानबूझ कर पाश्चात्य साम्राज्यवादी शक्तियों के उस षडयंत्र के यंत्र बने हुए हैं, जिसे देश की एकता अखंडता के विरुद्ध रचा गया है। आज कितने लोग हैं जिन्हें सत्येन्द्र नाथ ठाकुर, रंगोजी बापूजी और अज़ीम उलाह ख़ान के सम्बन्ध में थोडी बहुत भी जानकारी है। बंगाल में 1861 में सम्पादनी सभा की स्थापना की गयी थी। अमार बँगला कहने वाले भी तब भारत, हिन्दुस्तान या राष्ट्र शब्दों का बेहिचक प्रयोग किया करते थे। सभा के हर आयोजन में भारतेर जय बुलंद स्वर में गाई जाती थी। इस झंडा गीत के रचयिता थे प्रखर राष्ट्रवादी सत्येन्द्र नाथ ठाकुर। लेकिन इस झंडा गीत से बहुत पहले अज़ीमउलाह ख़ान (जन्म- 1820, पटकापुर, कानपुर; मृत्यु- 1859ने 1857 के आस पास भारत का झंडा गीत लिख लिया था।

गीत कुछ इस प्रकार था :

हम हैं इसके मालिक हिन्दुस्तान हमारा
पाक वतन है कौम का जन्नत से भी न्यारा।
यह है हमारी मिल्कियत हिन्दुस्तान हमारा
इसकी रूहानियत से रौशन है जग सारा।
कितना क़दीम,कितना नईम सब दुनिया से प्यारा
करती है जिसे सरखेज़ गंग-ओ-जमुन की धारा।
ऊपर बर्फीला पर्वत, पहरेदार हमारा
नीचे साहिल पे बजता सागर का नक़क़ारा।
इसकी खानें उगल रही हैं, सोना, हीरा, पारा
इसकी शान-ओ-शौकत का दुनिया में जयकारा।
आया फिरंगी दूर से ऐसा मंतर मारा
लूटा दोनों हाथों से न्यारा वतन हमारा।
आज शहीदों ने तुमको अहले वतन ललकारा
तोड़ो गुलामी की जंजीरें , बरसाओ अंगारा।
हिन्दू,मुस्लिम, सिक्ख हमारा,भाई-भाई प्यारा
यह है आज़ादी का झंडा इसे सलाम हमारा।

इस गीत को रानी लक्ष्मी बाई ,तात्या टोपे से लेकर रंगोंजी तक के सिपाही गाया करते थे। क्रांतिकारी अज़ीमउल्लाह ख़ान 1857 के स्वंत्रता संग्राम के उन महानायकों में से हैं जिनके शौर्य, साहस और अदम्य देशभक्ति के किस्से इतिहास के पन्नों में गुम होकर रह गए हैं। वरिष्ठ पत्रकार दिवंगत उदयन शर्मा , वरिष्ठ लेखक रूपसिंह चंदेल [जिन्होंने अज़ीमउल्लाह खान पर पुस्तक लिखी] जैसे लोग ही यदाकदा उनका स्मरण कर पाते हैं।

उदयन शर्मा ने अज़ीमउल्लाह के बारे में लिखा था कि उनका सम्बन्ध अत्यंत निर्धन परिवार से था। किशोरावस्था पर उन्हें किसी प्रकार अंग्रेजों के रसोई घरों में बावर्ची की नौकरी मिल गयी थी। ज्यादा पढ़े-लिखे तो थे नहीं, इसलिए अच्छी नौकरी की आशा ही बेकार थी। दूसरी तरफ़ उन्हें विदेशियों की गुलामी पसंद न थी। यहाँ पर आज़ादी के ख्वाब देखा करते थे। विदेशी माहौल में उन्होंने फ्रांसीसी और अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान अर्जन किया। हिन्दू-मुस्लिम एकता के वह प्रबल हिमायती थे। बिना आपसी एकता और सौहार्द के आज़ादी हासिल करना मुश्किल था। उन्हें इस बात का इल्म था। इसलिए वह जहां खानसामे की भूमिका में विदेशी ज़बान सीख रहे थे तो साथ साथ हिन्दू-मुस्लिम के बीच प्रेम सद्भाव कायम रखने के लिए यत्नशील थे।

भाषा ज्ञान पश्चात अज़ीमउल्लाह ख़ान ने बावर्ची की नौकरी छोड़ दी। एक स्कूल में शिक्षक हो गए। इस प्रकार वह दूरस्थ ग्रामों के लोगों के संपर्क में आये. धीरे-धीरे उनकी चर्चा नाना साहब के दरबार तक जा पहुँची। नाना साहब ने उनको अपने दरबार में बुला लिया। वह उनके सबसे प्रिय सलाहकार बन गए। 1854 में नाना साहब ने अज़ीमउल्लाह को अपना प्रतिनिधी बना कर इंग्लॅण्ड भेजा। यहाँ उनकी मुलाक़ात रंगोंबापू जी से हुई। वैचारिक साम्य के कारण दोनों जल्द ही मित्र बन गए। दोनों मित्र भारत को आज़ाद कराने के सपने संजोने लगे। विश्व समर्थन के लिए दोनों ने कई योरोपीय देशों की यात्रा की.अज़ीमउल्लाह ख़ान अंग्रेजों के विरुद्ध मदद मांगने रूस और तुर्की भी गए थे।
रूस से आकर अज़ीमउल्लाह ने राजमहल को क्रांति के वाहकों की छावनी में तब्दील कर दिया। वह सैनिकों को हथियार चलाने का अभ्यास कराने लगे। वह नाना साहब के साथ उत्तर भारत के उन सभी शहरों में गए जहां जहां अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति का बिगुल बज रहा था। इसी दौरान उन्होंने वह गीत लिखा, जिसे उत्तर भारत के सभी क्रांतिकारी सैनिक झंडा गीत की तरह गाते थे। 1857 के विद्रोह के बाद हज़ारों राष्ट्रभक्तों को बिना किसी मुक़दमें के पेड़ों पर लटका कर फांसी दी गयी थी। इन में हिन्दू भी थे और मुसलमान भी.नीम के पेड़ों पर लटकी इन अनगिनत लाशों में एक लाश पयाम-ए -आज़ादी पत्र के सम्पादक मिर्ज़ा बेदार बख्त की भी थी।